रविवार, 29 जुलाई 2012

मैं सही रास्ते पर हूँ...



आज के दैनिक ‘प्रभात खबर’ में कई लेखों ने मेरा ध्यान खींचा- पहले पन्ने के निचले हिस्से में (जहाँ आमतौर पर मानवीय संवेदना को छूनेवाले फीचर होते हैं) आलेख छपा है- आने ही वाला है धरती का ‘टिपिंग प्वाइण्ट’। लेखक हैं- डॉ. एन.के. सिंह। इसमें बताया गया है कि धरती के 43 प्रतिशत जंगल समाप्त हो चुके हैं, 2025 तक 50 प्रतिशत जंगल समाप्त हो जायेंगे, उसके बाद हम चाहकर भी अपने पर्यावरण को पहले जैसा नहीं बना पायेंगे। इसे वैज्ञानिकों ने ‘Point to No Return’ कहा है
      बाकी आलेख सम्पादकीय पन्नों पर हैं।
सम्पादक हरिवंश का आलेख है- खोखला आधुनिक आर्थशास्त्र, जो 1991 से (जब ये मनमोहन ही वित्तमंत्री थे) अब तक चल रहे उदारीकरण की निरर्थकता को बयान करता है, अपनी असफलता का ठीकरा ग्रीस पर फोड़ने की कोशिश पर हँसता है और बताता है कि इस उदारीकरण से अगर किसी को फायदा हो रहा है, तो वे हैं पूँजीपति एवं उद्योगपति और इसलिए वे उदारीकरण के अगले चरणों को लागू करने की माँग कर रहे हैं।
राजेन्द्र तिवारी का आलेख है- सोचिये, सोचने में पैसा नहीं लगता, जिसमें बताया गया है कैसे बाजारीकरण मोटे अनाजों से भी फायदा लूट रहा है और जिस कारण अब गरीबों के लिए मोटे अनाजों से पेट भरना भी मुश्किल हो गया है। एक आँकड़ा है कि दुनिया में 92.5 करोड़ लोग भूखे हैं, जिनमें एक तिहाई भारत में है! (bhookh.com देखा जा सकता है।)
एम.जे. अकबर अपने आलेख स्टाइल से अनमोल है संस्कृति, में एक जगह लिखते हैं- आप भाग्य या सृजनात्मक उपायों से अमेरिकी सेना से बचे रह सकते हैं, लेकिन आप अमेरिकन मैकडोनाल्ड से नहीं बच सकते। पूँजीवाद का कानून अचल है- कोई सेना बाजार की शक्ति को नहीं हरा सकती।
यह सब पढ़कर लगता है कि जब मैं-
1. शोषण (मनुष्य द्वारा मनुष्य का), दोहन (प्राकृतिक संसाधनों का- अन्धाधुन्ध) और उपभोग (अमेरिका द्वारा पोषित) पर आधारित वर्तमान व्यवस्था के ध्वस्त होने की बात करता हूँ;
2. इसके स्थान पर एक आदर्श विश्व व्यवस्था कायम करना चाहता हूँ;
3. इसकी शुरुआत भारत से करना चाहता हूँ;
4. इसके लिए दस वर्षों के लिए इस देश का डिक्टेटर बनना चाहता हूँ;
5. इसके लिए समय कम होने तथा उल्टी गिनती शुरु हो चुकने की बात करता हूँ;
तो मैं कहीं से भी गलत नहीं हूँ। हालाँकि मैं यह भी जानता हूँ कि यह असम्भव है (तभी तो मैं इसे पूरा करना चाहता हूँ!) और इस देश के वासी मुझसे सहमत नहीं होंगे, फिर भी, मैं अपने विचार पर दृढ़ हूँ। हो सकता है कि जब जनता की सारी उम्मीदें (जो उसने अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी से पाल रखी हैं) एक-एक कर चकना-चूर हो जायें, तब वह मुझे आवाज दे; यह भी हो सकता है कि मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति को देखते हुए नियति ही अपना रास्ता बदल दे; या फिर, अचानक किसी दिन कोई चमत्कार ही हो जाये!
(जिन्होंने मेरा घोषणापत्र अब तक नहीं देखा है, उनके लिए- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/)      

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

‘राष्ट्रपति’ के बहाने विचार-मन्थन: जनप्रतिनिधि मनोवृत्ति बदलें!



सभी जानते हैं कि 1950 में जब भारत एक गणतंत्र बन रहा था, तब सारे काँग्रेसी, सारे भारतीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति के रुप में देखना चाहते थे; सिवाय नेहरूजी के, जो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। कभी हमने सोचा, कि नेहरूजी को सी. राजगोपालाचारी जी में ऐसा कौन-सा गुण नजर आया था कि वे उन्हें पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे?
नेताजी के भाषणों का अनुवाद करते हुए जब मैं उनके 23 जून 1945 वाले भाषण का अनुवाद कर रहा था, तब मेरी नजर इन पंक्तियों पर पड़ी-  
“Was it not infamous and ridiculous for the Congress High Command to take disciplinary action against those veterans who were insisting on a struggle with British Imperialism, and on the other hand, let off scot-free those Congressmen like C Rajagopalachari, who were consistently advocating in public a policy virtually amounting to unconditional cooperation with the British Government?” 
(इस पंक्ति का अनुवाद जरा मुश्किल था, जितना मुझसे बन पड़ा, मैंने कुछ यूँ अनुवाद किया- जो दिग्गज ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखना चाहते थे, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करना काँग्रेस हाई कमान के लिए क्या हास्यास्पद तथा बदनामी भरा कदम नहीं था? जबकि दूसरी तरफ, सी. राजगोपालाचारी-जैसे काँग्रेसियों को बिना दण्ड दिये छोड़ दिया गया, जो जनता के बीच जाकर ब्रिटिश सरकार के साथ बिना शर्त सहयोग करने की नीति की लगातार वकालत किये जा रहे हैं!)
मेरे सामने बहुत कुछ साफ हो गया। नेहरूजी खुद भी ‘अँग्रेजीदाँ’ थे और पहले राष्ट्रपति के रुप में भी वे एक ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते थे, जो ‘भारतीय’ न हो, बल्कि ‘अँग्रेजीदाँ’ हो; इसलिए वे सी. राजगोलाचारी को चुनना चाहते थे, जो आजादी से ठीक पहले तक ब्रिटिश राज को बिना शर्त समर्थन देने की नीति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे!
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खैर, नेहरूजी को अन्त में बहुमत के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अपना उम्मीदवार घोषित किया।
मगर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राष्ट्रपति के नये मानदण्ड स्थापित करने से कैसे चूक गये? क्यों वे वायसराय-भवन में रहने के लिए राजी हो गये? क्यों नहीं वे चार-छह कमरों वाले साधारण मकान में रहे? उनके स्वभाव में तो आडम्बर नहीं था। (प्रसंगवश, विदेश यात्रा से पहले जब उनके सचिव ने उनके लिए नया कोट सिलवाना चाहा था, तब राजेन्द्र बाबू का कहना था- पुराना कोट तो अभी ठीक-ठाक ही है, नये की क्या जरुरत?)
भारत अँग्रेजों के लिए उपनिवेशों का कोहिनूर था, इसलिए अपने साम्राज्य की शानो-शौकत दिखलाने के लिए उन्होंने वायसराय के लिए इस विशाल महल को बनवाया था, मगर आजादी के बाद भारत को अँग्रेजों के नक्शे-कदम पर चलने की जरुरत क्या थी? क्या यह ब्रिटिश हैंगओवर का असर था, जिससे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद-जैसे सादगीपसन्द व्यक्ति भी नहीं बच पाये? या, क्या किसी ने उन्हें नये मानदण्ड स्थापित करने से रोका था? ऐसी कोई जानकारी तो नहीं मिलती, कि राजेन्द्र बाबू ने वायसराय-भवन को विश्वविद्यालय, या पुस्तकालय-वाचनायल-संग्रहालय बनाने का सुझाव रखा हो।
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खैर, जो हुआ सो हुआ, फिलहाल मैं राष्ट्रपति भवन को राष्ट्रीय अतिथिशाला बनाने का सुझाव रखता हूँ। याद किया जा सकता है कि जब अमेरीकी राष्ट्रपति भारत दौरे पर आये थे, तब एक होटल में उनके एवं उनके लाव-लश्कर के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय अतिथिशाला का उपयोग होना चाहिए, जहाँ दूसरे देश से आये प्रधान को उनकी पूरी फौज के साथ ठहराया जा सके।
राष्ट्रपति के रहने के लिए सामान्य सामान्य भवन को चुना जा सकता है। बेकार के आडम्बरों से भी तौबा करने की जरुरत है। सांसदों-विधायकों के लिए भी फ्लैटों की जरुरत नहीं है। इनके लिए भी हॉस्टल होने चाहिए- भले प्रत्येक सांसद-विधायक-मंत्री को एक के स्थान पर दो या तीन कमरे दे दिये जायें। इन्हें संसद / विधानसभा तक लाने-ले जाने के लिए बसें होनी चाहिए। यह सब करने से देश को बहुत फायदा होगा और जनता का भरोसा अपने जनप्रतिनिधियों पर बढ़ेगा।
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हमारे जनप्रतिनिधिगण जितनी जल्दी जनता के मनोभावों को समझ लें, उतना अच्छा। शान्तिपूर्ण बदलाव हमेशा बेहतर होता है। मगर अगर वे नहीं सुधरे, जनता एक दिन उनके गिरेबान पर हाथ डालकर उन्हें लुटियन बँगलों से निकाल बाहर करेगी। जिस दिन ऐसा होगा,  पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बलों के जवान मूकदर्शक बने रहेंगे- वे भी इन अजगरों की अँगरक्षा करते-करते तंग आ चुके हैं। सेना? सेना अपने ही नागरिकों पर गोली नहीं चलायेगी। वह तटस्थ रहेगी। अगर टॉप ब्रास ने फायर का आदेश दे भी दिया, तो सूबेदार और उनके मातहत जवान नागरिकों पर गोली चलाने से इन्कार कर देंगे। मुझे लगता है कि कैप्टन और लेफ्टिनेण्ट रैंक के अधिकारी भी सूबेदारों एवं जवानों का साथ देंगे, क्योंकि वे ‘आज के युवा’ होते हैं, ‘राजनीति’ समझते हैं और वे अच्छी तरह से जानते हैं कि देश का बँटाधार करने के पीछे किन लोगों का हाथ है!
मैं किसी बगावत का समर्थन नहीं कर रहा हूँ, बल्कि चेतावनी दे रहा हूँ कि हमारे जनप्रतिनिधि खुद को राजा, या शासक मानने तथा नागरिकों को प्रजा या शासित समझने की प्रवृत्ति का त्याग करें। आपको आसमान से संसद में नहीं टपकाया गया है कि आप हर बात में संसद की सर्वोच्चता का डण्डा चलाने लगते हैं- आपको जनता ने अपने प्रतिनिधि के रुप में चुनकर भेजा है और जनता को अधिकार है कि आपकी गर्दन पकड़कर आपको संसद से बाहर कर दे अगर आपने खुद को राजा या शासक समझने की कोशिश की तो!
वक्त बदल रहा है... इसकी नब्ज को समझ लिया जाय...  
दूसरी आजादी वास्तव में दूर नहीं है, जब अगस्त 1947 में हुए सत्ता-हस्तांतरण की शर्तों को कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा, ‘राष्ट्रमण्डल’ (कॉमनवेल्थ) की सदस्यता का परित्याग किया जायेगा, देश में उपलब्ध युवा शक्ति की प्रतिभा तथा प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करते हुए देश को दुनिया का सबसे खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली देश बनाया जायेगा... उस वक्त के जनप्रतिनिधि आम नागरिक की तरह साइकिल पर चलेंगे, नुक्कड़ों पर खड़े होकर आम लोगों से बतियायेंगे, उनके चारों तरफ कार्बाइन थामे मुस्टण्डे नहीं होंगे... मेरा यकीन कीजिये, वह दिन आयेगा...    

बुधवार, 18 जुलाई 2012

मेरी आशा, आशंका और योजना



      मैं आशा करता हूँ कि आगामी 25 जुलाई को अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में होनेवाला देशव्यापी आन्दोलन सफल हो; सरकार एक सशक्त लोकपाल का गठन करे, जो आगे चलकर व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार का खात्मा कर सके- कम-से-कम अंकुश लगा सके। मगर मुझे डर है कि ऐसा कुछ नहीं होगा- सरकार छल-बल-कौशल से इस आन्दोलन को विफल बना देगी।
      इसी प्रकार, आगामी 9 अगस्त को स्वामी रामदेव के नेतृत्व में होने वाली क्रान्ति के बारे में भी मैं आशा रखता हूँ कि यह सफल हो; सरकार देश-विदेश में छुपे कालेधन का राष्ट्रीयकरण करे, जिससे कि आगे चलकर सड़क, रेल, पुल, नहर, बिजली, विद्यालय, अस्पताल इत्यादि के निर्माण के लिए लम्बे समय तक पैसे की कमी न हो। मगर मुझे डर है कि इस आन्दोलन को भी सरकार साम-दण्ड-भेद के सहारे कुचल देगी।
      ***
      यह सही है कि अनशन से सिंहासन हिलते हैं, मगर राजा की आँखों में पानी होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने भारत को लूटा, मगर उसकी आँखों में पानी था- ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। हमारी आज की सरकार निर्लज्ज है- अनशन, सत्याग्रह से इसके कानों में जूँ तक नहीं रेंगेगी।
हाँ, अनशन करते हुए अगर कोई प्राण त्याग दे, तो शायद सरकार के कानों में जूँ रेंगे। तब भी सरकार को झुकाने के लिए आठ-नौ लोगों को बलिदान देना होगा। फिल्म ‘गुलामी’ में धरम जी के डायलॉग को याद किया जा सकता है-
      धूप से तपी धरती पर गिरने वाली बरसात की पहली बूँदों को तो फनाह होना ही पड़ता है!
      मगर मुझे डर है कि अन्ना जी, स्वामी जी, या उनके दल के सदस्यगण ऐसी स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं।
      अब पलटकर मुझसे न पूछा जाय कि मैं खुद बलिदान देने के लिए तैयार हूँ या नहीं। जी नहीं, मैं खुद को अनशन करते हुए शहीद नहीं कर सकता था। ‘गुलामी’ के बहुत दिनों बाद सन्नी देओल ने फिल्म ‘बॉर्डर’ में एक डायलॉग बोला, जो मुझे सही लगता है-
      दुनिया की कोई भी जंग मरकर नहीं जीती जाती! जंग जीती जाती है- दुश्मन को मारकर!
      ***
      मैं आशा करता हूँ कि 2014 के आम चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बने; देश की कमान थामने के बाद वे- 1.) देश की अर्थव्यवस्था को विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के चंगुल से बाहर निकालें, 2.) घरेलू संसाधनों एवं प्रतिभा के बल पर ही सूई से लेकर जहाज तक के निर्माण में स्वदेशीकरण को अपनायें, 3.) देश में जड़ें जमा चुकी बहुराष्ट्रीय निगमों को देश से निकाल बाहर करें, 4.) खेतीहर मजदूरों एवं सीमान्त किसानों को जमीन दिलाते हुए खेती योग्य जमीन का पुनर्वितरण करें, 5.) सरकारी वेतनमान में न्यूनतम व अधिकतम वेतन-भत्तों-सुविधाओं के बीच 1:15 से ज्यादा का अन्तर न रहने दें, 6.) आयात-निर्यात के मामले में शत-प्रतिशत बराबरी यानि 1:1 का अनुपात अपनायें, 7.) ‘राष्ट्रमण्डल’ की सदस्यता का परित्याग करें, 8.) ‘अमेरीकी प्रभुत्व’ के सामने झुकने से इन्कार करें और 9.) तिब्बत की आजादी का समर्थन करते हुए चीनी धमकियों से डरना छोड़ दें
      मगर मुझे डर है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। या तो जनता को बरगला कर तथा राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से दाँव-पेंच खेलकर काँग्रेस फिर से सत्ता हथिया लेगी; या फिर, सत्ता थामने के बाद नरेन्द्र मोदी जी वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण के अगले चरणों को लागू करने में अपनी सारी ताकत झोंक देंगे, ताकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और देशी पूँजीपति/उद्योगपति जबर्दस्त मुनाफा कमा सके!
      ***
      मैं आशा करता हूँ कि मेरे उपर्युक्त डर गलत साबित हों; अन्ना हजारे के नेतृत्व में 'लोकपाल' बने तथा भ्रष्टाचार पर लगाम लगे; स्वामी रामदेव के नेतृत्व में कालेधन का राष्ट्रीयकरण हो तथा देश का नवनिर्माण हो; और नरेन्द्र मोदीजी के नेतृत्व में भारत एक खुशहाल, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली देश बने। अगर ऐसा होता है, तो इस देश में मुझसे ज्यादा खुश कोई और नहीं हो सकता।
      मगर मुझे डर है कि मेरे उपर्युक्त डर कहीं सही न साबित हो जायें! अगर ऐसा होता है, तो मेरा अनुमान कहता है कि 2017 तक देश की स्थिति बहुत खराब हो जायेगी।
      स्थिति खराब होने के बाद दो बातें हो सकती हैं- 1.) सब कुछ यूँ ही चलता रहे- क्योंकि भारतीय आम आदमी की सहन शक्ति असीम होती है; 2.) हो सकता है आम आदमी का विश्वास सरकार, व्यवस्था और कानून से उठ जाये और वह सत्ता के खिलाफ बगावत कर दे।
      पहली स्थिति में मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। दूसरी स्थिति पैदा होने पर मैं इस देश का नेतृत्व करना चाहूँगा।
      मेरी योजना स्पष्ट है- लाखों की संख्या में लामबन्द होकर संसद का घेराव किया जायेगा, इस दौरान पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बल नागरिकों पर गोली नहीं चलायेंगे, सेनायें तटस्थ रहेंगी, राष्ट्रपति महोदय एक आम आदमी को दस वर्षों के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त करेंगे, उसके मार्गदर्शन के लिए एक चाणक्य सभा गठित की जायेगी और संसदीय प्रणाली को दस वर्षों के लिए निलम्बित किया जायेगा।
इस भावी दस वर्षीय चन्द्रगुप्तशाही के लिए बाकायदे घोषणापत्र तैयार है- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/ 
अभी तो मेरा यह घोषणापत्र आप सबको ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने लगेंगे’, मगर 2017 में अगर हालात बिगड़ जाये, तो मुझे याद कर लीजियेगा...
... मैं कोई गया वक्त नहीं हूँ कि आ न सकूँ... 
      ईति। 

रविवार, 15 जुलाई 2012

देश व्यवस्था में “क्रान्तिकारी” बदलाव माँग रहा है...



अमेरीकी प्रभुत्व को चुनौती देते हुए तथा आर्थिक उदारीकरण के पहिए को उल्टी दिशा में घुमाते हुए मैं एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था देश में कायम करना चाहता हूँ, जो देश को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनायेगा
      अब तक मैं सोचता था कि ऐसा करने वाला मैं शायद विश्व का पहला शासक होऊँगा; मगर आज के दैनिक प्रभात खबर’ के सम्पादकीय पृष्ठ को देखकर मेरी आँखें खुलीं- (दक्षिण अमेरीकी देश) वेनेजुएला में राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के नेतृत्व में इस प्रयोग की शुरुआत हो चुकी है। मैं कितना बड़ा मूर्ख था कि इस जानकारी से अब तक मैं दूर था! (क्या इसमें मीडिया का हाथ है, जो उदारीकरण तथा अमेरीकी प्रभुत्व के खिलाफ जानेवाली खबरों को सेन्सर कर देती है? ‘प्रभात खबर’ की बात जरा अलग है- मैंने पहले भी लिखा था कि इसके सम्पादक हरिवंश जी के प्रति मेरी धारणा अच्छी है- वे बाकायदे सम्पादकीय धर्म निभाते हैं।)
      आज ओबामा के नेतृत्व वाला अमेरीका वैसी घिनौनी हरकत करने से बचेगा, जैसा अतीत में उसने घाना के अन्क्रूमा, चिली के अयेन्दे और मिश्र के सादात के खिलाफ किया था। वियेतनाम-जैसी गलती भी वह नहीं दुहराना चाहेगा। ऐसे में, मुझे पूरा विश्वास है कि शावेज अपने अभियान में सफल होंगे। आज उनके देश के अन्दर जो मुट्ठीभर अमीर उनका विरोध कर रहे हैं, कल को देश की खुशहाली देखकर वे भी शावेज के समर्थक बन जायेंगे- ऐसी मैं आशा करता हूँ। हालाँकि अमेरीका को बिलकुल शरीफ देश समझना भी भूल होगी। हो सकता है, अपनी नीति में परिवर्तन लाते हुए सेना के ‘जेनरलों’ के बजाय ‘अमीरों’ के माध्यम से ही सी.आई.ए. कोई खतरनाक चाल चल दे!  
      ***

      इसी अखबार के सामने वाले पृष्ठ पर तीन सामग्रियाँ छपी हैं- एक, नेतृत्वहीन राष्ट्रीय राजनीति!, दो, राज्य में सिमटे छत्रप और तीन, नेतृत्व की तलाश... चौराहे पर खड़ी पार्टियाँ
      मैं लम्बे समय से यही बात कहना चाह रहा हूँ कि हमारे देश का संसदीय लोकतंत्र बीमार हो चुका है- इसे शल्यक्रिया की जरुरत है। देश को फिलहाल एक तानाशाही लोकतंत्र की जरुरत है, न कि संसदीय! एक तानाशाह ही संसदीय लोकतंत्र को बेहोश करके उसकी शल्यक्रिया कर सकता है और उसके अन्दर से कैन्सर की चारों गाँठों (भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट उच्चाधिकारी, भ्रष्ट अरबपति और माफिया सरगना) को निकाल बाहर कर सकता है। बेशक, यह तानाशाह निरंकुश नहीं होगा, बल्कि एक चाणक्य सभा के दिशा-निर्देशन में शासन करेगा।
      आज अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव जी यह आशा रखते हैं कि वे आन्दोलन तथा अनशन करके वर्तमान सरकारों को ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने तथा कालेधन को देश के काम में लगाने के लिए बाध्य कर सकते हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। देश का एक-एक राजनेता, एक-एक राजनीतिक दल भ्रष्टाचार और कालेधन का समर्थक है- आप किसी से उम्मीद नहीं रख सकते। इन्हें दस वर्षों के लिए निकोबार के किसी टापू पर छुट्टी बिताने के लिए भेजना ही होगा- तभी देश में कुछ अच्छा किया जा सकता है।
      ध्यान रहे- राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हावी होना कोई शुभ लक्षण नहीं है। और राष्ट्रीय दलों की हैसियत अब राष्ट्रीय नहीं रही।
      देश व्यवस्था में क्रान्तिकारी बदलाव माँग रहा है- सड़े-गले घाव पर पट्टियाँ बदलने से अब कुछ नहीं होगा। देश के नौजवान जितनी जल्दी मेरी बात समझेंगे, उतना ही अच्छा! 

शनिवार, 14 जुलाई 2012

गौहाटी-काण्ड के बहाने कुछ सोच-विचार



      नारी को निर्वस्त्र देखने की लालसा या कामना पुरुषों के मन में दबी हुई रहती है, जिसे मौका पाकर वह गँवाना नहीं चाहता। जरा सोचिये कि धृतराष्ट्र की राजसभा में जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था, तब भीष्म-जैसे शूरवीर और विदुर-जैसे महात्मा चुपचाप क्यों बैठे थे? दूसरी बात- प्रायः हर नारी दूसरी नारी से ईर्ष्या करती है- यह भी एक ध्रुव सत्य है। वर्ना क्या कारण था कि गान्धारी भी उस सभा में चुप रही थी? पाण्डव तो खैर, मेरी नजर में लानत के पात्र हैं, जो उस सभा में दुम दबाकर बैठे थे, वर्ना उन्हें तो प्राणों की परवाह किये बिना वहाँ हथियार उठा लेना चाहिए था। खैर, हो सकता है, यह सब नियति का खेल रहा हो।
      पुरूषों की यह लालसा सदा बनी रहेगी, क्योंकि यह उनके गुणसूत्र में दर्ज होती है शायद। घर-परिवार, बड़े-बुजुर्गों, अच्छी पुस्तकों इत्यादि से मिले अच्छे संस्कारों के बल पर यह  लालसा पर्दे के पीछे रहती है और सही जगह पर इसे प्रकट किया जाता है- यानि शयनकक्ष में अपनी धर्मपत्नी के मामले में। इस लालसा का अन्यथा प्रकटीकरण एक बुराई है- किसी भी परिवार, समाज, समुदाय, धर्म और राष्ट्र के लिए। दूसरी तरफ, यह भी सच है कि स्त्रियों का एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी देह का ज्यादा-से-ज्यादा प्रदर्शन कर या देहयष्टि को उत्तेजक बनाकर पुरूषों का ध्यान आकर्षित करने या उन्हें अपने वश में करने के प्रयास करता है और इसे जायज भी ठहराता है! व्यापारियों का तीसरा वर्ग भी है, जो नारी को उपभोग की वस्तु बनाकर अपना उल्लू सीधा करता है- यानि अपने उत्पाद बेचता है- इस मामले में न तो सरकार रोक लगा रही है, न ही नारी समाज खुद को जगरुक कर रहा है। नारी खुद ही अपना इस्तेमाल होने देती है- चारे के रुप में!  
***
दूर-दराज के पिछड़े इलाकों तथा आदिवासी बहुल क्षेत्रों में, जहाँ कि अशिक्षा तथा अन्धविश्वास का बोलबाला रहता है इस लालसा की पूर्ती के लिए डायन का खेल खेला जाता है- किसी को डायन घोषित करवाओ और फिर सरेआम उसके कपड़े उतारो। कभी-कभी विधवाओं के साथ भी यह खेल खेला जाता है- मृतक की सम्पत्ति को हथियाने के लिए- तब अन्त में उसकी हत्या ही कर दी जाती है।
ग्रामीण इलाकों में दबंग लोग कमजोर तबकों की महिलाओं के साथ यह खेल खेलते हैं- एक तीर से दो शिकार करने के लिए- कमजोर तबकों के आत्म-सम्मान को कुचलने तथा अपनी दबी लालसा की पूर्ती के लिए।
पर्यटन-स्थलों पर विदेशी पर्यटक महिलायें इस लालसा का शिकार बनती हैं, क्योंकि उनके प्रति आम भारतीयों की धारणा कुछ और ही है।
महानगरों में आधुनिकता के प्रभाव में आकर पुरूष ऐसा करते हैं और कई बार आधुनिकता के प्रभाव में स्त्रियाँ जाने-अनजाने में खुद ही इस लालसा का शिकार बन जाती हैं।  
जहाँ तक छोटे शहरों, कस्बों, बड़े गाँवों की बात है- वहाँ से ऐसी खबरें नहीं आती। इन जगहों का सामाजिक ताना-बाना देहातों, महानगरों और पर्यटन-स्थलों से अलग होता है- एक आदर्श भारतीय परिवेश-जैसा। गौहाटी की सड़क पर जो हुआ, वैसा किसी छोटे शहर, कस्बे या बड़े गाँव में नहीं होगा और अगर कुछ मनचलों ने ऐसी कोशिश कर भी दी, तो मनचलों की सामाजिक धुलाई को तो आप तय मान लीजिये!
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ऐसे मामलों में हम पुलिस तथा न्यायपालिका से कोई उम्मीद नहीं रख सकते- यह एक चुभती हुई सच्चाई है- यकीन न हो तो आँकड़े पलट कर देख लिये जायें- देर-सबेर इन अपराधों के अपराधियों को बचाने का ही काम हमारी पुलिस तथा न्यायपालिका करती है!
कई बार तो जिम्मेदार लोग इस मामले में ऊट-पटांग बयान देते नजर आते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ने कहा था कि सेक्सी टोण्ट पर लड़कियों को बुरा नहीं मानना चाहिए- क्योंकि यह उनकी सुन्दरता एवं कमनीयता की प्रशंसा है! तो अब गौहाटी वाली घटना पर वे क्या कहेंगी- ???
हद तो तब हो जाती है, जब एक महिला राष्ट्रपति बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले अपराधी को क्षमादान देती हुई नजर आती हैं! मेरे हिसाब से यह एक जघन्य क्षमादान है!
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इस घटना से व्यक्तिगत रुप से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि एक तरफ देहाती एवं ग्रामीण इलाकों को कुछ कदम आगे बढ़ाने की जरुरत तो है ही; नगरीय एवं महानगरीय सभ्यता-संस्कृति को कुछ कदम पीछे लौटाने की भी जरुरत है।
हो सकता है, पीछे लौटने की बात से लोग सहमत न हों, मगर मेरी यह दृढ़ धारणा है कि महानगरीय सभ्यता-संस्कृति जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है, वहाँ यही सब कुछ होगा।
रही बात कानून-व्यवस्था की, तो आप शायद जानते हों कि अँग्रेजों के इस कानून-व्यवस्था से मैं ऐसे ही नफरत करता हूँ और इसे पूरी तरह से हटाकर एक नयी व्यवस्था कायम करने का मैं दृढ़ समर्थक हूँ!       

शनिवार, 7 जुलाई 2012

“रामसेतु” के बहाने कुछ सोच-विचार



      पूर्वाग्रहों से रहित होकर सोच-विचार करने पर हम पायेंगे कि रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना ही होनी चाहिए। हजारों साल पहले जब समुद्र का जलस्तर एकाध मीटर नीचा रहा होगा, तब इस संरचना का बड़ा हिस्सा जल से बाहर रहा होगा। फिर भी, एक अच्छा-खासा बड़ा हिस्सा जल में डूबा हुआ होगा। 
     (टिप्पणी: I-SERVE की वेबसाईट http://serveveda.org के एक लेख Scientific Dating of Ramayan Era में बताया गया है कि  7000 से 7200 साल पहले समुद्र की सतह आज के मुकाबले 3 मीटर नीची थी. आज इस संरचना का ज्यादातर हिस्सा 3 मीटर ही डूबा हुआ है. यानि जब रामचन्द्रजी ने इस पुल से श्रीलंका पर चढ़ाई की थी, तब इसका ज्यादातर हिस्सा पानी से बाहर था- कम ही हिस्सा पानी में डूबा हुआ रहा होगा.)
      रामचन्द्रजी की सेना ने इन्हीं डूबे हुए हिस्सों पर पत्थरों को कायदे से जमाकर तथा कुछ खास तरीकों से बाँधकर इस प्राकृतिक संरचना के ऊपर एक प्रशस्त पुल तैयार किया होगा, जिससे होकर एक बड़ी सेना गुजर सके।
      जब नल और नील-जैसे इंजीनियरों की देख-रेख में सैनिक या मजदूर सही जगह पर पत्थरों को डाल रहे होंगे, तब ये पत्थर समुद्र की अतल गहराईयों में डूब नहीं जाते होंगे, बल्कि जल के नीचे की प्राकृतिक संरचना के ऊपर टिक जाते होंगे। इस प्रकार, पत्थरों की पहली, दूसरी, तीसरी, या चौथी परत डलते ही वे जल के ऊपर नजर आने लगते होंगे। आम सैनिकों या मजदूरों को यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगता होगा कि पत्थर समुद्र की अतल गहराई में डूब नहीं रहे हैं। तभी से पत्थरों के तैरने की किंवदन्ति प्रचलित हो गयी होगी।
      हजारों वर्षों बाद लहरों के आघात से जमे-जमाये और बँधे हुए ये पत्थर अपनी जगह से खिसक कर गहराई में डूब गये होंगे। समुद्र का जलस्तर भी बढ़ गया होगा। तब से इस प्राकृतिक संरचना का ज्यादातर हिस्सा जल के नीचे ही है।
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अगर यह एक प्राकृतिक संरचना है, तो जाहिर है कि यह लाखों साल पुराना होगा। और अगर यह लाखों साल पुराना है, तो जाहिर है कि इसके आस-पास पलने वाले समुद्री जीव-जन्तुओं, वनस्पति इत्यादि ने खुद को यहाँ की खास स्थिति के हिसाब से ढाल लिया होगा। ऐसे में, इस संरचना में यदि तोड़-फोड़ की जाती है और यहाँ से जलजहाजों का आवागमन शुरु होता है, तो इन जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगेगा- इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। अतः पर्यावरण संरक्षण के नजरिये से देखा जाय, तो तथाकथित ‘सेतु समुद्रतम’ परियोजना को त्याग देने में ही समझदारी है।
दूसरी बात, चूँकि इस संरचना के ऊपर ही पुल बाँधकर रामचन्द्रजी लंका गये होंगे, इसलिए इस संरचना के प्रति भारतीयों के मन आस्था होना स्वाभाविक है। ऐसे में सिर्फ और सिर्फ जलजहाजों के आवागमन के लिए एक शॉर्टकट बनाने के लिए करोड़ों भारतीयों की भावना को ठेस पहुँचाना कोई बुद्धिमानी नहीं है। हाँ, अगर आस्था एवं विश्वास शब्दों से ही नफरत रखने वाले कुछ खास लोग इसे तोड़ने की जिद ठान लें, तो यह अलग मामला बन जाता है।
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मेरा व्यक्तिगत सुझाव यह है कि इस प्राकृतिक संरचना के ऊपर फिर से पुल बाँध दिया जाय, ताकि भारत-श्रीलंका के बीच यातायात के लिए एक थल मार्ग बन जाय
ध्यान रहे- इस प्राकृतिक संरचना को तोड़कर जलजहाजों के लिए शॉर्टकट बनाना एक विध्वंसात्मक कार्रवाई होगी; जबकि इस संरचना के ऊपर पुल बनाकर दो पड़ोसी देशों के बीच यातायात को सुलभ बनाना एक रचनात्मक कार्रवाई होगी। ...और हर हाल में रचनात्मक सोच व काम बेहतर होता है बनिस्पत विध्वंसात्मक काम व सोच के।
‘विज्ञान’ एवं ‘तकनीक’ के बल पर ‘प्रकृति’ एवं ‘पर्यावरण’ पर ‘विजय’ प्राप्त करने की मनुष्य की जो ‘लालसा’ है, वह ‘आत्महत्या’ के समान है। क्योंकि हमने हवा और पानी में मकानों और गाड़ियों को तिनकों की तरह उड़ते और बहते हुए देखा है। सूर्य एक किलोमीटर भी अगर धरती की ओर खिसक जाय, तो हम सब खाक हो जायेंगे। ऐसे में, बेहतर है कि हम प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्मान करें और उनके साथ सामंजस्य बिठाते हुए जीने की कला सीख लें।
भावना से रहित प्रतिभा और प्रतिभा से रहित भावना दोनों ही बेकार है। उसी प्रकार, आस्था से रहित विज्ञान और विज्ञान से रहित आस्था भी बेकार है।

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