शनिवार, 23 मार्च 2013

118. भगत और सुभाष की आत्मा को और मत रूलाईये....



बहुत अच्छा लगता है, जब सोशल मीडिया पर लोगों को भगत सिंह और नेताजी सुभाष की तस्वीरों तथा कथनों को साझा करते देखता हूँ- खासकर, 23 जनवरी और 23 मार्च को मगर सच्चाई यह है कि हम आम भारतीय सौ-दो सौ साल पहले भी कायर, दब्बू, डरपोक, चापलूस थे और आज भी हैं! हमलोग हमेशा यही चाहते हैं कि 'क्रान्तिकारी' पैदा तो हों, मगर अपने नहीं, पड़ोसी के घर में हमलोग 'सत्ताधारियों' के पीठ पीछे कुछ भी कह लें, उनके सामने आते ही हम अपना दुम हिलाते हैं, कूं-कूं करते हैं और मौका मिले, तो उनके तलवे भी चाटते हैं!
जब तक भगत सिंह और सुभाष जिन्दा रहते हैं, हम उनका साथ देने के लिए खुलकर सड़क पर नहीं आते मगर उनके शहीद होते ही उनकी तस्वीरें लेकर सड़्कों पर निकल पड़ते हैं
क्या सोचा था भगत सिंह ने? यही न कि मुझे फाँसी लगने के बाद देश का युवा वर्ग आन्दोलित हो जायेगा... क्रान्ति हो जायेगी... अँग्रेजी सत्ता को लोग उखाड़ फेकेंगे.... मगर कुछ हुआ? नहीं न?
क्या सोचा था सुभाष ने? यही न कि जैसे ही मैं एक छोटी-सी सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचूँगा, देश की जनता सड़कों पर आ जायेगी... ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर देंगे... मगर कुछ हुआ? नहीं न?
यही है हम भारतीयों का असली चरित्र!
शीशे की तरह साफ दीख रहा है कि आज देश में जो स्थिति है, वह अँग्रेजी राज से अलग नहीं है शासन-प्रशासन-पुलिस-न्यायपालिका- सारी-की-सारी व्यवस्था- मुट्ठीभर लोगों को फायदा पहुँचा रही है... देश की आम जनता को अपनी चौखटों से यह दुत्कार कर भगा देती है... फिर भी इस देश के महान लोकतंत्र पर, महान संविधान पर हम फिदा रहते हैं... कहीं "बगावत" की एक छोटी-सी चिंगारी भी नजर नहीं आ रही है... इसी सड़ी-गली व्यवस्था में, इसी भ्रष्ट चुनाव प्रक्रिया के तहत, बस इसे हटाकर उसे बैठाने के लिए सारे-के-सारे पढ़े-लिखे लोग मानो पगला रहे हैं! कोई "सम्पूर्ण बदलाव" नहीं चाहता!
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इस ब्लॉग के पिछले सन्देश में महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार पर लिखते-लिखते मेरी कलम बहक गयी थी और उस वक्त मैंने ये पंक्तियाँ लिखी थीं-
 "हम भारतीयों के दिलो-दिमाग पर "तीन महान भ्रमों" ने कब्जा कर रखा है-
पहला भ्रम:   "15 अगस्त 1947 को देश को "आजादी" मिली थी।"
जबकि वास्तविकता यह है कि उसदिन "सत्ता-हस्तांतरण" हुआ था और सांकेतिक रुप से ही सही, मगर हमारा देश आज भी ब्रिटेन का एक डोमेनियन स्टेट है, जिस कारण हम आज भी पाकिस्तान, श्रीलंका तथा अन्यान्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में अपने "राजदूत" नहीं भेज सकते- हम वहाँ "उच्चायुक्त" भेजते हैं।
दूसरा भ्रम: "हमारा संविधान एक महान संविधान है।"
जबकि वास्तविकता यह है कि इसका दो-तिहाई हिस्सा (प्रायः 70 प्रतिशत अंश) '1935 का अधिनियम' है, जिसे अँग्रेजों ने एक 'गुलाम' देश पर 'राज' करने के लिए बनाया था, न कि एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाने के लिए।
तीसरा भ्रम: "हमारे देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली कायम है।"
जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने चुनाव क्षेत्र के प्रायः दो-तिहाई (70 प्रतिशत) मतदाताओं का प्रतिनिधित्व "नहीं" करते हैं और हमारे संसद में बैठने वाले लगभग साढ़े पाँच सौ जनप्रतिनिधि देश की जनता की भलाई के लिए नीतियाँ नहीं बनाते, बल्कि 5-7 शक्तिशाली सांसदों की एक "किचन कैबिनेट" विश्व बैंक, आईएमएफ, ड्ब्ल्यूटीओ तथा अमीर देशों के दलाल बनकर पूँजीपतियों, उद्योगपतियों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों को फायदा पहुँचाने और देश के संसाधनों को लूटने की नीयत से नीतियाँ बनाते हैं।
जब तक देशवासियों के दिलो-दिमाग से इन भ्रमों का सफाया नहीं हो जाता, इस देश में बदलाव की गुंजाइश एक रत्ती भी नहीं है।"
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               आप चाहे इसे गद्दी पर बैठा दो, या उसे- कहीं एक रत्ती भी कुछ नहीं बदलने वाला.
मेरे साथियों, अगर भगत सिंह और सुभाष की तरह सारी वर्तमान व्यवस्था, जो कि शोषण, दोहन और उपभोग पर आधारित है, को जड़ से उखाड़ फेंकने तथा इसके स्थान पर एक नयी व्यवस्था, जो कि समता, पर्यावरण-मित्रता और आध्यात्म पर आधारित हो, को कायम करने का जज्बा आप दिल में रखते हों, तो भगत सिंह और सुभाष के चित्र साझा कीजिये.... और अगर आप वर्तमान महान संविधान के तहत वर्तमान शासन-प्रशासन-पुलिस-न्याय प्रणाली के निर्देशों का पालन करते हुए बस इसके स्थान पर उसे बैठाने की इच्छा रखते हों, तो...
....मेहरबानी करके भगत और सुभाष की आत्मा को और मत रूलाईये....

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