रविवार, 13 जुलाई 2014

177. रेल को रेल ही रहने दो


       रेल को रेल ही रहने दिया जाय- इसे हवाई जहाज न ही बनाया जाय, तो बेहतर। जिन्हें कहीं पहुँचने की बहुत जल्दी हो, वे हवाई जहाज पकड़ लें और जिन्होंने बुलेट ट्रेन में बैठने की कसम खा ली है, वे चीन या जापान की नागरिकता ले लें!
       हम तो इतना ही चाहेंगे कि हमारी रेलगाड़ी- पैसेन्जर तथा एक्सप्रेस दोनों- ज्यादा लेट न हो, किराया भी ज्यादा न हो, सुरक्षा एवं संरक्षा थोड़ी चाक-चौबन्द हो, बस और क्या? स्टेशन के बाथरूम वगैरह साफ-सुथरे हों- ये 'पे एण्ड यूज' वाली व्यवस्था अटपटी लगती है।
       मान लीजिये, बुलेट ट्रेनों का जमाना आ ही गया, तो क्या होगा? सहयात्रियों से बातचीत नहीं के बराबर होगी, मूँगफली वाले या दूसरे हॉकर नहीं होंगे, खिड़की से हाथ निकाल कर किसी स्टेशन पर कुछ खरीद नहीं सकेंगे... और सबसे बड़ी बात ऐसी फिल्में नहीं बन पायेंगी, जिसमें कोई शाहरुख खान प्लेटफार्म से खिसकती ट्रेन के दरवाजे से हाथ बढ़ाकर किसी काजोल या दीपिका को ट्रेन में चढ़ा सके! तो यह एक नीरस रेल होगी। है कि नहीं? हम भी जापानियों के तरह ट्रेन में बैठते ही पुस्तक/पत्रिका या डिक्शनरी निकाल कर बैठ जायेंगे। वैसे, यह पुरानी बात है- आज के दौर में वे लैपटॉप लेकर बैठते होंगे। यही हम भी किया करेंगे। यात्रा का कोई आनन्द ही नहीं रह जायेगा।
       मैं एक पैसेन्जर ट्रेन की एक बोगी के अन्दर का फोटो पेश कर रहा हूँ। इसमें एक महिला एक बकरी को पीपल के पत्ते खिला रही है। फोटो में पता नहीं चल रहा है- आगे बाथरुम के पास साइकिल भी रखी थी। वैसे, कायदे से, साइकिल को पैडल के सहारे खिड़की के सरिया से लटकाना चाहिए था। आप कुछ भी कहें, मुझे तो ऐसे ही सफर में आनन्द आता है!
       स्टेशन अगर हवाई अड्डे-जैसे बन गये, तो न बेघर वहाँ रात बिता पायेंगे और न ही बुजुर्ग प्लेटफार्म के किसी किनारे की बेंचों पर शाम बिता पायेंगे।
       इसलिए हम तो यही कहेंगे भाई, कि रेल को रेल ही रहने दो, रेलवे स्टेशन को स्टेशन ही रहने दो, इन्हें हवाई जहाज और हवाई अड्डा न बनाओ...  

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