रविवार, 28 अप्रैल 2013

132. रामसेतु: एक चौंकानेवाली जानकारी...



"रामसेतु" पर मैंने पहले से ही ब्लॉग में दो पोस्ट तथा दोनों को मिलाते हुए तथा कुछ नयी जानकारियाँ जोड़ते हुए फेसबुक पर एक 'नोट' लिख रखा था. मगर अभी और जानकारियाँ पाकर मैं हैरान रह गया.
1961 से लेकर 1996 तक जितनी भी समितियाँ बनी थीं, सबने मण्डपम और धनुषकोडि के बीच की जमीन को काटते हुए नहर बनाने का सुझाव दिया था... किसी ने भी "रामसेतु" को क्षतिग्रस्त करने की बात नहीं कही थी!
मगर 2001 में भारत सरकार ने आश्चर्यजनक एवं रहस्यमयी तरीके से "रामसेतु" को तोड़ते हुए नहर बनाने का आदेश दिया!
मैं सोच रहा हूँ- क्या यह वही समय था, जब अमेरिका ने 'नासा' के माध्यम से "रामसेतु" के नीचे दबे "खनिज" का पता लगा लिया था???
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The complete article:


हाल ही में भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर कहा है कि चूँकि "सेतु समुद्रम परियोजना" पर 829 करोड़, 32 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं, इसलिए अब इसे बन्द नहीं किया जायेगा। कुछ समय पहले भारत सरकार ने अपने एक हलफनामे में रामजी को काल्पनिक बताया था। एक हलफनामे में यह भी कहा था कि रामायण के अनुसार चूँकिरामजी ने खुद ही इस पुल को तोड़ दिया था, इसलिए इसे तुड़वाने में कोई हर्ज नहीं है।
कितनी आश्चर्यजनक बात है! कहाँ तो भारत सरकार को इस पुल को विश्व धरोहर में शामिल करने के लिए यूनेस्को में अपील करनी चाहिए और कहाँ सरकार इसे नष्ट करने पर तुली है! ध्यान रहे कि सरकार द्वारा ही गठित 'पचौरी समिति' ने इस परियोजना पर आगे न बढ़ने की सलाह दे रखी है- क्योंकि यह फायदेमन्द साबित नहीं होगी!
इस परियोजना के तहत भारत-श्रीलंका के बीच (धनुषकोडि और तलईमन्नार के बीच) पानी में डूबा हुआ जो पुल है, उसे तोड़कर जलजहाजों के आवागमन के लिए कुल 89 किलोमीटर लम्बी दो नहरें बनायी जानी हैं। यह चूना-पत्थर की चट्टानों से बना प्रायः 30 किलोमीटर लम्बा पुल है। इसे "एडम्स ब्रिज" (बाबा आदम के जमाने का पुल) भी कहा जाता है। इन नहरों के बन जाने पर भारत के पूर्वी व पश्चिमी तटों के बीच आने-जाने वाले जलजहाजों के करीबन 30 घण्टे और 780 किलोमीटर बचेंगे, जो आज श्रीलंका का चक्कर लगाने में खर्च होते हैं।
इसी पुल के बारे में मान्यता है कि श्रीरामचन्द्र जी ने इसे श्रीलंका पर चढ़ाई करने के लिए बनाया था और रावण को हराकर, सीता को लेकर भारत लौटने के बाद इसे तोड़ भी दिया था। इस प्रकार, इस पुल के साथ भारतीयों की आस्था बहुत ही गहरे रुप से जुड़ी हुई है।
मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और वहाँ बड़ी-बड़ी बहस, बड़े-बड़े तर्क-वितर्क हो रहे है। यहाँ हम एक सामान्य भारतीय के नजरिये से पूरे मामले को देखने की कोशिश करते हैं।
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सबसे पहले हम "पूर्वाग्रहों से रहित होकर" सोच-विचार करते हैं। ऐसा करने पर हम पायेंगे कि रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना ही होनी चाहिए। हजारों साल पहले जब समुद्र का जलस्तर कुछ मीटर नीचा रहा होगा, तब इस संरचना का बड़ा हिस्सा जल से बाहर रहा होगा। फिर भी, एक अच्छा-खासा बड़ा हिस्सा जल में डूबा हुआ होगा।
      श्रीरामचन्द्रजी की सेना ने इन्हीं डूबे हुए हिस्सों पर पत्थरों को कायदे से जमाकर तथा कुछ खास तरीकों से बाँधकर इस प्राकृतिक संरचना के ऊपर एक प्रशस्त पुल तैयार किया होगा, जिससे होकर एक बड़ी सेना गुजर सके।
      जब नल और नील-जैसे इंजीनियरों की देख-रेख में सैनिक या मजदूर सही जगह पर पत्थरों को डाल रहे होंगे, तब ये पत्थर समुद्र की अतल गहराईयों में डूब नहीं जाते होंगे, बल्कि जल के नीचे की प्राकृतिक संरचना के ऊपर टिक जाते होंगे। इस प्रकार, पत्थरों की पहली, दूसरी, तीसरी, या चौथी परत डलते ही वे जल के ऊपर नजर आने लगते होंगे। आम सैनिकों या मजदूरों को यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगता होगा कि पत्थर समुद्र की अतल गहराई में डूब नहीं रहे हैं। तभी से पत्थरों के तैरने की किंवदन्ति प्रचलित हो गयी होगी।
      हजारों वर्षों बाद लहरों के आघात से जमे-जमाये और बँधे हुए ये पत्थर अपनी जगह से खिसक कर गहराई में डूब गये होंगे, जबकि मूल प्राकृतिक संरचना ज्यों की त्यों बनी रही होगी। समय के साथ समुद्र का जलस्तर भी बढ़ गया होगा। तब से इस प्राकृतिक संरचना का ज्यादातर हिस्सा जल के नीचे ही है।
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अब हम प्रचलित मान्यताओं की बात करते हैं। सर्वाधिक प्रचलित मान्यता के अनुसार रामजी आज से 17 लाख, 50 हजार साल पहले हुए थे। संयोगवश, इस सेतु की आयु भी 17 लाख, 50 हजार साल ही आंकी गयी है। इस मान्यता के तहत पूरे सेतु को ही "मानव निर्मित" बताया जाता है। अर्थात्, रामजी की सेना ने इस पुल को बनाया था।
हालाँकि रामजी के समय को लेकर बहुत सारी मान्यतायें हैं। "मनुस्मृति" में दी गयी जानकारी (24 वें महायुग के त्रेतायुग के समाप्त होने में जब लगभग 1041 वर्ष शेष थे, तब श्रीरामजीका जन्म हुआ था) के आधार पर शोध करने पर पाया जाता है कि आज (विक्रम संवत्2070) से लगभग 1 करोड़, 81 लाख, 50 हजार, 155 वर्ष पूर्व रामजीका जन्म हुआ था।
एक आधुनिक मान्यता इधर कुछ समय सेप्रचलित हो रही है, जिसके परिणाम ऊपर वर्णित "पूर्वाग्रह-रहित" विचारों से मेल खाते हैं। 'इंस्टीच्यूट ऑव साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदाज' (संक्षेप में "I-SERVE", वेबसाइट- http://serveveda.org) के वैज्ञानिकों ने आदिकवि बाल्मिकी द्वारा रामायण में वर्णित रामजी के जन्म के समय के ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति (भगवान राम के जन्म के समय सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र तथा शनि उच्चस्थ थे और अपनी-अपनी उच्च राशि क्रमशः मेष, मकर, कर्क, मीन और तुला में विराजमान थे।) को "प्लेनेटेरियम गोल्ड" नामक सॉफ्टवेयर में डालकर देखा, तो पाया कि कप्म्यूटर 10 जनवरी, 5114 ईसा पूर्व की तिथि तथा अयोध्या का स्थान बता रहा है। यानि रामचन्द्र जी का जन्म आज से 7,127 साल पहले अयोध्या में हुआ था- 10  जनवरी को। ध्यान रहे- यह "सौर कैलेण्डर" की तिथि है। इस तिथि को एक दूसरे सॉफ्टवेयर की मदद से "चन्द्र कैलेण्डर" में बदला गया, तो तारीख निकली- चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष का नौवाँ दिन और समयनिकला- दोपहर 12 से 1 के बीच। यह वही तारीख है, जब भारत में "रामनवमी"मनायी जाती है!
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       नेशनल इंस्टीच्यूट ऑव ओस्नोग्राफी, गोआ के वैज्ञानिक डॉ. राजीव निगम कहते हैं कि 7000-7200 साल पहले समुद्र का जलस्तर आज के मुकाबले 3 मीटर नीचा था। संयोग से, आज इस पुल का ज्यादातर हिस्सा समुद्र की सतह से तीन मीटर ही नीचे है। यानि रामजी के जन्म की 5114 ईस्वीपूर्व वाली तारीख अगर सही है, तो रामजी ने जब श्रीलंका पर चढ़ाई की होगी, तब इस पुलका ज्यादातर हिस्सा पानी से ऊपर ही रहा होगा- कुछ डूबे हुए हिस्सों पर ही पत्थरोंको जमाकर प्रशस्त पुल तैयार किया गया होगा।
       जियोलॉजिकल सर्वे ऑव इण्डिया के पूर्व निदेशक डॉ. बद्रीनारायण (जिनके नेतृत्व में 'सेतुसमुद्रम शिपिंगचैनल प्रोजेक्ट' के भूगर्भशास्त्रीय पक्षों का अध्ययन किया गया था) के अनुसार, रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना है, जिसका ऊपरी हिस्सा मानव-निर्मित है, क्योंकि समुद्री बालू के बीच में पत्थर, मूंगे की चट्टानें और बोल्डर पाये गये। इस अध्ययनमें न केवल पुल के दोनों किनारों को अपेक्षाकृत ऊँचा पाया गया था, बल्कि यहाँ मेसोलिथिक-माइकोलिथिक उपकरण भी पाये गये थे, जिससे पता चलता है कि 8000-9000 साल पहले इस पुल से होकर सघन यातायात होता था। 4,000 साल पहले तक, यानि रामजी के लौटने के बाद भी 3,000 वर्षों तक इस पुल से होकर आवागमन होता था- ऐसे सबूत पाये गये।
       कहा तो यहाँ तक जाताहै कि 15 वीं सदी तक इस पुल पर चलना सम्भव था और सन 1480 ईस्वी में आये एक भयानक तूफान में यह पुल तहस-नहस हुआ।
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       अब बात पर्यावरण की। चूँकि यह एक प्राकृतिक संरचना है और लाखों साल पुरानी है, इसलिए जाहिर है कि इसके आस-पास पलने वाले समुद्री जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों इत्यादि ने खुद को यहाँ की खास स्थिति के हिसाब से ढाल लिया है। यहाँ के मूँगे खास तौर पर प्रसिद्ध हैं। ऐसे में, इस संरचना में यदि तोड़-फोड़ की जाती है और यहाँ से जलजहाजों का आवागमन शुरु होता है, तो यहाँ पाये जाने वाले जीव-जन्तुओं, मूँगों तथा वनस्पतियों के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगेगा- इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, आस-पास के लाखों मछुआरों का जीवन-यापन भी प्रभावित होगा।
यह भी कहा जाता है कि यह संरचना सुनामी की लहरों को रोकती हैं।
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       कहने का तात्पर्य यह है कि रामजी को एक काल्पनिक चरित्र मानते हुए या रामजी द्वारा इस सेतु को बनाने, या प्राकृतिक संरचना पर सेतु बाँधने की बात को माइथोलॉजी बताते हुए सिर्फ जलजहाजोंके आवागमन के लिए एक शॉर्टकट बनाने के उद्देश्यसे करोड़ों भारतीयों की भावना को ठेस पहुँचाना कोई बुद्धिमानी नहीं है। न ही पर्यावरण की दृष्टि से लाखों साल पुरानी इस संरचना में तोड़ना उचित माना जायेगा।
हाँ, अगर आस्था एवं विश्वास शब्दों से ही नफरत रखने वाले कुछ खास लोग इसे तोड़ने की जिद ठान लें, तो यह अलग मामला बन जाताहै। इसी प्रकार, अगर कुछ लोग सिर्फ अपना मुनाफा देखें और इसकी परवाह बिलकुल न करें कि हमें आनेवाली नस्लों के लिए भी पर्यावरण को रहने लायक बनाये रखना है, तो फिर अलग बात है।
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लगे हाथ इस मामले में 'राजनीति' की बात भी हो जाय। ऐसी हवा फैलायी जा रही है कि वर्तमान काँग्रेस सरकार ने इस परियोजना को बनाया है और भाजपा इसके सख्त खिलाफ है। वास्तव में, यह मामला काफी पुराना है और इस मामले में सारी राजनीतिक बिरादरी साथ-साथ है।
"मन्नार कीखाड़ी" से होकर जलजहाजों के लिए रास्ता बनाने की परिकल्पना 1860 में जन्मी थी, जब अल्फ्रेड डी. टेलर नामक एक अँग्रेज ने ऐसा सोचा था। आजादी से पहले इस परिकल्पनाको साकार करने की दिशा में 9 समितियाँ बनीं और आजादी के बाद 5 समितियाँ। हर समिति ने 'धनुषकोटि' और 'मण्डपम' के बीच की जमीन को काटकर नहर बनाने का सुझाव दिया। 1956, 1961, 1968, यहाँ तक कि 1996 की रिपोर्ट में भी "रामसेतु" को तोड़ने का जिक्र नहीं था।
मगर आश्चर्यजनक रुप से 2001 में भारत सरकार ठीक उसी प्रोजेक्ट को मान्यता देती है, जिसमें "रामसेतु" को तोड़ते हुए नहरों का निर्माण होना था। क्या उन्हीं दिनों अमेरिका अपनी अन्तरिक्ष संस्था 'नासा' के माध्यम से "रामसेतु" पर शोध कर रहा था- कि इसकी तह में कौन-कौन से खनिज हैं?
इस समय अटल बिहारी वाजपेयी साहब प्रधानमंत्री थे, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके स्वयंसेवक रह चुके हैं। बेशक, वे चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल-जैसे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं थे- उन्होंने विश्व समुदाय के खिलाफ जाकर परमाणु परीक्षणको हरी झण्डी दी थी और देशवासियों के स्वाभिमान को जगाया था। मगर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अमूल्य धरोहर "रामसेतु" को तोड़ने वाली इस परियोजना को पूरा करने के प्रति अपनी "प्रतिबद्धता" उन्होंने क्यों जतायी थी- यह एक रहस्यहै!
       जब भाजपा के नेतृत्व वाली तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार हर हाल में "रामसेतु" को तोड़ने पर आमादा थी, तो  काँग्रेस केनेतृत्व वाली वर्तमान सरकार से भला हम क्या उम्मीद रखें? इसी सरकार के निर्देश पर 2 जुलाई 2005 को रामसेतु को तुड़वाने का काम शुरु हो गया!
       हालाँकि शुरु में रहस्यमयी तरीके से दो क्रेन डूब भी गये। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाकर पर्यावरण तथा आर्थिक मुनाफे के आधार पर परियोजना की समीक्षा करने के लिए कहा। 2008 में 'पचौरी समिति' बनी, जिसने इस परियोजना को पर्यावरण के लिए हानिकारक तथा व्यवसायिक रुप से अलाभदायक बताया। मगर भारत सरकार इस मामले को इज्जत का सवाल मानकर इस परियोजना को हर हाल में पूरा करना चाहती है।
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यहाँ इस बात का जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्री जयसूर्या ने इस सेतु के ऊपर से होकर सड़क बनाने का सुझाव भारत सरकार को दिया था, मगर भारत सरकार ने इसे नहीं माना। कई बड़ी कम्पनियाँ इस सड़क पुल को बनाने के लिए रुचि भी दिखला चुकी हैं। जाहिर है कि इस सड़क पर जब भारत-श्रीलंका के बीच यातायात होगा, तो दोनों सरकारों की कमाई भी होगी। मगर इस कमाई को छोड़कर भारत सरकार जलजहाजों से ही कमाई क्यों पाना चाहती है?
करोड़ों भारतीयों की आस्था को ठोकर मारते हुए, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हुए, व्यवसायिक दृष्टि से हानिकारक होते हुए भी आखिर भारत सरकार लाखों साल पुराने इस सेतु को क्यों तोड़ना चाहती है? क्या इसके पीछे कोई गुप्त रहस्य है?
कहा जा रहा है कि इस सेतु को तुड़वाकर इसके कचरे को अमेरिका को सौंप दिया जायेगा। अमेरिका ने पता लगा लिया है कि इस सेतुके नीचे 'थोरियम' (एक रेडियोधर्मी तत्व, जिसका उपयोग परमाणु बम में भी हो सकता है) का बड़ा भण्डार है। यह आशंका कहाँ तक सच है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। मगर भारत सरकार ने इस सेतु को तोड़ने के लिए जिस तरह की जिद्द ठान रखी है और जिस तरह भाजपा-काँग्रेस दोनों राष्ट्रीय दल इस मामले में मौसेरे भाई बने हुए हैं, उससे तो 'थोरियम' पाने के लिए 'अमेरिकी दवाब' का सन्देह गहरा हो ही रहा है!
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ध्यान रहे- इस प्राकृतिक संरचना को तोड़कर जलजहाजों के लिए शॉर्टकट बनाना एक "विध्वंसात्मक" कार्य होगा; जबकि इस संरचना के ऊपर पुल बनाकर दो पड़ोसी देशों के बीच यातायात को सुलभ बनाना एक "रचनात्मक" कार्य होगा। ...और हर हाल में रचनात्मक सोच व काम बेहतर होता है बनिस्पत विध्वंसात्मक काम व सोच के।
विज्ञान एवं तकनीक के बल पर प्रकृतिएवं पर्यावरण पर विजय प्राप्त करने की मनुष्य की जो लालसा है, वह आत्महत्या के समान होती है। क्योंकि हमने हवा और पानी में मकानों और गाड़ियों को तिनकों की तरह उड़ते और बहते हुए देखा है। सूर्य एक किलोमीटर भी अगर धरती की ओर खिसक जाय, तो हम सब खाक हो जायेंगे। ऐसे में, बेहतर है कि हम प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्मान करें और उनके साथ सामंजस्य बिठाते हुए जीने की कला सीख लें।
भावना से रहित प्रतिभा और प्रतिभा से रहित भावना दोनों ही बेकार है। उसी प्रकार, आस्था से रहित विज्ञान और विज्ञान से रहित आस्था भी किसी काम की नहीं।

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गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

131. तेजाब



       आज के अखबार में मनेर (बिहार) की "चंचल" (19 वर्षीया युवती) तथा उसकी बहन "सोनम" की कहानी पढ़कर जिस दुःख, जिस गुस्से का अनुभव किया, उसे मैं बयान नहीं कर सकता
दोनों को बीते वर्ष 21 अक्तूबर को तेजाब से जला दिया गया था। खासकर, चंचल उन दरिन्दों के निशाने पर थी- उसका चेहरा बुरी तरह से जल गया है।
       उसकी जिस बात से मैंने सबसे ज्यादा बेचैनी महसूस की, उसे मैं यहाँ अखबार से उद्धृत कर रहा हूँ:   
"तब से अब तक चैन से नहीं सो पायी हूं :
चंचल बताती है, जिन चार लड.कों (अनिल, घनश्याम, बादल और राज) ने मेरे साथ यह किया, वे रसूखदार हैं. जब वे मुझे छेड.ते थे और मैं उनको शिकायत करने की धमकी देती थी, तो वे मुझसे कहा करते थे कि तुम दलित हो. तुम हमारा कुछ भी बिगाड. नहीं सकती. हम तो छूट ही जायेंगे. आज भी उनकी यह बात मेरे कानों में गूंजती है. उस रात से ले कर अब तक मैं एक भी रात चैन से नहीं सोयी. हर रात को डर लगता है कि अभी कोई आयेगा और दोबारा मुझ पर तेजाब फेंकेगा. कभी झपकी लग भी जाती है, तो मैं घबरा कर उठ जाती हूं. ऐसा लगता है कि वे जेल से छूट गये हैं और मुझसे बदला लेने आ गये हैं. हर रात मेरी डर-डर कर बीतती है. उस दिन के बाद से दिन के वक्त भी छत पर जाने से डर लगता है. कभी-कभी लगता है कि इससे तो अच्छा होता कि मर गयी होती. इतना दर्द, जलन, तकलीफ तो न सहनी पड.ती. न मैं बोल पा रही हूं.. न ठीक से खाना खा पा रही हूं. खुल कर हंसना तो दूर की बात, मुस्कुरा भी तो नहीं सकती. जब भी टीवी में मुंहासे की क्रीम, गोरी होने की क्रीम, साबुन का विज्ञापन देखती हूं या कोई सुंदर लड.की देखती हूं तो खूब रोना आता है मुझे. अब मैं बस उन लड.कों को सजा दिलाना चाहती हूं, जिन्होंने मेरी जिंदगी बरबाद कर दी. मैं चाहती हूं कि लोग मेरी और मेरे जैसी लड.कियों के दर्द को समझे. मेरे साथ खडे. रहे और मुझे न्याय दिलाएं. और ऐसे लड.कों के खिलाफ कोई एक्शन ले ताकि फिर किसी लड.की का चेहरा मेरी तरह खराब न हो. मैं चाहती हूं कि सरकार हमारी मदद करे.
(नोट : इस घटना में आरोपित राजकुमार व बादल फिलहाल जेल में हैं. मुख्य आरोपित अनिल कुमार को नाबालिग होने के कारण बाल सुधार गृह, पटनासिटी में रखा गया है.)"
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       मेरी पत्नी अंशु को 24 अगस्त' 1987 की रात मेरठ के निकट गढ़मुक्तेश्वर में तेजाब से जला दिया गया था तब वह 11वीं की छात्रा थी। मैंने शादी उससे 9 साल बाद की, 1996 में। जहाँ तक मुझे याद है- करीब एक-डेढ़ साल तक ऐसा होता था कि वह रात में नीन्द से अचानक जाग जाती थी, उठकर बैठ जाती थी और मारे डर के वह काँपने और हाँफने लगती थी!
       अखबार में चंचल की बात पढ़कर मुझे उन दिनों की याद आ गयी। सोचता हूँ- 9 साल अंशु ने कैसे बिताये होंगे... किसी भी रात वह चैन से सोयी होगी...?
       अंशु का तो फिर भी आधा चेहरा जलने से बच गया था, और वह काफी हिम्मती थी- वह कभी मायूस नहीं हुई, मगर चंचल का सारा चेहरा ही जल गया है। सोचता हूँ... क्या अपनी इस जिन्दगी में उसे कभी चैन की नीन्द नसीब होगी...?
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130. "5-सूत्री चीन-नीति": एक सुझाव


    
कहावत है कि विपत्ती कभी अकेले नहीं आती। आज जबकि भारत घरेलू मोर्चों पर बुरी तरह उलझा हुआ है- स्थिति करीब-करीब अराजक-विस्फोटक है, चीन ने लद्दाख में घुसपैठ करके तथा पीछे हटने से मना करके एक नया सरदर्द पैदा कर दिया है।
जाहिर है कि भारत उन्हें धकेल कर पीछे नहीं हटायेगा- वे अपनी मर्जी से लौट जायें तो भले लौट जायें। न लौटें, तो हम कुछ नहीं कर सकते।
इस 'तात्कालिक' घुसपैठ का क्या हल निकलेगा, यह तो नहीं पता; मगर यहाँ 'पूर्णकालिक' सुझाव पेश किये जा रहे हैं कि "वास्तव में" भारत की "चीन-नीति" क्या एवं कैसी होनी चाहिए।

1.   रूस से दोस्ती
चीन शरीर से 'दानव', दिमाग से 'शातिर' और स्वभाव से 'धौंसिया' है। इसके मुकाबले भारत का "राष्ट्रीय चरित्र" एक ऐसे "शरीफ आदमी" का बनता है, जो अपने झगड़ालू पड़ोसी से झमेला मोल लेने या उसके खिलाफ कोर्ट-कचहरी जाने से बचता है और इसके लिए अपनी कुछ जमीन तक छोड़ने के लिए राजी हो जाता है। ऐसे में, दुनिया में भारत का एक ऐसा "दोस्त" होना ही चाहिए, जो शरीर से दानव, दिमाग से शातिर हो और जिसने अतीत में धौंस भी खूब जमायी हो। भारत का ऐसा दोस्त रूस ही हो सकता है। अतीत में रूस ने भारत के साथ "दोस्ती निभायी" भी है- 1971 के युद्ध के दौरान।
'सोवियत संघ' के विघटन के बाद रूस से मुँह मोड़ लेना भारत की एक "महान कूटनीतिक भूल" है। जबकि दोस्ती के तकाजे के अनुसार रूस के बुरे वक्त में भारत को उसका साथ देना चाहिए था। मगर भारत ने रूस को छोड़ अमेरिका के साथ पींगे बढ़ाना शुरु कर दिया। अमेरिका कभी किसी का "दोस्त" नहीं हो सकता- यह एक खुली सच्चाई है- खासकर, भारत का दोस्त तो वह हर्गिज नहीं हो सकता- जैसा कि इतिहास बताता है। अमेरिका हर रिश्ते में "अपना हित" तथा "अपनी कम्पनियों का मुनाफा" देखता है- और कुछ नहीं।
कहते हैं कि जब भी जागो, सवेरा समझो। इस नीति के तहत भारत को रूस के साथ "पूर्णकालिक" मित्रता करनी चाहिए, आपदा-विपत्ती में, अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में एक-दूसरे का साथ देना चाहिए और वक्त पड़ने पर एक-दूसरे को "सैन्य मदद" देने से भी नहीं हिचकना चाहिए। अगर ऐसी दोस्ती भारत-रूस के बीच कायम हो गयी, तो भारत पर धौंस जमाने से पहले चीन दस बार सोचेगा। आज उसे कुछ सोचने की जरुरत ही नहीं है- क्योंकि दुनिया में भारत का दोस्त भला है ही कौन?

2.  तिब्बत का समर्थन
किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का एक "भौतिक बल" होता है, और एक होता है- "नैतिक बल" या "आत्मबल"। कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मबल वक्त पड़ने पर "चमत्कार" का काम करता है।
आत्मबल पैदा होता है- सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखने से। किसी भी तरह के "भय" या "लालच" से अगर कोई व्यक्ति, समाज या राष्ट्र सही को गलत या गलत को सही ठहराने लगे, तो वह अपना आत्मबल खो देता है।
तिब्बत के मामले में यही हुआ है। तिब्बत पर चीन के बलात् अधिग्रहण को मान्यता देकर भारत ने अपना आत्मबल खो दिया है। फायदा कुछ नहीं हुआ- चीन अब भी गाहे-बगाहे अरूणाचल प्रदेश तथा लेह-लद्दाख पर अपना हक जता ही देता है। "अक्षय चीन" छोड़ने की तो वह सोचता ही नहीं है।
फिर वही बात- जब भी जागो, सवेरा समझो। भारत को तिब्बत की आजादी का समर्थन करना चाहिए, धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार को राजकीय सम्मान देना चाहिए और दुनिया के दूसरे देशों से भी ऐसा करने का आग्रह करना चाहिए।
इनके अलावे, भारत को दो काम और करने चाहिए-
(क) लेह से लेकर अरूणाचल तक सीमा से सटे क्षेत्र को "नया तिब्बत" घोषित कर देना चाहिए और तिब्बतियों को इस गलियारे में बसाना चाहिए।
(ख) 'भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल' में तिब्बती युवाओं को भर्ती करते हुए इसे सीमा पर तैनात करना चाहिए। बेशक, जहाँ यह सीमा नेपाल और भूटान से गुजरती है, वहाँ नेपाली एवं भूटानी युवाओं को इस बल में भर्ती करते हुए तैनाती करनी चाहिए। इस बल की बटालियनों में भारतीय जवानों का 50 प्रतिशत रखना ही पर्याप्त होगा।

3.  "जम्बूद्वीप" का पुनरुत्थान
जब कोई दुर्घटना होती है, तो "पड़ोसी" ही पहले मदद के लिए आते हैं- दूर के दोस्त या रिश्तेदार बाद में आते हैं। इस नीति के तहत भारत को अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, बर्मा, श्रीलंका, मालदीव से दोस्ती बनाये रखने के लिए हर जरूरी कदम उठाने चाहिए। इतना ही नहीं, थाईलैण्ड, वियेतनाम, लाओस, कम्बोडिया, मलेशिया, इण्डोनेशिया से भी भारत को मित्रता कायम करनी चाहिए। रही बात पाकिस्तान और बाँग्लादेश की, तो यहाँ कुछ ऐसे तत्व हैं, जो भारत को नुक्सान पहुँचाते हैं- इस मामले में भारत को सख्ती तथा सतर्कता बरतनी चाहिए।
ऊपर जिन देशों के नाम आये हैं, उन्हें अगर "संगठित" कर लिया जाय, तो चीन की धौंस से निपटा जा सकता है। ये सारे देश चूँकि प्राचीनकाल के "जम्बूद्वीप" में आते हैं, इसलिए इस संगठन को "जम्बूद्वीप" ही नाम दिया जाना चाहिए।
डर सिर्फ एक है कि भारत इस संगठन में कहीं "बड़ा भाई" बनने की कोशिश न करे- वर्ना भारत और चीन में अन्तर ही क्या रह जायेगा? अतः भारत को चाहिए कि वह खुद को इस भावी संगठन में "बराबर का" साझीदार माने। अगर सभी देश राजी हों, तो तिब्बत को भी इसका "मेहमान" सदस्य बनाया जा सकता है।     
       भारत के लिए बेहतर होगा कि वह यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के बीच जाकर "अब्दुल्ला बनकर नाचना" छोड़ दे और अपने पड़ोसियों के साथ दोस्ती करना सीख ले।

4.  बराबरी का व्यापार
कहते हैं कि पैसा सबकुछ नहीं, तो बहुत-कुछ जरूर होता है- इसकी मार बड़ी गहरी होती है।
भारत को चाहिए कि वह चीन के साथ बराबरी का व्यापार करे। उसूल सीधा हो- अगर आप हमसे 100 रुपये का सामान खरीदेंगे, तो हम भी आपके यहाँ से 100 रुपये का ही सामान अपने यहाँ आने देंगे।
चीन ही क्यों, प्रायः सभी अमीर देशों के साथ इस नीति को अपनाया जा सकता है।
इससे भारत को कोई नुक्सान नहीं होगा- उल्टे, 'आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है' के तहत भारत में उच्च तकनीक वाली वस्तुओं का निर्माण शुरु हो जायेगा!

5.  लोकतांत्रिक आन्दोलन को नैतिक समर्थ
कहने को चीन एक "साम्यवादी" देश है, मगर वहाँ साम्यवाद का "स" भी नहीं खोजा जा सकता। वहाँ के शासक जिन आलीशान महलों में रहते हैं, उसकी चहारदीवारी के पार झाँकने की भी हिम्मत आम चीनियों में नहीं है। आम चीनी "खुली हवा" में साँस लेने के लिए तड़प रहे हैं।
यह सही है कि थ्येन-आन-मेन चौक की बगावत के बाद चीन में लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन नहीं हुआ है, मगर वहाँ की जनता अपने शासकों से प्यार करने लगी हो- ऐसा हो ही नहीं सकता। गुप्त रुप से लोकतंत्र समर्थक जरूर कोई योजना बना रहे होंगे।
भारत को चाहिए कि वह इन गुप्त आन्दोलनकारियों के सम्पर्क में रहे और इन्हें नैतिक समर्थन दे। इसके अलावे, खुले रुप से चीन के आम नागरिकों के प्रति अपनी सहानुभूति जताये।
कभी-न-कभी चीन की 'जनता की सेना' के जवानों की बुद्धि खुलेगी और वे लोकतंत्र की स्थापना में रोड़े अटकाने से इन्कार कर देंगे। तब लोकतंत्र समर्थकों के साथ भारत की दोस्ती बहुत काम आयेगी।

अन्त में, सौ बातों की एक बात- आज की तारीख में भारत में राजनेताओं का जो चरित्र है, उसे देखते हुए उपर्युक्त सुझावों को अमली जामा पहनाये जाने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इन राजनेताओं को देखकर सिर्फ कीच-स्नान रत शूकरों की याद आती है, और किसी की नहीं।
किसे फिक्र है- देश की सीमा की सुरक्षा की? 
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सोमवार, 22 अप्रैल 2013

129. 2017



       आज के अखबार में वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर लिखते हैं:
       "इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अब वही कोई अगला प्रधानमंत्री बनाये रख सकता है, जो दृढ. प्रशासक हो जिसमें भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता हो और जो विकास को ही अपनी राजनीति का मूल मंत्र बनाये यदि ऐसा नहीं हुआ, तो धीरे-धीरे लोकतंत्र पर से आम जन का विश्‍वास पूरी तरह उठ जायेगा जनता का जब लोकतंत्र से विश्‍वास उठता है, तो उसे तानाशाह ही अच्छा लगना लगता है" 
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       मेरा आकलन कहता है कि आगामी आम चुनाव के दो-ढाई वर्ष के अन्दर लोगों का "लोकतंत्र" पर से "भरोसा" पूरी तरह से उठ जायेगा। यह कैसे होगा- अभी मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। मगर ऐसी कुछ घटनायें जरूर घटेंगी कि स्थिति "जनता बनाम राजनेता" की बन जायेगी। देश के अन्दर गरीबों-अमीरों के बीच की खाई इतनी चौड़ी हो जायेगी कि देश में अगर गृहयुद्ध छिड़ जाय, तो आश्चर्य नहीं! गृहयुद्ध न भी छिड़ा, तो स्थिति अराजक होनी ही है।
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       आज देश की मौजूदा हालात को देखते हुए एक वरिष्ठ एवं अनुभवी पत्रकार "तानाशाही" की बात सोचने लगा है, या कम-से-कम प्रधानमंत्री के रुप में एक "सख्त" प्रशासक की बात करने लगा है, तो जाहिर है कि 2017 की अराजक स्थिति में आम लोग भी "तानाशाही" की बात सोचने लगेंगे
मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि उपर्युक्त उद्धरण में सुरेन्द्र किशोर जी का ईशारा एन.एम. की तरफ तो नहीं ही है ('दृढ़' और 'विकास' शब्दों को देखते हुए बहुत लोग ऐसा सोच सकते हैं)। भले खुलकर कहने से वे बच रहे हों, मगर उन्हें देश का उद्धार अब एक "वास्तविक" "तानाशाही" में नजर आने लगा है। मेरा अनुमान है कि देश के ज्यादातर बुद्धीजीवियों की सोच अब इस तरफ बढ़ने लगी है।
मैं एक सिद्धान्त देना चाहूँगा: "आदर्श तानाशाही के माध्यम से आदर्श लोकतंत्र की स्थापना।" ("Ideal democracy through ideal dictatorship.")
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       इसी के साथ अपने एक पुराने सिद्धान्त को भी दुहरा दूँ कि ऐसा क्यों जरूरी है: कोई भी शल्य चिकित्सक कितना भी काबिल क्यों न हो, वह अपने शरीर पर चीरा लगाकर खुद पर शल्यक्रिया नहीं कर सकता। (हालाँकि एक रूसी शल्य चिकित्सक ने अपने ऊपर शल्यक्रिया की थी- यह एक अपवाद है।) ठीक उसी प्रकार, भारतीय लोकतंत्र भी, चाहे वह कितनी भी अच्छी शासन-प्रणाली क्यों न हो, वह खुद अपने ऊपर चीरा लगाकर कैन्सर की चार गाँठों- 1. भ्रष्ट राजनेता, 2. भ्रष्ट उच्चाधिकारी, 3. भ्रष्ट पूँजीपति तथा 4. माफिया सरगना- को निकाल बाहर नहीं कर सकती! भारतीय लोकतंत्र को क्लोरोफॉर्म सूँघाकर 10 वर्षों के लिए बेहोश करना ही होगा और एक तानाशाह को थोड़ी-बहुत निर्ममता के साथ उसके पेट पर चीरा लगाकर कैन्सर की उपर्युक्त चारों गाँठों को निकालना होगा। बेशक, 10 वर्षों में इस लोकतंत्र को स्वस्थ बनाकर वह इसे फिर सत्ता सौंप देगा।   
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यह सही है कि ईदी अमीन-जैसे नृशंस, हिटलर-जैसे नस्लवादी और मुशर्रफ-जैसे मूर्ख तानाशाहों ने "तानाशाही" को घृणास्पद, खौफनाक तथा मजाक बना दिया है, मगर सच यह है कि तानाशाही भी शासन की एक विधा ही है। एक अच्छा तानाशाह एक अराजक देश को खुशहाल, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली तथा पथभ्रष्ट नागरिकों को सुसभ्य, सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत बना सकता है। तुर्की के तानाशाह कमाल अतातुर्क पाशा इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
बताना प्रासंगिक होगा कि हमारे नेताजी सुभाष इन्हीं कमाल पाशा से प्रभावित थे।
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       एक कहावत है- एक टूटा-फूटा लोकतंत्र हजार गुना बेहतर होता है तानाशाही से! 'सोशल मीडिया' पर उपस्थित भारतीयों को अगर "नमूना" माना जाय, तो पता चलता है कि देशवासी तानाशाही से नफरत करते हैं; उन्हें यही डर सताता है कि कहीं तानाशाह के रुप में एक ईदी अमीन, हिटलर, या मुशर्रफ उन्हें न मिल जाय; और वे एन.एम., आर.जी. या ए.के. में- फिलहाल- देश का भविष्य देखने में व्यस्त हैं- किसी दूसरी विचारधारा के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं है। कुछ लोग ए.एच. और एस.आर. को देश का तारणहार मान रहे हैं।
       जहाँ तक मेरी बात है, मैं ए.एच. और एस.आर. को तारणहार इसलिए नहीं मानता कि ये दोनों "सत्ता की बागडोर बिना थामे बिना" व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं- यह कुछ वैसा ही है, जैसे चूहों से उम्मीद पालना कि वे अपने लिए चूहेदानी का निर्माण खुद करेंगे! एन.एम. और आर.जी. फिलहाल दो विपरीत ध्रुव हैं, मगर मुझे डर है कि अगले आम चुनाव के बाद ये दोनों कहीं हाथ न मिला लें... नॉर्थ व साउथ ब्लॉक की आलमारियों में कैद "कंकालों" की "गोपनीयता" बनाये रखने के लिए! ए.के. के लिए राह मुश्किल है क्योंकि चुनाव प्रणाली दूषित है- बिना करोड़ रुपया खर्च किये अब चुनाव जीतना सम्भव नहीं है- ऐसी स्थिति बना दी गयी है पिछले कुछ दशकों में।
       इसलिए मैं "सपना देखता हूँ" कि 2017 तक भारतीयों की सारी उम्मीदें चकनाचूर हो जायेंगी; देश में राजनीतिक "निर्वात्" पैदा हो जायेगी; तब चलेगी एक "आँधी", जिसमें देश के नागरिक व सैनिक दोनों शामिल होंगे; और उसके बाद देश की राजसत्ता एक आदर्श तानाशाह के हाथों में सौंप दी जायेगी।   
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मैं 1995-96 से ही- आज से 17-18 साल पहले से- यह मानकर चल रहा हूँ कि देश को 10 वर्षों की एक तानाशाही की सख्त आवश्यकता है, वर्ना यह देश एक "असफल" राष्ट्र बन जायेगा!
मैंने उस भावी "तानाशाह" की एक छवि भी बना रखी है, जिसमें नेताजी सुभाष-जैसी भव्यता और लाल बहादूर शास्त्री-जैसी सादगी दोनों होगी। उसका स्वभाव विपत्ती में तथा अमीरों एवं बुरे लोगों के प्रति वज्र से भी कठोर होगा, तो सम्पत्ति में तथा गरीबों एवं अच्छे लोगों के प्रति फूल से भी कोमल होगा।
मैंने बीते सितम्बर में सामान्य तरीके-से (बिना 'तानाशाही' शब्द का जिक्र किये) 'फेसबुक' पर इन शब्दों में उस भावी तानाशाह का चित्र खींचा था-
"क्या हम उस दिन की कल्पना कर सकते हैं, जब हमारे देश का प्रधान एक आम आदमी की तरह एक मामूली साइकिल पर सवार होकर दिल्ली की सड़कों पर (या किसी भी शहर/गाँव में) घूमेगा... उसके चारों तरफ कार्बाईन थामे या काला चश्मा लगाये अंगरक्षक नहीं होंगे... आस-पास चलते राहगीर ज्यादा-से-ज्यादा उसे देखकर मुस्कुरा देंगे या हल्के से हाथ हिला देंगे... वह जब किसी रेस्तोराँ में जायेगा, तो पहले से बैठा कोई ग्राहक उसके लिए कुर्सी खाली नहीं करेगा... और वहाँ का बेयरा अन्य ग्राहकों की तरह ही उससे व्यवहार करेगा- भले एकबार वह उसे नमस्ते कह दे...
अगर हमसब ऐसी कल्पना कर सकते हैं, तो जान लीजिये कि "परिवर्तन" अब ज्यादा दूर नहीं है.. 
और अगर हम ऐसी कल्पना नहीं कर सकते, तो गाँठ बाँध लीजिये कि हमारे देश के दुर्भाग्य का दौर अभी और लम्बा चलेगा... !"
       (एक मजेदार बात मैं बताऊँ कि मेरी इस पोस्ट को किसी ने गम्भीरता से नहीं किया था, मगर जब इसी पोस्ट को स्व॰ श्री राजीव दीक्षित जी की याद में ने- बाकायदे मेरे नाम के साथ- पोस्ट किया, तो 9 अप्रैल तक इसे 13 शेयर और 56 पसन्द मिल चुके थे! जाहिर है, मेरा अपना दायरा बहुत छोटा है।)
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       खैर। मेरे वाले उद्धरण में अन्तिम जो दो पंक्तियाँ हैं, उसमें गहरा अर्थ छुपा है। अगर हम वाकई ऐसे राष्ट्रनायक की कल्पना न कर सकें और इस कल्पना पर हँस दें, तो हो सकता है कि 2017 के बाद भी देश की किस्मत करवट न ले....
       ...क्योंकि जब तक बहुत-से लोग अच्छा सोचेंगे नहीं, तब तक अच्छा घटित कैसे होगा?
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