गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

113. दो पड़ोसी नगरों के बीच "फ्लाइ-ओवर" "शटल" ट्रेन सेवा- बिना बिजली, बिना डीजल के!



       मान लीजिये, कि 'क' और 'ख' दो पड़ोसी नगर हैं, जिनके बीच की दूरी 250 किलोमीटर है। दोनों नगरों के बीच एक फ्लाइ-ओवर का निर्माण किया जाता है, जिसपर "सिर्फ" रेल की पटरियाँ बिछी हैं। किनारों पर इस फ्लाइ-ओवर की ऊँचाई 5 मीटर तथा बीच में 4 मीटर है।
       'क' नगर के स्टेशन पर एक ऐसी ट्रेन खड़ी है, जो अपेक्षाकृत हल्की है, जिसमें 'इंजन' के नाम पर एक मामूली केबिन है, जिसमें ट्रेन में "ब्रेक" लगाने की मेकेनिकल व्यवस्था है, और पूरे फ्लाइ-ओवर में ट्रेन को दाहिने-बायें से ऐसी सुरक्षा प्रदान की गयी है कि तेज आँधी में ट्रेन कहीं नीचे न गिर जाय!   
       स्टेशन पर खड़ी ट्रेन को हल्के से कुछ दूर तक आगे धकेलने के लिए एक "हाइड्रोलिक" व्यवस्था है, जो ट्रेन को धकेल कर आगे बढ़ा देती है। थोड़ा-सा ही आगे चलने पर ट्रेन ढलान पर आ जायेगी और फिर तेजी से मध्य विन्दु की ओर भागने लगेगी। मध्य विन्दु तक आते-आते ट्रेन का त्वरण इतना तेज हो जायेगा कि वह आगे चढ़ाव पर भी चढ़ जायेगी, भले उसकी गति कम होने लगे। इस प्रकार वह 'ख' स्टेशन तक पहुँच सकती है।
       'आपात्कालीन' व्यवस्था के रुप में स्टेशन के पास वाले कुछ खम्भों को "हाइड्रोलिक" बनाया जा सकता है, ताकि चढ़ाव पर ट्रेन अगर ज्यादा धीमी हो जाय, तो ड्राइवर एक संकेत भेजे और स्टेशन के नियंत्रण कक्ष से अन्तिम कुछ खम्भों की ऊँचाई कम कर दी जाय, जिससे कि ट्रेन बिना रुके स्टेशन तक आ सके!
       वैसे, ये 5 मीटर या 4 मीटर ऊँचाई की बात "सांकेतिक" है, जहाँ तक मैं समझता हूँ कुछ "ईंचों" की ऊँचाई-नीचाई ही ऐसी ट्रेनों को दौड़ा सकती है!
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       अपने देश में आम तौर पर दो नगरों के बीच की औसत दूरी 200 से 250 किलोमीटर ही है और किन्हीं दो नगरों के बीच यातायात भी बहुत होता है। सामान्य ट्रेनों में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है, नयी पटरियों या नये रेल पथों के लिए जमीन मिलना मुश्किल है; मिल भी गया, तो एक प्रकार से यह जमीन की बर्बादी ही है; दूसरे, इससे रेलपथ के इसपार से उसपार की सड़क-यातायात बाधित होती है।
सो, बेहतर है कि अब "फ्लाइ-ओवर" ट्रेन की बात सोची जाय; फ्लाइ-ओवर पर रेल पटरी "दोहरी" बिछायी जाय और इनपर "शटल" किस्म की ट्रेन चलायी जाय, जो हर नगर को आस-पास के 4 या 5 पड़ोसी नगरों से जोड़ने का काम करे। चूँकि सामान्य ट्रेनों को चलाने के लिए बिजली या डीजल के रुप में "ऊर्जा" की व्यवस्था करना एक खर्चीला सौदा है, इसलिए इस रेलपथ पर सामान्य मेकेनिकल तकनीक वाली बिना बिजली, बिना डीजल से चलने वाली ट्रेन चलाई जाय, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है। (इस मामले में "रोलर कोस्टर" को याद कर सकते हैं।)  
एक और बात- फ्लाइ-ओवर "सड़क" बनाने में भले ज्यादा खर्च आता हो, मगर फ्लाइ-ओवर "रेलपथ" बनाने में ज्यादा खर्च नहीं आना चाहिए। और फिर, फ्लाइ-ओवर पर "ब्रॉड गेज" पटरी बिछाना कौन-सा जरुरी है? इसपर तो "मीटर गेज" पटरियाँ भी बिछायी जा सकती हैं! (बेशक, ट्रेन भी "मीटर गेज" ही होंगी- हालाँकि वे "आधुनिक" होंगी!)
इस फ्लाइ-ओवर के लिए अलग से जमीन अधिग्रहण की समस्या भी नहीं रहनी चाहिए- दो नगरों को जोड़ने वाला जो "राजपथ" होता है, उसके ठीक बीचों-बीच- जहाँ हरियाली की व्यवस्था होती है- खम्भे गाड़ते हुए इस फ्लाइ-ओवर को बनाया जा सकता है। चूँकि राजपथ "सर्पिल" होते हैं और इस फ्लाइ-ओवर रेलपथ के लिए "एरियल डिस्टेन्स" पर चलना ज्यादा मुफीद होगा, इसलिए अलग से भी इसका रूट निर्धारित किया जा सकता है- फिर भी, 30-40 मीटर की दूरियों पर एक या दो खम्भों के लिए शायद ही भूमि-अधिग्रहण का झमेला पेश आये!
ठीक है कि इस रेल में बीच के स्टेशनों पर नहीं उतरा जा सकता, मगर इससे "सामान्य" ट्रेनों में भीड़-भाड़ कम हो जायेगी- क्या इससे इन्कार किया जा सकता है?
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अब सबसे महत्वपूर्ण बात। आज जबकि "बुलेट" ट्रेनों के सपने देखे जा रहे हैं, वैसे में, मैं भला इस तरह की "दकियानूसी" ट्रेनों की परिकल्पना क्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ?
उत्तर यह है कि "जटिल" तकनीक पर "तेजी" से "भागती" आज की जो जीवन-शैली है, इसकी उम्र 100 साल से ज्यादा मुझे नजर नहीं आती। यह हमें बहुत नुकसान पहुँचा रही है। अगले सौ वर्षों के अन्दर लोग इसे समझ लेंगे और फिर "सामान्य" तकनीक पर "फुर्सत" के साथ "सहज" जीवन-शैली अपनाने की प्रवृत्ति लोग अपनाने लगेंगे- ऐसा मेरा विश्वास है। जो देश या समाज इसे समझकर अभी से इसे अपनाना शुरु कर देगा, वह आनेवाले समय में नये युग का नायक होगा!
मैं चूँकि समय से पहले इसकी घोषणा कर रहा हूँ, इसलिए यह अटपटा लग रहा है।
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टिप्पणी:  
इस तरह के मेरे दो अन्य आलेखों पर भी नजर डाली जा सकती है-

     1. बड़े/परमाणु विद्युत संयंत्र बनाम छोटे-छोटे विद्युत संयंत्र


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