सोमवार, 27 मई 2013

144. हम "दिकूओं" ने हमेशा "होड़" का शोषण ही किया है!


(कल मैंने नक्सलवाद के पीछे के एक कारण- खेती योग्य जमीन के असमान बँटावारे का जिक्र किया था। आज दूसरा कारण- आदिवासियों का शोषण।)
उत्तरी सन्थाल-परगना के जो दो-चार जिले अभी तक "लाल" नहीं हुए हैं, उन्हीं में से एक "साहेबगंज" जिले का मैं निवासी हूँ। मेरे कस्बे का नाम बरहरवा है। "राजमहल की पहाड़ियों" की एक पंक्ति बरहरवा के पश्चिम से गुजरती है।
इलाके के जो "सन्थाल" हैं, वे इन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में रहते हैं और जो "पहाड़िया" हैं, वे पहाड़ियों पर रहते हैं। सन्थाल और पहाड़िया को मिलाकर "होड़" कहते हैं और हमलोग, जो बाहर से आकर सन्थाल-परगना में बसे हुए हैं, "दिकू" हैं। बेशक, 'होड़' व 'दिकू' दोनों आदिवासी शब्द हैं।
सन्थाल-पहाड़िया, यानि एक शब्द में जंगल-पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी आम तौर पर हफ्ते में एक या दो बार खरीद-बिक्री करने हाट-बाजारों में आते हैं। आम तौर पर वे शान्तिप्रिय और सन्तोषी होते हैं। "लालच"-जैसी बुराई से वे कोसों दूर हैं।
एक जमाने में आदिवासी महिलायें चाँदी के वजनी गहनों से लदी होती थीं- हमने अपने बचपन में देखा है। आज जो गहने वे पहनती हैं, वे उस समय के हिसाब से एक-चौथाई से भी कम लगते हैं। कहाँ गयी उनकी चाँदी?
एक जमाने में राजमहल की पहाड़ियाँ जंगलों से ढकी थी- आज विशाल पेड़ कम ही दीखते हैं। कहाँ गये उनके पेड़?
कहने को वे जंगल-पहाड़ों के "मालिक" हैं, मगर हम दिकूओं ने उनकी जमीन को पट्टे पर लेकर बड़े-बड़े "क्रशर" वहाँ स्थापित कर रखे हैं... और वे "मालिक" इन्हीं क्रशरों में मजदूरी कर रहे हैं! क्रशरों की कमाई से दिकू मालामाल हो रहे हैं... और होड़ की स्थिति ज्यों की त्यों बनी है, बल्कि बदतर हो गयी है। पिछले करीब पचास वर्षों से ऐसा चल रहा है। अब तो चूँकि सारे क्रशर ऑटोमेटिक हो गये हैं और भीमकाय जेसीबी एवं बुलडॉजरों का इस्तेमाल होने लगा है खनन में, इसलिए अब मजदूरी का अवसर भी ज्यादा लोगों को नहीं मिलता।
पत्थर खनन के इस व्यवसाय ने सत्तर के दशक जोर पकड़ा था, जब "फरक्का" का पुल बन रहा था। तब से अब तक खनन का काम नहीं भी तो बीस-पच्चीस गुना बढ़ गया होगा। "पाकुड़ स्टोन" का नाम शायद आपने भी सुना हो। अब चूँकि भारी-भरकम मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है, इसलिए जाहिर है कि पर्यावरण को नुक्सान पहुँचने की रफ्तार भी काफी बढ़ गयी है।
सरकार की "कमाई" का तो जिक्र करना ही बेकार है- अगर यहाँ दो प्रतिशत खनन भी "वैध" रुप से हो रहा हो, तो उसे "बहुत" माना जायेगा!
खैर, बात आदिवासियों के शोषण की है। पत्थर व्यवसाय से पहले आदिवासियों के उत्पादों (मौसमी फल, सब्जी, फसलें वगैरह) को सस्ते में खरीदकर हम दिकू उनका शोषण करते थे। उनके चाँदी के गहनों को गिरवी रखकर उन्हें कर्ज देकर और फिर गहनों को जब्त करके भी हम दिकूओं ने उनका शोषण किया है।
हम दिकूओं ने उनके जंगलों का सफाया कर डाला है- कुछ पत्थर-खदान के नाम पर और कुछ आरा-मिल तक कटे पेड़ पहुँचाकर।
कहने का तात्पर्य एक जमाने से हम दिकूओं ने होड़ का सिर्फ शोषण ही किया है- उनके जंगल, उनकी जमीन, उनके खनिज, उनके उत्पाद पर कब्जा करके "मुनाफा" हम दिकूओं ने कमाया है और वे जंगल-पहाड़-जमीन के "मालिक" होकर भी आज भी उसी स्थिति में हैं, जैसी स्थिति में 100-50 साल पहले थे। परिवर्तन आया भी है, तो "सन्थालों" में, "पहाड़ियों" की स्थिति आज भी "पाषाणयुग"-जैसी ही है।
सवाल है- आखिर तरक्की में उनका हिस्सा हम क्यों नहीं देना चाहते? ऐसा क्यों है कि उनकी जमीन से पत्थर निकाल कर हम अमीर, और अमीर हो रहे हैं... और वे जमीन के मालिक हमारे खदान में मजदूरी करते हुए गरीब और गरीब होते जा रहे हैं? ऐसे "असमान" विकास से तो विकास न होना ही ठीक लगता है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि कहीं हमारा शान्त इलाका भी एकदिन "लाल" तो नहीं हो जायेगा?
***
मैं समझता हूँ कि बंगाल हो या उड़ीसा, छत्तीसगढ़ हो या आन्ध्र, हर जगह होड़ के साथ यही, या ऐसी ही कहानी दुहरायी जा रही है।
जब वे इस तरक्की में अपना हिस्सा माँगते हैं, तो हम उन्हें जंगली-पहाड़िया समझकर दुत्कार देते हैं। पीढ़ियों तक- जी हाँ, पीढ़ियों तक दुत्कार सहने के बाद जाकर वे उग्र होते हैं। यह और बात है कि नक्सलवाद के नाम पर भी गलत बातें होती हैं, मगर इस समस्या के मूल में शोषण के खिलाफ आम आदिवासियों का आक्रोश ही है।
सन्देह है कि जैसे ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका में आदिवासियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया गया है, कहीं वैसा ही कार्यक्रम भारत सरकार भी न बना ले- उद्योगपतियों-पूँजीपतियों के दवाब में आकर- नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर। ताकि भू-सम्पदा की लूट में किसी तरह की दिक्कत न आये।     
*****

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें