1 सितम्बर'13 को मैंने एक आलेख
लिखकर एक स्थानीय साप्ताहिक के पास भेजा था. शायद लेख छपा नहीं था। आज फेसबुक पर
'रुपये के अवमूल्यन' पर एक आलेख पढ़ने के बाद उसकी याद आयी। मेल बॉक्स (Sent Mail) से खोजकर उसे निकाला।
उसे अब अपने इस ब्लॉग में तो पोस्ट कर रहा हूँ:
रुपये के मूल्य के बहाने भारत की
अर्थव्यवस्था पर कुछ विचार
1917 में 1 अमेरिकी डॉलर
का मूल्य 7.5 पैसे (दुहरा
दिया जाय- साढ़े सात पैसे!) हुआ करता था। अँग्रेजों ने जैसे-जैसे भारतीय उद्योगों
को तहस-नहस करना तथा विश्व-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी को घटाना शुरु किया, वैसे-वैसे रुपये का मूल्य गिरने लगाय
फिर भी, 1925 में 10 पैसे में 1 डॉलर खरीदा जा सकता था! अर्थात्
अमेरिकियों को 1 भारतीय रुपया
खरीदने के लिए अपने खजाने से 10 डॉलर खर्च
करने पड़ते थे।
अँग्रेजों की
लूट जारी रही, उसी अनुपात
में रुपये का अवमूल्यन भी होता रहा और 1947 में डॉलर और रुपया बराबर हो गये। यानि 1 डॉलर 1 रुपये में मिलने लगा।
***
आजादी के बाद
नेहरूजी को दो काम करने थे- 1.
देश
के लोगों से आह्वान कि हम चाहे आधा पेट भी खाकर रहेंगे, मगर उपलब्ध संसाधनों, प्रतिभा एवं
श्रमशक्ति के बल पर ही फिर से भारत को महान बनायेंगे; 2. एक मजबूत ‘‘नींव’’ की तैयारी- यानि तकनीकी एवं सामान्य शिक्षा की
व्यवस्था करना तथा खेती एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना। गाँधीजी यही चाहते
भी थे।
मगर नेहरूजी बिना ‘‘नींव’’ बनाये सीधे ‘‘गुम्बद’’ के निर्माण में जुट गये। बड़े-बड़े बाँध, बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे। जब इनके लिए
पैसों की जरुरत पड़ी, तो ‘‘कर्ज लेकर घी पीने’’ की उक्ति को चरितार्थ
करते हुए 1952 में विश्व
बैंक की शरण में चले गये। विश्व बैंक ने कहा- रुपये का अवमूल्यन करो, तब कर्ज मिलेगा! यह बैंक कोई ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ’’ का अंग थोड़े है- यह तो
कुछ अमीर देशों की एक मुनाफाखोर संस्था है, जिसका छुपा उद्देश्य है- सैन्य शक्ति के स्थान पर ‘‘अर्थशक्ति’’ के बल पर साम्राज्य
कायम करना!
तब से हम ‘‘ऋण-चक्र’’ में फँसते जा रहे हैं और रुपये का अवमूल्यन
किये जा रहे हैं।
***
1991 के बाद ‘‘बाजारीकरण’’ की शुरुआत हुई, भ्रष्ट आचरण गर्व की बात हो गयी, प्राकृतिक संसाधनों की लूट वैधानिक हो
गयी, स्विस बैंकों में काला
धन जमा करना और फिर मॉरिशस के रास्ते उसी धन को भारत में लगाना ‘‘पूँजी निवेश’’ बन गया। ऐसे में रुपये
के मूल्य को ज्यादा-से-ज्यादा गिराना सत्ताधारियों का स्वभाव बन गया।
मान लीजिये कि 1995 में किसी भ्रष्ट ने 1 करोड़ रुपये के कालेधन को डॉलर में बदला
था, तो उसे 3 लाख, 12 हजार, 500 डॉलर मिले होंगे। इस धन को वह स्विस बैंक में जमा कर देता
है। आज अगर वह इस धन को निकालकर मॉरिशस के रास्ते- जहाँ से धन आने पर सरकार यह
नहीं पूछती है कि इस धन का स्रोत क्या है या इसका असली मालिक कौन है- भारत में
लाना चाहे, तो उसे 2 करोड़, 03 लाख, 12 हजार,
500
रुपये मिलेंगे। ऐसे में, वह तो चाहेगा
ही कि रुपये का मूल्य गिरकर प्रति डॉलर 100 रुपये पर पहुँच जाय! यही अगर उल्टा हो गया- 1 डॉलर 10 रुपये में मिलने लगा, तो उसे (1 करोड़ के कालेधन के बदले) मात्र 31 लाख, 25 हजार रुपये मिलेंगे। तो स्विस बैंकों में पैसा
रखने वाले भला रुपये की मजबूती क्योंकर चाहने लगे? ...और वही तो आज देश चला रहे हैं- चाहे वे
उद्योगपति हों, पूँजीपति हों, माफिया हों, बड़े-बड़े अफसर हों, या फिर राजनेता हों!
उन्हीं भ्रष्टों को फायदा पहुँचाने के
लिए सरकार के शीर्ष पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों की चौकड़ी ने ‘‘ज्यादा जोगी मठ उजाड़’’ कहावत को चरितार्थ
करते हुए रुपये के मूल्य को रसातल तक पहुँचाने का मानो बीड़ा उठा लिया है- कम-से-कम
समय के अन्दर इसे ज्यादा-से-ज्यादा नीचे गिराना है! क्या पता- कल को किसी चमत्कार
के तहत ‘‘क्रान्तिकारी’’ किस्म की कोई सरकार बन
गयी तो?
***
जबकि रुपये के मूल्य को ऊँचा उठाना
असम्भव नहीं है। हाँ, तब है कि ‘‘क्रान्तिकारी’’ किस्म की कोई सरकार ही
ऐसे फैसले ले सकती है। मसलन-
1. निर्यात को सरकारी प्रोत्साहन एवं संरक्षण न देकर तथा
आर्थिक विशेषज्ञों से सलाह लेकर रुपये के ‘मूल्य’ को 1980 या 1960 के स्तर पर (हो सका, तो 1940 के स्तर पर) पहुँचाने की कोशिश की जा सकती है।
2. रुपये का मूल्य बढ़ाने के लिए अगर ‘‘स्वर्ण भण्डार’’ में बढ़ोतरी की जरुरत
पड़ती है, तो उसके लिए
दो उपाय अपनाये जा सकते हैं-
क) देश भर में विशेष अभियान चलाकर
लॉकरों तथा घरों से कालेधन के रुप में जमा सोने को जब्त कर उसे सरकारी
स्वर्णभण्डार तक पहुँचाया जा सकता है (‘‘लॉकर’’ की व्यवस्था
या इनकी ‘‘गोपनीयता’’ समाप्त करना कोई बड़ी
बात नहीं है);
ख) समृद्ध मन्दिरों एवं ट्रस्टों से
अनुरोध किया जा सकता है कि वे अपने स्वर्णभण्डार का 33 प्रतिशत अंश देश के नाम कर दें (इस अंश
को स्थानान्तरित नहीं किया जाय,
बल्कि
मन्दिर/ट्रस्ट के ही भण्डार में अलग कक्ष या ट्रंक में रखवा दिया जाय)।
इनके अलावे, भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस तरह के
बदलाव की जरुरत है, उसका भी जिक्र
कर ही दिया जाय, क्योंकि ‘‘रुपये का मूल्य’’ तो एक छोटा-सा हिस्सा
है समूची अर्थव्यवस्था काः
3. विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन को सं.रा.संघ
के अधीन लाने और इनकी नीतियों को गरीब एवं विकासशील देशों के अनुकूल बनाने की माँग
की जाय, अन्यथा भारत
इनके दिशा-निर्देशों को मानने से इन्कार कर दे।
4. इन संस्थाओं से लिये गये ऋण को चुकाने से भारत मना कर दे- 200 वर्षों तक यूरोपीय
देशों ने- खासकर, ब्रिटेन ने-
इस देश का शोषण किया है, उसका ‘‘मुआवजा’’ कौन देगा? या फिर, उन्हीं
यूरोपीय देशों के लुटेरे बैंकों में जमा भारतीयों के कालेधन को जब्त कर उसी से इन
कर्जों को चुकाया जाय। (यह एक आसान काम है- वैसे भी, अपने डूबते कर्ज को वापस लेने के लिए अमीर देश
खुद ही उन बैंकों की नकेल कसेंगे।)
5. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को 1:1 की स्थिति पर
लाया जाय- खासकर, अमीर देशों के
मामले में- अगर आप हमसे 1 रुपये का
सामान खरीदेंगे, तो हम भी आप
से 1 ही रुपये का सामान
खरीदेंगे। इससे भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। उल्टे ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ कहावत के तहत भारत में
भी ‘‘हाइ-टेक’’ वस्तुओं का निर्माण
शुरु हो जायेगा!
6. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में ‘‘स्वतंत्र’’ रुप से व्यवसाय न करने दिया जाय। उनसे कहा जाय
कि अगर उन्हें भारत में व्यापार करना है, तो किसी भारतीय कम्पनी में 33 प्रतिशत निवेश करो और मुनाफे का 33 प्रतिशत ही भारत से बाहर ले जाओ- अन्यथा भारत
अपने संकल्प को उनसे दुहरा दे- ‘‘चाहे हमें आधा
पेट खाकर ही क्यों न रहना पड़े,
हम
देश के अन्दर ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों, प्रतिभा तथा मानव शक्ति के बल पर देश को फिर से
महान बना सकते हैं!’’
अन्त में- ध्यान रहे, तकनीकी रुप से भारत भले एक ‘‘देश’’ है, मगर वास्तव
में यह एक ‘‘महादेश’’ है- कोई यह न कहे कि
इन नीतियों को अपनाने से भारत दुनिया से अलग-थलग पड़ जायेगा... भारत अपने-आप में एक
‘‘दुनिया’’ है...
***
(यूँ तो बातें और भी हैं, मगर फिलहाल इतना काफी है।)
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