रविवार, 26 मई 2013

143. दो सवाल: हो सके, तो जवाब जरूर दें



      छत्तीसगढ़ में घटी ताजा नक्सली हमले की प्रतिक्रिया में व्यक्त किये जा रहे जा रहे विचारों को मैंने सरसरी निगाह से देखा
       मैं अपनी प्रतिक्रिया के रुप में एक सवाल सामने रखना चाहता हूँ।
सभी जानते हैं कि जाते-जाते अँग्रेज अपने चमचों, अपने नौकरों, अपनी दाईयों वगैरह को 100-50 बीघा खेती योग्य जमीन देकर गये थे। इसके अलावे, लगान वसूली के लिए जो एक औपनिवेशिक "जमीन्दारी" व्यवस्था उनके राज में कायम की गयी थी, उसके तहत एक-एक जमीन्दार ने अपने रैयतों से लूटकर सैकड़ों एकड़ जमीन अपने नाम कर ली थी। जब अँग्रेज चले गये, तो क्या खेती योग्य सारी जमीन का पुनर्वितरण नहीं होना चाहिए था?
       हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत एक कृषिप्रधान देश है, यहाँ गरीबी का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में पाया जाता है, और इस ग्रामीण गरीबी का मुख्य कारण है- लोगों के पास खेती योग्य जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा न होना। ऐसे में, क्या भारतीयों की अपनी सरकार की यह पहली प्राथमिकता नहीं थी कि खेती योग्य जमीन को पहले अपने कब्जे में लेकर फिर उसका पुनर्वितरण किया जाय? काम कष्टसाध्य जरूर होता, मगर इसे किया जा सकता था। क्यों नहीं किया गया?
...क्योंकि जमीन्दार, सामन्त और अँग्रेजों के चमचे ही बाद में संसद में पहुँच गये।
ऐसा भी नहीं है कि कुछ राज्य सरकारों ने अपनी तरफ से कोशिश नहीं की। कुछ ने थोड़ी-बहुत कोशिश की, मगर- जहाँ तक मेरी जानकारी है- हर मामला कोर्ट में गया और हर मामले में कोर्ट ने जमीन्दारों का पक्ष लिया! जबकि यह देश के 'पुनर्निर्माण' का दौर था- कुछ फैसले 'औपनिवेशिक' कानूनों तथा बनी-बनायी लीक से हटकर लिये जाने की जरुरत थी। कुल-मिलाकर, कोर्ट की "मानसिकता" को भी "सामन्तवादी" ही कहा जा सकता है।
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प्रसंगवश, एक और सवाल मुझे मथता है।
क्यों ऐसा हुआ कि अँग्रेजों के जाने के बाद जिस ब्रिटिश भारतीय सेना ने महान ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए युद्ध किया, उसे स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय सेना मान लिया गया, और जिसने देश को आजाद कराने के लिए युद्ध किया, उस आजाद हिन्द फौज को बागी मान लिया गया? क्या कायदे से ब्रिटिश भारतीय सेना को भंग करते हुए आजाद हिन्द फौज को भारत की राष्ट्रीय सेना नहीं बनाया जाना चाहिए था? यहाँ तो आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में प्रवेश तक नहीं दिया गया। ऐसा क्यों?
मैं सोचने पर मजबूर हूँ- 15 अगस्त 1947 के बाद भी एक-एक व्यक्ति के पास सैकड़ों एकड़ जमीन... मुट्ठीभर लोगों के पास देश की 70 फीसदी सम्पत्ति... इन्हीं का साथ देने वाले राजनेता...  इन्हीं का पक्ष लेने वाली न्यायपालिका... इन सबकी अंगरक्षा करने वाली पुलिस ...आजादी के लिए लड़ने वाले "बागी" और अँग्रेजों के तलवे चाटने वाले "राष्ट्रीय"...
...क्या हम वाकई 15 अगस्त 1947 को आजाद हुए थे?
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पुनश्च:
हालिया नक्सली हमले की निन्दा करने या मृतक राजनेताओं के प्रति श्रद्धाँजली व्यक्त करने के लिए मेरी अन्तरात्मा ने अभी तक मुझे आवाज नहीं दी है, इसलिए मैं ऐसा कर पाने में असमर्थ हूँ।
हाँ, जो वर्दीधारी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए हताहत हुए हैं, उनके परिजनों एवं उनके लिए मैं अपनी हार्दिक सम्वेदना प्रकट करता हूँ।

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