हमारी
मीडिया मे भारतीय थलसेना के जवानों की जो “आदर्श” छवि प्रस्तुत की जाती है, वह तस्वीर का एक पहलू है- चाँद का उजला
पक्ष। हमें दीखता तो नहीं है, पर
हम जानते हैं कि चाँद का एक काला पक्ष भी है। तो भारतीय थलसेना के उसी काले पक्ष
को सबको सामने लाने के लिए थलसेना का एक जवान साहस दिखाते हुए 80 फीट ऊँचे मोबाइल टावर
पर चढ़कर बैठ गया है। एक समाचार
चैनल ने भी उस जवान की बातों को बिना काट-छाँट किये दिखाने का साहस किया। (टावर पर
जाकर जवान का साक्षात्कार लेने वाले संवाददाता तथा कैमरामैन वाकई बधाई के पात्र
हैं!) वर्ना सेना के काले पक्ष से जुड़ी बातों को आमतौर पर मीडिया नजरअन्दाज कर
देती है और जवानों की घुटन अन्धेरे में ही रह जाती है।
एक बहुत-बहुत गन्दी प्रथा हमारी थलसेना में अँग्रेजों
के जमाने से कायम है और वह है- “बटमैन” की प्रथा। टावर पर चढ़ा जवान बोल रहा था- “अफसरों को
सेवादार रखने के लिए पैसे मिलते हैं, सेवादार वे रखते भी हैं; फिर भी, हम जवानों
को उनके घर पर नौकरों का काम करना पड़ता है। क्या उनका और और उनकी बीवी के जूते
पालिश करने के लिए हम फौज में भर्ती हुए हैं?” चौंकिये मत, यह
सच्चाई है- जवानों की पूरी एक टीम अफसरों के घर पर नौकरों के तरह रहती है। नौकरों
वाले सारे काम ये जवान करते हैं। इन्हें “बटमैन” कहा जाता है और अफसरों की “धाक” का पता बटमैनों
की संख्या से ही चलता है। मैंने खुद यह सब देखा तो नहीं है, पर वायुसेना में रहते
हुए जब कभी जवानों से मिलना-जुलना हुआ, यह जानकारी मुझे मिली थी। मैं आश्चर्य चकित
हूँ कि जेनरल वी.के. सिंह-जैसे महान सेनापति के समय में भी अँग्रेजों के जमाने से
चली आ रही इस घृणित प्रथा पर रोक कैसे नहीं लगी!
उस जवान ने एक और बात कही, “पिता के मृत्यु
हुई- मैंने तीन दिनों की छुट्टी माँगी, मगर एक दिन की छुट्टी मिली- क्या करता? घर
जाकर छुट्टी बढ़वानी पड़ी।” वायु सेना में वायुसैनिकों के लिए 60 दिनों की वार्षिक तथा
30 दिनों की आकस्मिक छुट्टी का प्रावधान है- थलसेना में भी इतनी ही होगी। अँग्रेज
जानते थे कि जवानों के लिए छुट्टी का क्या महत्व है, इसलिए वे इतनी छुट्टी की
व्यवस्था कर के गये हैं, मगर भारतीय अफसर जवानों के लिए छुट्टी का महत्व नहीं
समझते। उनका बस चले, तो वे इन्हें घटाकर 30 और 15 दिन कर दें! (अनधिकृत रुप से ऐसा
किया भी जा चुका है शायद।)
आप सोचते होंगे, रविवार को जवान भी छुट्टी
मनाते होंगे- हमारी-आपकी तरह। जी नहीं, उस दिन सबको दलों में बाँट कर अफसरों के
क्वार्टर पर खासतौर पर काम करने के लिए भेजा जाता है। हाँ, दल बनाते समय तकिया
कलाम की तरह यह बार-बार दुहराया जरुर जाता है कि- “आज छुट्टी का दिन
है, खुशी का दिन है”।
एक बात और सामने आयी- यह बात तो खैर, सेना
के अलावे भी सारे सरकारी तंत्र पर लागू होती है- टावर पर चढ़े जवान ने चार महीने
पहले राष्ट्रपति, रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष को रजिस्टर्ड डाक से चिट्ठी भेजी रखी है
(रसीद उसके जेब में थी- उसने बताया), मगर किसी का जवाब उसे नहीं मिला है। कम-से-कम
रक्षा मंत्रालय का जवाब मिलना चाहिए था- यह एक “नागरिक” संस्था है!
मैं नहीं जानता अब उस जवान का क्या होगा।
मगर मेरा अनुमान है कि उसे मानसिक रुप से विक्षिप्त घोषित किया जायेगा, सेना के
अस्पताल में इलाज के नाम पर बिजली के शॉक दे-देकर उसे वास्तव में विक्षिप्त बनाया
जायेगा और शायद बिना पेन्शन, बिना कोई लाभ दिये उसे सेना से निकाल दिया जायेगा...
इसके बाद वह एक पागल की मौत मरेगा या अदालतों की दहलीज पर तलवे घिसते हुए बुढ़ा
होकर मरेगा... सेना का यह अन्धेरा पक्ष अन्धेरे में ही रह जायेगा... कोई और कभी
नहीं जान पायेगा!
मैं कोई ऐसे ही नेताजी सुभाष का भक्त नहीं
बना हूँ- वे आजाद हिन्द फौज में सभी प्रान्तों, सभी धर्मों, सभी जातियों के जवानों
को एक साथ रखते थे और खुद वही भोजन ग्रहण करते थे, जो एक जवान को मिलता था। आपको
अगर मैं सेना में एक जवान तथा एक अफसर के भोजन के मीनू तथा इसकी व्यवस्था की बात
बताना शुरु करूँ, तो आपकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जायेंगी। जाहिर है, “गोरे” अफसरों तथा “काले” जवानों वाली
बहुत-सी बातें आज भी भारतीय सेनाओं में बनी हुई हैं... जबकि आजादी के बाद यह सब
खत्म होना था!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें