शनिवार, 11 मई 2013

136. "जन-गण-मन" को "राष्ट्रधुन" होना चाहिए, न कि "राष्ट्रगान"



प्रश्न उठता है कि हमारा राष्ट्रगान "जन-गण-मन" क्या वाकई जॉर्ज पंचम का "प्रशस्ती गीत" है? अगर हाँ, तो इसके प्रति या इसके रचयिता रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति हमारे मन में श्रद्धा क्योंकर उत्पन्न हो? इन प्रश्नों के उत्तर में जो मेरे मन में आया, वह इस प्रकार है-
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ब्रिटिश साम्राज्य के सम्राट जॉर्ज पंचम तथा साम्राज्ञी मेरी के सम्मान में 12 दिसम्बर 1911 को "दिल्ली दरबार" सजा था। यह एक राज्याभिषेक समारोह था, इसमें भारतीय उपनिवेश की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली स्थानान्तरित करने की घोषणा हुई थी और अँग्रेजों ने भव्य वायसराय हाऊस, नॉर्थ व साउथ ब्लॉक वगैरह का निर्माण करके दुनिया को ब्रिटिश साम्राज्य की भव्यता की झलक दिखलायी थी।
       भारत की ब्रिटिश सरकार ने सम्राट के लिए "प्रशस्ती गीत" लिखने के रवीन्द्रनाथ ठाकुर के परिजनों के माध्यम से कविगुरु के पास अनुरोध भेजा था। कवि के परिजन ब्रिटिश सरकार में (कोलकाता में) ऊँचे पदों पर थे। कवि ने लम्बा प्रशस्ती गीत लिखा, जिसे "दिल्ली दरबार" में किंग जॉर्ज पंचम के सम्मान में पढ़ा गया। बाद में इसका अँगेजी अनुवाद देखकर जॉर्ज चकित रह गये- ऐसी प्रशंसा! 
       नतीजा- कवि को एक श्रेष्ठ रचना के साथ इंग्लैण्ड बुलाया गया। उन दिनों अफ्रिका का चक्कर लगाकर जलजहाज ब्रिटेन जाते थे- छह महीनों का सफर था। सफर में ही कवि ने "गीताँजली" के अँग्रेजी अनुवाद को अन्तिम रुप दिया। स्वीडेन के राजघराने के साथ ब्रिटिश राजघराने का सम्बन्ध "मधुर" था। अतः एक ही सिफारिश पर "गीताँजली" को "नोबल" मिल गया। हालाँकि इससे "गीताँजली" की उत्कृष्टता पर आँच नहीं आती। नोबल लेने कवि स्टॉकहोम नहीं गये थे। राजदूत ने पुरस्कार ग्रहण किया था- उनकी तरफ से।
       (प्रसंगवश, ब्रिटिश-स्वीडिश राजघरानों के इस "मधुर सम्बन्ध" के कारण ही गाँधीजी को "शान्ति" का "नोबल" नहीं मिला था। भारत से अँग्रेजों के जाने के बाद उन्हें नोबल मिल जाता, मगर उनकी हत्या हो गयी और नोबल मरणोपरान्त नहीं दिया जाता। यह और बात है कि गाँधीजी को नोबल मिलने से गाँधीजी का नहीं, बल्कि नोबल पुरस्कार का सम्मान बढ़ता!)    
ध्यान रहे- "दिल्ली दरबार" के दिनों में गाँधीजी का उदय भारतीय राजनीति में नहीं हुआ था- और काँग्रेस अँग्रेजों की चाटुकर संस्था हुआ करती थी।
1919 में "जलियाँवाला बाग" नरसंहार के बाद गाँधीजी ने पत्र के माध्यम से कवि को चाबुक मारा- तब कवि ने "सर" की उपाधि लौटा दी। "नोबल पुरस्कार" नहीं लौटाया गया था- इसे लौटाने का तुक भी नहीं बनता।
खैर, तो बद के दिनों में उस "प्रशस्ती गीत" की शुरुआती पंक्तियों को भारत का "राष्ट्रगान" माना जाने लगा- क्यों, यह मुझे एक रहस्य लगता है और इस पर गहन शोध की जरुरत है। सम्भवतः इसकी "गेयता" और ("वन्दे मातरम्" के मुकाबले) इसकी सहजता कारण रहे हों। यह भी एक तथ्य है कि भारतीय मुसलमान "वन्दे मातरम्" से परहेज करते थे।
ताज्जुब तो मुझे यह जानकर होता है जर्मनी में जब नेताजी सुभाष ने "फ्री इण्डिया सेण्टर" की स्थापना की, तो अभिवादन के लिए "जय हिन्द", खुद के सम्बोधन के लिए "नेताजी" शब्दों का चयन किया और राष्ट्रगीत के लिए इस "जन-गण-मन" को ही चुना। ध्यान रहे, उन्होंने वहाँ "इण्डियन लीजन" नामक जो सैन्य टुकड़ी बनायी थी, उसमें दो-तिहाई मुसलमान ही थे। हो सकता है, उस वक्त कोई ऐसा उनकी नजर में नहीं था, जो ऐसा "नया" राष्ट्रगीत लिख सके, जिसे हिन्दू-मुसलमान दोनों पसन्द करें।
सिंगापुर में "आजाद हिन्द (की अन्तरिम) सरकार" के गठन के बाद उन्होंने हुसैन साहब से एक नया राष्ट्रगीत लिखवाया- "सुख-चैन की बरखा बरसे... ।" हुसैन साहब को इस गीत के बदले नेताजी ने दस हजार डॉलर दिये थे!
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ये तो रहे तथ्य- मेरी जानकारी के अनुसार
अब मेरी अपनी बात।
मैं कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक महान चित्रकार और कवि मानता हूँ।
जॉर्ज पंचम के लिए प्रशस्ती गीत लिखने के लिए वे राजी हुए, तो इसके पीछे उस समय की परिस्थितियाँ कारण रही होंगी। उन दिनों बमुश्किल दो-एक प्रतिशत भारतीय ही यह सोचते होंगे कि इस महान ब्रिटिश साम्राज्य का एक दिन पतन होगा... और भारत आजाद होगा! 98-99 प्रतिशत भारतीय यही मानकर चल रहे होंगे कि यह साम्राज्य हमेशा- कम-से-कम अभी कई सदियों तक- कायम रहेगा!
इतिहास को छोड़िये, आज ही देख लीजिये न- बमुश्किल दो-एक प्रतिशत लोग ही यह विश्वास रखते हैं कि इस देश में आज अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार का जो साम्राज्य कायम है, उसका एक दिन पतन होगा और इस देश में आदर्श व्यवस्था कायम होगी। 98-99 प्रतिशत भारतीयों का विचार है- और बेशक, आप और हम भी इनमें शामिल हैं- कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला है.. जैसा चल रहा है, वैसा ही सबकुछ चलते रहेगा!
दूसरी बात- जिनके हाथों में सत्ता होती है, चाहे वे कितने भी अनैतिक एवं भ्रष्ट क्यों न हो, उनके आदेश, निर्देश या अनुरोध की अवहेलना "बगावत" समझी जायेगी- वह भी "वैधानिक" रुप से! रवीन्द्रनाथ ठाकुर "बागी" स्वभाव के नहीं थे।
बागी स्वभाव के तो थे- कवि नजरुल इस्लाम-
"कारार एइ लौह कपाट
            भेंगे फेल, कर रे लोपाट
जत सब बन्दी शालाय
            आगुन ज्वाला, आगुन ज्वाला!"
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जॉर्ज पंचम के "प्रशस्ती गीत" की पंक्तियों को राष्ट्रगान क्यों बनाया गया- मैंने कहा, इसपर शोध की जरुरत है।
हाँ, तब है कि राम सिंह साहब (जो आजाद हिन्द फौज में थे और जिन्होंने "सुख-चैन की बरखा-" की धुन बनायी थी) ने "जन-गण-मन" के लिए जो धुन बनायी, वह जबर्दस्त है! आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश की "राष्ट्रधुन" में ऐसी बात नहीं है, जो "जन-गण-मन" की "धुन" में है!
अतः, मैं व्यक्तिगत रुप से "जन-गण-मन" को "राष्ट्रधुन", "वन्दे मातरम्" को "राष्ट्रगीत तथा "सारे जहाँ से अच्छा" को "विद्यालय गीत" बनाये जाने का पक्षधर हूँ- मेरे "घोषणापत्र" में ऐसा जिक्र पहले से ही है।
जिसे भी "वन्दे मातरम्" "गाने" पर आपत्ति है, वह इसे गाये जाने के दौरान अपना मुँह तो बन्द रख सकता है, पर इस दौरान उसे उठकर जाना नहीं चाहिए- यह भी मेरा विचार है- हाल में संसद में घटी एक घटना के सन्दर्भ में यह कह रहा हूँ। 
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पुनश्च 
श्री राजनारायण वर्मा जी ने इस विषय पर अपने एक (पहले से लिखे) लेख की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है, जिसे मैं साभार उद्धृत करता हूँ:

( १४ अप्रैल , २०११ को ब्लॉग पर पोस्ट )

विश्‍वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 151 वां जन्मदिन मनाया जा रहा है . बहुमुखी प्रतिभा के धनी उन महान विभूति को शत -शत प्रणाम .जैसा कि हर महान विभूति के साथ होता है कि उनके साथ उनके जीवनकाल मे ही अथवा मरणोपरांत विवाद /लांछन जुड़ जाते हैं ( जो बहुधा झूठे / भ्रमवश / ईर्ष्यावश ) होते हैं तो गुरुदेव कैसे अपवाद होते . उनके साथ भी एक विवाद जुड़ ही गया जो जिसके बारे मे इतना दुष्‍प्रचार किया गया कि आज तक बहुत से लोग उस अफवाह को ही सत्य समझते हैं - वह है राष्‍ट्रगान "जन -गण -मन ..." के बारे मे फैला भ्रम कि यह उन्होने जॉर्ज पंचम के स्वागत / स्तुति मे लिखा था .
1911 के कोलकाता ( तब कलकत्ता ) के कांग्रेस अधिवेशन के लिये उन्होने "जन -गण -मन ..." गीत लिखा .यही गीत कालांतर मे हमारा राष्‍ट्रगान बना . विडम्बना देखिए कि उन्ही दिनों लोग यह कहने लगे थे कि यह गीत उन्होने वर्ष 1911 मे जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनकी स्तुति मे लिखा था ,केवल यही नही , उन्होने यह गीत उनके समक्ष गाया भी था .गुरुदेव भी इससे व्यथित थे , उन्होने भ्रम निवारण के उपक्रम मे श्री पुलिनविहारी सेन ( सुविख्यात रवीन्द्र साहित्य विशेषज्ञ ) को 10.11.1937 को एक पत्र लिखा , जिसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं.
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प्रियवर ,
तुमने पूछा है कि 'जन गण मन ' गीत मैने किसी खास मौके के लिए लिखा है या नही. मै समझ पा रहा हूं कि इस गीत को लेकर देश मे किसी-किसी हलके मे जो अफवाह फैली हुई है, उसी प्रसंग मे यह सवाल तुम्हारे मन मे पैदा हुआ है. ................ तुम्हारी चिट्ठी का जवाब दे रहा हूं, कलह बढ़ाने के लिए नहीं, इस गीत के सम्बन्ध मे तुम्हारे कौतूहल को दूर करने के लिए.
एक दिन मेरे परलोकगत मित्र हेमचन्द्र मल्लिक विपिन पाल महाशय को साथ लेकर एक अनुरोध करने मेरे यहां आए थे. उनका कहना यह था कि विशेष रूप से दुर्गादेवी के रूप के साथ भारतमाता के देवी रूप को मिलाकर वे लोग दुर्गा पूजा को नए ढंग से इस देश मे आयोजित करना चाहते हैं, उसकी उपयुक्त भक्ति और आराधना के लिए वे चाहते हैं कि मै गीत लिखूं . ........................ मैने लिखा था  "भुवनमोहिनी " , यह गीत पूजा-मंडप के योग्य नही था, यह बताने की जरूरत नही है. दूसरी ओर इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह गीत भारत की सार्वजनिक सभाओं मे भी गाने के लिए उपयुक्त नही है, क्योंकि यह कविता पूरी तरह हिंदू संस्कृति के आधार पर लिखी गई है. गैर हिंदू इसे ठीक से हृदयंगम नही कर सकेंगे.
मेरी किस्मत मे ऐसी घटना एक बार फिर घटी थी. उस साल भारत के सम्राट के आगमन का आयोजन चल रहा था. राज सरकार मे किसी बड़े पद पर कार्यरत मेरे किसी मित्र ने मुझसे सम्राट की जयकार के लिए एक गीत लिखने का विशेष अनुरोध किया था . यह सुनकर मुझे हैरानी हुई थी, उस हैरानी के साथ मन में क्रोध का संचार भी हुआ था . उसी की प्रबल प्रतिक्रियास्वरूप मैने 'जन गण मन अधिनायक' गीत मे उस भारत भाग्य विधाता का जयघोष किया था, जो उत्थान -पतन मे मित्र के रूप मे युगों से चले जा रहे यात्रियों के जो चिर सारथी हैं, जो जन गण के अंतर्यामी पथ परिचायक हैं, जो युग युगान्तर के मानव भाग्य रथ चालक हैं; मगर जो जॉर्ज पंचम या षष्‍ठ या कोई भी जॉर्ज किसी भी हैसियत से नही हो सकते. यह बात मेरे उन राजभक्त मित्र ने भी अनुभव की थी, क्योंकि उनकी भक्ति कितनी ही प्रबल क्यों रही हो, उनमे बुद्धि का अभाव नही था .आज मतभेदों की वजह से मेरे प्रति क्रोध की भावना का होना, दुश्‍चिंता की बात नही है, लेकिन बुद्धि का भ्रष्ट हो जाना एक बुरा लक्षण है . ...................
10.11.1937 शुभार्थी
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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साथियों, गुरूदेव ने अपने साहित्य से भारत का मान विश्‍व मे बढ़ाया है, उन्हे 'नोबेल पुरस्कार' दिया गया, उनका शांतिनिकेतन एक अनूठा संस्थान है. वहां के गुरुओं स्नातकों ने अखिल विश्‍व को साहित्य, संगीत कला से आलोकित किया है. संगीत की एक धारा ही 'रवीन्द्र संगीत' है . गुरुदेव की प्रतिष्‍ठा किसी विवाद से धूमिल नही हो सकती एवं ही किसी के स्पष्‍टीकरण की मोहताज है, कम से कम मुझ अकिंचन की तो कतई नही, फिर भी मै समझता हूं कि उनके जन्मदिवस पर यह उन महान विभूति को मेरी पुष्पांजलि होगी.
-राज नारायण
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अन्त में,
कविगुरु के उक्त पत्रांश से जो मैं समझ रहा हूँ, वह इस प्रकार है कि जॉर्ज पंचम के लिए प्रशस्ती गीत लिखने का अनुरोध सुनकर कविगुरु को बुरा लगा था, फिर भी, उन्होंने "जन-गण-मन" गीत लिखा. गीत लिखते वक्त उनके "मन में" भारत के जन गण मन का "अधिनायक" कोई जॉर्ज नहीं था, बल्कि कोई "अन्तर्यामी" शक्ति थी.
मगर जॉर्ज पंचम ने (स्वाभाविक रुप से) इस "अधिनायक" शब्द से यही अर्थ लगाया होगा कि यह उन्हें सम्बोधित है, उन्हीं का नाम लेकर- गीत में कहा जा रहा है कि- यहाँ की नदियाँ, यहाँ के पर्वत, यहाँ के प्रदेश जागते हैंउन्हीं से आशीष माँगते हैं और उन्हीं की जयगाथा गाते हैं!
...जबकि कवि की नजर में वह शक्ति थी- "उत्थान-पतन मे मित्र", "युगों से चले जा रहे यात्रियों के चिर सारथी"  "जन गण के अंतर्यामी पथ परिचायक" और "युग युगान्तर के मानव भाग्य रथ चालक".
कुल मिलाकर, मुझे भी यही कहना है कि महान लोगों के बारे में तो गलत धारणा नहीं ही रखनी चाहिए.
-जयदीप

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