गुरुवार, 26 जुलाई 2012

‘राष्ट्रपति’ के बहाने विचार-मन्थन: जनप्रतिनिधि मनोवृत्ति बदलें!



सभी जानते हैं कि 1950 में जब भारत एक गणतंत्र बन रहा था, तब सारे काँग्रेसी, सारे भारतीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति के रुप में देखना चाहते थे; सिवाय नेहरूजी के, जो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। कभी हमने सोचा, कि नेहरूजी को सी. राजगोपालाचारी जी में ऐसा कौन-सा गुण नजर आया था कि वे उन्हें पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे?
नेताजी के भाषणों का अनुवाद करते हुए जब मैं उनके 23 जून 1945 वाले भाषण का अनुवाद कर रहा था, तब मेरी नजर इन पंक्तियों पर पड़ी-  
“Was it not infamous and ridiculous for the Congress High Command to take disciplinary action against those veterans who were insisting on a struggle with British Imperialism, and on the other hand, let off scot-free those Congressmen like C Rajagopalachari, who were consistently advocating in public a policy virtually amounting to unconditional cooperation with the British Government?” 
(इस पंक्ति का अनुवाद जरा मुश्किल था, जितना मुझसे बन पड़ा, मैंने कुछ यूँ अनुवाद किया- जो दिग्गज ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखना चाहते थे, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करना काँग्रेस हाई कमान के लिए क्या हास्यास्पद तथा बदनामी भरा कदम नहीं था? जबकि दूसरी तरफ, सी. राजगोपालाचारी-जैसे काँग्रेसियों को बिना दण्ड दिये छोड़ दिया गया, जो जनता के बीच जाकर ब्रिटिश सरकार के साथ बिना शर्त सहयोग करने की नीति की लगातार वकालत किये जा रहे हैं!)
मेरे सामने बहुत कुछ साफ हो गया। नेहरूजी खुद भी ‘अँग्रेजीदाँ’ थे और पहले राष्ट्रपति के रुप में भी वे एक ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते थे, जो ‘भारतीय’ न हो, बल्कि ‘अँग्रेजीदाँ’ हो; इसलिए वे सी. राजगोलाचारी को चुनना चाहते थे, जो आजादी से ठीक पहले तक ब्रिटिश राज को बिना शर्त समर्थन देने की नीति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे!
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खैर, नेहरूजी को अन्त में बहुमत के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अपना उम्मीदवार घोषित किया।
मगर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राष्ट्रपति के नये मानदण्ड स्थापित करने से कैसे चूक गये? क्यों वे वायसराय-भवन में रहने के लिए राजी हो गये? क्यों नहीं वे चार-छह कमरों वाले साधारण मकान में रहे? उनके स्वभाव में तो आडम्बर नहीं था। (प्रसंगवश, विदेश यात्रा से पहले जब उनके सचिव ने उनके लिए नया कोट सिलवाना चाहा था, तब राजेन्द्र बाबू का कहना था- पुराना कोट तो अभी ठीक-ठाक ही है, नये की क्या जरुरत?)
भारत अँग्रेजों के लिए उपनिवेशों का कोहिनूर था, इसलिए अपने साम्राज्य की शानो-शौकत दिखलाने के लिए उन्होंने वायसराय के लिए इस विशाल महल को बनवाया था, मगर आजादी के बाद भारत को अँग्रेजों के नक्शे-कदम पर चलने की जरुरत क्या थी? क्या यह ब्रिटिश हैंगओवर का असर था, जिससे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद-जैसे सादगीपसन्द व्यक्ति भी नहीं बच पाये? या, क्या किसी ने उन्हें नये मानदण्ड स्थापित करने से रोका था? ऐसी कोई जानकारी तो नहीं मिलती, कि राजेन्द्र बाबू ने वायसराय-भवन को विश्वविद्यालय, या पुस्तकालय-वाचनायल-संग्रहालय बनाने का सुझाव रखा हो।
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खैर, जो हुआ सो हुआ, फिलहाल मैं राष्ट्रपति भवन को राष्ट्रीय अतिथिशाला बनाने का सुझाव रखता हूँ। याद किया जा सकता है कि जब अमेरीकी राष्ट्रपति भारत दौरे पर आये थे, तब एक होटल में उनके एवं उनके लाव-लश्कर के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय अतिथिशाला का उपयोग होना चाहिए, जहाँ दूसरे देश से आये प्रधान को उनकी पूरी फौज के साथ ठहराया जा सके।
राष्ट्रपति के रहने के लिए सामान्य सामान्य भवन को चुना जा सकता है। बेकार के आडम्बरों से भी तौबा करने की जरुरत है। सांसदों-विधायकों के लिए भी फ्लैटों की जरुरत नहीं है। इनके लिए भी हॉस्टल होने चाहिए- भले प्रत्येक सांसद-विधायक-मंत्री को एक के स्थान पर दो या तीन कमरे दे दिये जायें। इन्हें संसद / विधानसभा तक लाने-ले जाने के लिए बसें होनी चाहिए। यह सब करने से देश को बहुत फायदा होगा और जनता का भरोसा अपने जनप्रतिनिधियों पर बढ़ेगा।
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हमारे जनप्रतिनिधिगण जितनी जल्दी जनता के मनोभावों को समझ लें, उतना अच्छा। शान्तिपूर्ण बदलाव हमेशा बेहतर होता है। मगर अगर वे नहीं सुधरे, जनता एक दिन उनके गिरेबान पर हाथ डालकर उन्हें लुटियन बँगलों से निकाल बाहर करेगी। जिस दिन ऐसा होगा,  पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बलों के जवान मूकदर्शक बने रहेंगे- वे भी इन अजगरों की अँगरक्षा करते-करते तंग आ चुके हैं। सेना? सेना अपने ही नागरिकों पर गोली नहीं चलायेगी। वह तटस्थ रहेगी। अगर टॉप ब्रास ने फायर का आदेश दे भी दिया, तो सूबेदार और उनके मातहत जवान नागरिकों पर गोली चलाने से इन्कार कर देंगे। मुझे लगता है कि कैप्टन और लेफ्टिनेण्ट रैंक के अधिकारी भी सूबेदारों एवं जवानों का साथ देंगे, क्योंकि वे ‘आज के युवा’ होते हैं, ‘राजनीति’ समझते हैं और वे अच्छी तरह से जानते हैं कि देश का बँटाधार करने के पीछे किन लोगों का हाथ है!
मैं किसी बगावत का समर्थन नहीं कर रहा हूँ, बल्कि चेतावनी दे रहा हूँ कि हमारे जनप्रतिनिधि खुद को राजा, या शासक मानने तथा नागरिकों को प्रजा या शासित समझने की प्रवृत्ति का त्याग करें। आपको आसमान से संसद में नहीं टपकाया गया है कि आप हर बात में संसद की सर्वोच्चता का डण्डा चलाने लगते हैं- आपको जनता ने अपने प्रतिनिधि के रुप में चुनकर भेजा है और जनता को अधिकार है कि आपकी गर्दन पकड़कर आपको संसद से बाहर कर दे अगर आपने खुद को राजा या शासक समझने की कोशिश की तो!
वक्त बदल रहा है... इसकी नब्ज को समझ लिया जाय...  
दूसरी आजादी वास्तव में दूर नहीं है, जब अगस्त 1947 में हुए सत्ता-हस्तांतरण की शर्तों को कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा, ‘राष्ट्रमण्डल’ (कॉमनवेल्थ) की सदस्यता का परित्याग किया जायेगा, देश में उपलब्ध युवा शक्ति की प्रतिभा तथा प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करते हुए देश को दुनिया का सबसे खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली देश बनाया जायेगा... उस वक्त के जनप्रतिनिधि आम नागरिक की तरह साइकिल पर चलेंगे, नुक्कड़ों पर खड़े होकर आम लोगों से बतियायेंगे, उनके चारों तरफ कार्बाइन थामे मुस्टण्डे नहीं होंगे... मेरा यकीन कीजिये, वह दिन आयेगा...    

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