शुक्रवार, 3 मई 2013

135. दो बातें: 'गम्भीर' साथियों से-


साथियों,
आज मैं दो बातें कहना चाहूँगा
पहली बात- "जनसत्ता" के सम्पादक प्रभाष जोशी जी के गुजर जाने के बाद से ही मैं एक "चाणक्य" सम्पादक की जिस खोज में था, वह पूरा हो गया है। राँची से प्रकाशित 'प्रभात खबर' के सम्पादक हरिवंश जी को मैंने अपना "चाणक्य" मान लिया है- वे मुझे जाने या न जाने, शिष्य माने या न माने, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। देखा जाय, तो प्रभाष जोशी साहब ही कौन-सा मुझे जानते थे! हो सकता है, जानते भी हों, क्योंकि मेरे पत्र अक्सर (ज्यादातर "चक्रवाक" के छद्म नाम से, मगर कभी-कभी मेरे अपने नाम से भी) जनसत्ता में छपते थे। दूसरी बात, मैं अपनी पत्नी अंशु से जनसत्ता के माध्यम से ही मिला था। खैर, प्रसंगवश यह भी बता दूँ कि मेरे विचारों को माँजने में वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र माथुर जी की रचनाओं (मैंने दो खण्डों में इनका संकलन पढ़ा) और हरिशंकर परसाई जी की व्यंग्य रचनाओं का भी बड़ा हाथ रहा है।
दूसरी बात- यूँ तो करीब साल भर से मैं हरिवंश जी के सम्पादकीय लेखों को पढ़ रहा हूँ और उनके बहुत-से लेखों को मैं इस देश के जागरुक नागरिकों के लिए पठनीय मानता हूँ, मगर मैं यहाँ उनके एक लम्बे लेख "घिर गया है देश!" का जिक्र करना चाहूँगा। यह लेख दो भागों में 28 और 29 अप्रैल को प्रकाशित हुआ था। मैंने अपने ब्लॉग "मेरी चयनिका" में भी इसे दो भागों में ही उद्धृत किया है- "घिर गया है देश!" और "घिर गया है देश! (भाग- 2)"। जब कभी आपके पास अतिरिक्त समय हो, आप इसपर नजर दौड़ा सकते हैं।
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अन्त में, मैं अपने दिल की बात कहूँ कि मैं अक्सर अपने देश की पढ़ी-लिखी, जागरुक पीढ़ी से निराश हो जाता हूँ। सेना से भी निराश हो जाता हूँ। डर लगता है कि ली क्वान की आशंका "भारत महानन बन सकनेवाला देश है" कहीं सच ही न साबित हो जाय...
.... फिर स्वामी विवेकानन्द जी के इस मंत्र से ताकत मिलती है- "कोई एक विचार लो और उसे अपनी जिन्दगी बना लो उसी के बारे में सोचो और सपने में भी वही देखो उस विचार को जीओ अपने शरीर के हर अंग को उस विचार से भर लो सफलता का रास्ता यही है जब तुम कोई काम कर रहे हो, तो फिर किसी और चीज के बारे में नहीं सोचो इसे पूजा की तरह करो इस दुनिया में आये हो तो अपनी छाप छोड़ जाओ ऐसा नहीं किया, तो फिर तुझमें और पेड़-पत्थरों में अन्तर क्या रहा? वे भी पैदा होते और नष्ट हो जाते हैं"

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