गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

111. अपना संसद भवन: कभी बनेगा भी?


दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्ष जब आधिकारिक वक्तव्य देते हैं और उनके वक्तव्य के सीधे प्रसारण की व्यवस्था रहती है, तब पटभूमि (बैकग्राउण्ड) का खासा ध्यान रखा जाता है, ताकि टीवी पर देखने वालों को एक भव्यता, एक शान का अनुभव हो... । भव्यता या शानो-शौकत न भी झलके, तो एक प्रकार की "शालीनता" का ध्यान जरूर रखा जाता है पटभूमि पर।  
इनके मुकाबले आज टीवी पर जब अपने प्रथम नागरिक को बजट सत्र का उद्घाटन भाषण देते हुए देखा, तो यकीन कीजिये, मैंने खुद को शर्मिन्दा महसूस किया। कहना नहीं चाहिए, मगर कहने को मजबूर हूँ कि ऐसा लग रहा था- जैसे, अपने घर के बाथरूम के दरवाजे के बाहर खड़े होकर राष्ट्रपति महोदय अपना वक्तव्य पढ़ रहे हैं!
इतनी बेतरतीब पुताई बाथरूम के दरवाजे पर ही हो सकती है!
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मेरे हिसाब से तो अँग्रेजों के जाने के बाद भारतीय नेताओं को पार्लियामेण्ट हाउस, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, वायसराय हाउस के तरफ झाँकना भी नहीं चाहिए था- इनमें स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी खोल देना चाहिए था। अपना अलग संसद भवन बनाना चहिए था और जबतक अपना नया भवन बनता, तबतक तम्बूओं से ही राजकाज चलाना चाहिए था!
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मैं यह भी बता दूँ कि हमारे संसद भवन के अन्दर की जो बनावट, सजावट, रंग-संयोजन इत्यादि हैं, वे मन में नैराश्य और उदासी का भाव संचार करने वाले हैं। इसके अलावे, जो बाहरी बनावट है, वह "शून्याकार" है, जहाँ बैठने वाले लोग गोल-गोल घूमने वाली नीतियाँ बनाते रह जायेंगे, मगर देश कभी आगे नहीं बढ़ेगा... जो समस्यायें 1947 में थीं, उन समस्याओं से हम आज भी जूझ रहे हैं!
जो भी तरक्की हुई है देश में, वे सब "समय के साथ अपने-आप होने वाली" तरक्की है... देश चलाने वालों की नीतियों की वजह से इस देश में कोई खास तरक्की नहीं है... यकीन न हो, तो ठण्डे दिमाग से विचार करके देख लीजिये... 

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