रविवार, 11 मई 2014

168. "जज साहब, सारा संविधान ही असंवैधानिक है!"


       माननीय जज साहब,
       कुछ समय पहले आपको जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) असंवैधानिक नजर आयी थी, जो सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों को एक तरह से सुरक्षा प्रदान करती थी
       अभी आपको भ्रष्ट उच्चाधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करने वाली धारा 6(1) (दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टेब्लिशमेण्ट एक्ट) असंवैधानिक नजर आयी है।
       (हालाँकि मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि संविधान में ही लिखी गयी कोई बात भला असंवैधानिक कैसे हो सकती है!? चलिए, मान लेता हूँ कि आपका आशय है कि ये धारायें "आदर्शवादिता", "मर्यादा", "नैतिकता" इत्यादि के खिलाफ है।)
       मैं संतुष्ट हूँ कि अँग्रेजों के जाने के मात्र 6-7 दशकों बाद ही आपको कम-से-कम दो धारायें असंवैधानिक नजर आ गयीं! आशा है, यह तरक्की जारी रहेगी और 6-7 शताब्दियाँ बीतते-बीतते आपलोगों को यह अहसास जरूर हो जायेगा कि यह जो अपना महान संविधान है, वह सारा-का-सारा संविधान ही असंवैधानिक है! क्योंकि इसका दो-तिहाई हिस्सा "1935 के अधिनियम" पर आधारित है। इस अधिनियम को अँग्रेजों ने किसी स्वतंत्र एवं सम्प्रभु राष्ट्र को खुशहाल स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली बनाने के लिए नहीं गढ़ा था, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े गुलाम देश पर राज करने के लिए बनाया था!
       बेशक, बाद में दुनियाभर के संविधानों की कुछ अच्छी बातों को कट करके इसमें पेस्ट जरूर किया गया था, मगर उनमें जो सबसे महत्वपूर्ण था- "नीति-निदेशक तत्व"- उसे बाध्यकारी बनाया ही नहीं गया! यानि सरकारें इन अच्छी बातों का पालन करे या न करे, कोई फर्क नहीं पड़ता। कहते हैं कि गाँधीजी कहीं संविधान के बारे में कहीं उल्टा-सीधा न कह दें- इस डर से बिल्कुल अन्तिम क्षणों में इसे जोड़ा गया था- वर्ना ऐसी अच्छी बातें जोड़ने का कोई इरादा अम्बेदकर साहब का नहीं था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद-जैसों का दवाब पड़ा था अन्त में, तब जोड़ा गया।  
       कुछ गैर-भारतीय अवधारणायें भी जबरन इसमें घुसेड़ दी गयीं- जैसे "धर्मनिरपेक्षता", जो कि एक "नकारात्मक" अवधारणा है। भारतीय अवधारणा "सर्वधर्म समभाव" तथा "वसुधैव कुटुम्बकम" को नजरअन्दाज किया गया, जो कि "सकारात्मक" अवधारणायें हैं।
       15 अगस्त 1945 के बाद भी लॉर्ड माउण्टबैटन सालभर तक भारत के वायसराय बने रहे- यह कैसी स्वतंत्रता, कैसी सम्प्रभुता थी?
       जज साहब, इस देश की शासन प्रणाली (जिसमें बिना चुनाव लड़े एक व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता है), यहाँ का प्रशासनिक ढाँचा, यहाँ की पुलिस व्यवस्था, यहाँ का सैन्य ढाँचा, यहाँ तक कि आपकी न्यायपालिका भी- सबके-सब असंवैधानिक है! बोलिये क्यों, क्योंकि "स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार" का गठन 1945 में ही हो चुका था- उसकी अपनी न्यायपालिका, अपनी राष्ट्रीय सेना, अपना बैंक, सबकुछ था- वही भारत की "राष्ट्रीय व्यवस्था" थी! यह जो व्यवस्था है, जिसे "सत्ता-हस्तांतरण की शर्तों" के तहत ज्यों-का-त्यों अपना लिया गया है, यह वास्तव में "औपनिवेशिक" व्यवस्था है, जिसमें एक पक्ष शासक होता है, दूसरा गुलाम; जिसका मकसद होता है- देश की प्राकृतिक संसाधनों की लूट!

       आज आप मुझे जेल भेज सकते हैं देशद्रोह के आरोप में, मगर 6-7 शताब्दियों के बाद आप ही की न्यायपालिका को इस कृत्य के लिए माफी भी माँगेगी पड़ेगी- इतना जरूर ध्यान रखियेगा.... 

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