शनिवार, 18 अगस्त 2012

आप चूक गये जेनरल...



आज जबकि ऐसा महसूस हो रहा है कि कुछ शक्तिशाली लोग बहुत ही खरतनाक चालें चलते हुए देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल रहे हैं... इसे आर्थिक दिवालियेपन की ओर ले जा रहे हैं... इसके सारे संसाधनों को चूसकर निचोड़ डालना चाह रहे हैं... और जब चूसने लायक कुछ न बचे तो यहाँ से भागने की फूलप्रूफ योजना भी बना रहे हैं...
तब मुझे एक ही बात याद आती है... मैंने ‘फेसबुक’ तथा ‘जनोक्ति’ पर इसका जिक्र किया भी था...
मैंने लिखा था कि 31 मई 2012 के दिन जेनरल वी.के. सिंह को थल सेनाध्यक्ष का पद छोड़ने से इन्कार कर देना चाहिए... क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने ईशारों-ईशारों में कह दिया है कि- भ्रष्टाचार के रावण के खात्मे के लिए सीता का लक्ष्मण रेखा लाँघना जरुरी है...
(यह और बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रति मेरे मन में सिर्फ ‘शिष्टाचार वाला सम्मान’ है, ‘हार्दिक श्रद्धा’ नहीं है; मगर फिर भी, उसकी इस टिप्पणी को मैं एक महत्वपूर्ण ईशारा मानता हूँ और जैसा कि आप जानते हैं- मैं इस वक्त देश में परिवर्तन लाने के लिए लीक से हटकर रास्ता अपनाये जाने का कट्टर समर्थक हूँ- घिसी-पिटी लकीरों पर चलकर, यानि अनशन-सत्याग्रह करके, या नाग के स्थान पर साँप को मौका देकर, या नयी पार्टी बनाकर चुनाव लड़के, हम कोई परिवर्तन नहीं ला सकते देश में!)
खैर, आज पूर्व जेनरल संविधान के नीति-निदेश तत्वों की याद दिला रहे हैं और अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के भ्रष्टाचार-कालाधन विरोधी मुहिम को समर्थन दे रहे हैं... मगर इनसे क्या होगा? जब आप दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना के जेनरल थे, तब आपको देश को बचाने के लिए लक्ष्मण रेखा लाँघने तथा लीक से हटकर कदम उठाने के बारे में फैसला लेना चाहिए था! अगर आपने 31 मई को अवकाश ग्रहण करने से इन्कार कर दिया होता, तो धीरे-धीरे देश की 70 से 80 प्रतिशत जनता आपके समर्थन में उठ खड़ी होती (कुछ चवन्नी दाढ़ी वाले बुद्धीजीवियों, भ्रष्टों-बेईमानों, राजनीतिज्ञों तथा इन सबके नाते-रिश्तेदारों को छोड़कर) और यकीन कीजिये, तब देश को गृहयुद्ध की आग में झोंकने तथा इसे आर्थिक दीवालियेपन की ओर धकेलने से पहले ये गद्दार एक हजार बार सोचते- एक हजार बार! आज ये निडर हो गये हैं....
अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ती, तो आप एक आदेश देते- लुटियन बँगलों को खाली करवाया जाय... और फिर अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव को परामर्शदाता बनाते हुए विभिन्न विषयों के जानकारों की एक कार्यकारी परिषद  बनाकर सत्ता उसे सौंप देते... निर्देश स्पष्ट होता- संविधान के नीति-निदेश तत्वों की भावनाओं के अनुसार शासन किया जाय... खास लोगों की बजाय आम लोगों की भावनाओं के अनुसार नीतियाँ बनायी जाय...
मगर आपने ऐसा कुछ नहीं किया... मैंने व्यक्तिगत रुप से भी आप तक सन्देश पहुँचाने की कोशिश की थी... पहली बार सन्देश रक्षा मंत्रालय पहुँच गया शायद... दूसरी बार अप्रत्यक्ष रुप से आपतक सन्देश पहुँचाया था... आपको मिला भी था... मगर शायद आपने नजर अन्दाज कर दिया...
न इस देश की जनता कभी लामबन्द होगी और न ही लीक से हटकर चलना चाहेगी... एक सेना से ही उम्मीद थी, वह भी टूट गयी...
अब चलिये, या तो बैठ-बैठकर देश की बर्बादी का तमाशा देखते हैं... या फिर खुद बर्बादी का शिकार बनते हैं... 

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