बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

101. उम्मीद...?!



       मैं नहीं जानता 'समाजवादी जनपरिषद' क्या है और यह क्या काम करती है, मगर इसके उपाध्यक्ष सुनील साहब का एक जबर्दस्त लेख "विदेशी पूँजी का 'महाभूत'" आज अखबार में पढ़ने को मिला। लेख क्या है, चाबुक है! मगर अफसोस कि सरकार में बैठे लोगों की चमड़ी इतनी मोटी हो गयी है कि ऐसी चबुकों का कोई असर उनपर नहीं पड़ता।
       यहाँ मैं लेख के सिर्फ पहले व आखिरी पारा को उद्धृत कर रहा हूँ:
       "वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने 22 जनवरी 2013 को हांगकांग में कहा, "हमने 'गार' के भूत को अब दफना दिया है। पूँजी-निवेशकों को अब डरने की जरुरत नहीं है। हमने खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी को इजाजत देने और ईंधन कीमतों में बढ़ोतरी के फैसले लिये हैं, जिनसे हमारी रेटिंग घटने का खतरा नहीं रहा। इन कदमों से अब निवेशक भारत में फिर से दिलचस्पी ले रहे हैं।"
       "दरअसल भूत 'गार' का नहीं है, विदेशी पूँजी का 'महाभूत' है, जो भारत सरकार पर पूरी तरह सवार हो गया है। सरकार होश खो बैठी है और यह भूत उसको चाहे जैसे नचा रहा है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। इस भूत को उतारने के लिए एक बड़ा जन-विद्रोह करने का वक्त आ गया है।"
       ('गार'- जनरल एण्टी अवॉयडेन्स रूल्स- करचोरी करने वाले विदेशी निवेशकों पर शिकंजा कसने के लिए बना प्रावधान, जिसे अगले तीन वर्षों के लिए टाल दिया गया है।)
        ***
       मैं सोचने लगा- एक बुद्धिजीवि 'गार' को दफनाये जाने के एवज में जन-विद्रोह की बात कर रहा है, मगर हमारा मुख्य विपक्षी दल इसपर चुप क्यों है? यानि मेरा जो एक अनुमान था कि आर्थिक नीतियों के मामले में भाजपा और काँग्रेस एक समान है, बल्कि सत्ता पाने के बाद भाजपा 'उदारीकरण' को और भी आक्रामक तरीके से लागू करेगी- वह सही साबित होने जा रहा है।
       मैंने यह भी अनुमान लगाया था कि उदारीकरण को जोर-शोर से लागू करते समय भाजपा आम जनता को एक खास किस्म की सुखानुभूति की दशा में रखने की कोशिश करेगी। ...और लगता है, यह अनुमान भी सही साबित होने जा रहा है। क्योंकि भ्रष्टाचार, महँगाई, एफडीआई-जैसे दर्जनों मुद्दों को छोड़कर भाजपा अगला आम चुनाव राम मन्दिर के मुद्दे पर लड़ने की सोच रही है।
       मजे की बात यह है कि सुनील साहब के उपर्युक्त लेख के नीचे ही वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह का जो लेख छपा है, वह इसी मुद्दे पर है- "भाजपा का हिन्दुत्व मोह"। इस लेख का अन्तिम पारा इस प्रकार है-
       "यह बात अभी भविष्य के गर्भ में है कि भाजपा हिन्दुत्व के बुझे, चुके और हारे हुए महारथियों के भरोसे मोदी को प्रधानमंत्री बना पायेगी या पहले ही भरपूर निचोड़ी जा चुकी हिन्दुत्व की नारंगी को व्यर्थ ही चूसती हुई युयुत्सावाद के प्रवर्तक कवि शलभ श्रीराम सिंह की उस कविता पंक्ति को सही साबित करेगी, जिसमें वे कहते हैं कि युद्ध कभी कमजोर घोड़ों पर सवार होकर या पुराने जंग लगे हथियारों से लड़कर नहीं जीते जाते।"
       ***
       टिप्पणी:
       मैं स्पष्ट कर दूँ कि अगर मुझे काँग्रेस और भाजपा से कोई उम्मीद नहीं है, तो मैं साम्यवादी-समाजवादी-माओवादी दलों से और 'आप' से भी कोई उम्मीद नहीं रखता। अन्य दलों को मैं विदूषक मानता हूँ। इस देश की आम जनता या जागरुक नागरिकों से भी मुझे कोई खास उम्मीद नहीं है- ये या तो हवा के रुख के साथ चलेंगे, या फिर किसी दल, नेता या नीति के अन्धभक्त बन चुके हैं। हाँ, युवाओं ने ऐसी झलक दिखायी है कि उनसे थोड़ी उम्मीद रखी जा सके।
       मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि देश को नये खून, नये विचार, नयी व्यवस्था की जरुरत है, जिसे वर्तमान चुनाव प्रणाली से स्थापित नहीं किया जा सकता। इससे आगे कुछ कहना फिलहाल मैं उचित नहीं समझता- अभी समय नहीं आया है... 
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उपर्युक्त लेखों को पढ़ने के लिए-
 http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=8&queryed=9&eddate=2/6/2013%2012:00:00%20AM

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