गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

113. दो पड़ोसी नगरों के बीच "फ्लाइ-ओवर" "शटल" ट्रेन सेवा- बिना बिजली, बिना डीजल के!



       मान लीजिये, कि 'क' और 'ख' दो पड़ोसी नगर हैं, जिनके बीच की दूरी 250 किलोमीटर है। दोनों नगरों के बीच एक फ्लाइ-ओवर का निर्माण किया जाता है, जिसपर "सिर्फ" रेल की पटरियाँ बिछी हैं। किनारों पर इस फ्लाइ-ओवर की ऊँचाई 5 मीटर तथा बीच में 4 मीटर है।
       'क' नगर के स्टेशन पर एक ऐसी ट्रेन खड़ी है, जो अपेक्षाकृत हल्की है, जिसमें 'इंजन' के नाम पर एक मामूली केबिन है, जिसमें ट्रेन में "ब्रेक" लगाने की मेकेनिकल व्यवस्था है, और पूरे फ्लाइ-ओवर में ट्रेन को दाहिने-बायें से ऐसी सुरक्षा प्रदान की गयी है कि तेज आँधी में ट्रेन कहीं नीचे न गिर जाय!   
       स्टेशन पर खड़ी ट्रेन को हल्के से कुछ दूर तक आगे धकेलने के लिए एक "हाइड्रोलिक" व्यवस्था है, जो ट्रेन को धकेल कर आगे बढ़ा देती है। थोड़ा-सा ही आगे चलने पर ट्रेन ढलान पर आ जायेगी और फिर तेजी से मध्य विन्दु की ओर भागने लगेगी। मध्य विन्दु तक आते-आते ट्रेन का त्वरण इतना तेज हो जायेगा कि वह आगे चढ़ाव पर भी चढ़ जायेगी, भले उसकी गति कम होने लगे। इस प्रकार वह 'ख' स्टेशन तक पहुँच सकती है।
       'आपात्कालीन' व्यवस्था के रुप में स्टेशन के पास वाले कुछ खम्भों को "हाइड्रोलिक" बनाया जा सकता है, ताकि चढ़ाव पर ट्रेन अगर ज्यादा धीमी हो जाय, तो ड्राइवर एक संकेत भेजे और स्टेशन के नियंत्रण कक्ष से अन्तिम कुछ खम्भों की ऊँचाई कम कर दी जाय, जिससे कि ट्रेन बिना रुके स्टेशन तक आ सके!
       वैसे, ये 5 मीटर या 4 मीटर ऊँचाई की बात "सांकेतिक" है, जहाँ तक मैं समझता हूँ कुछ "ईंचों" की ऊँचाई-नीचाई ही ऐसी ट्रेनों को दौड़ा सकती है!
      ***
       अपने देश में आम तौर पर दो नगरों के बीच की औसत दूरी 200 से 250 किलोमीटर ही है और किन्हीं दो नगरों के बीच यातायात भी बहुत होता है। सामान्य ट्रेनों में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है, नयी पटरियों या नये रेल पथों के लिए जमीन मिलना मुश्किल है; मिल भी गया, तो एक प्रकार से यह जमीन की बर्बादी ही है; दूसरे, इससे रेलपथ के इसपार से उसपार की सड़क-यातायात बाधित होती है।
सो, बेहतर है कि अब "फ्लाइ-ओवर" ट्रेन की बात सोची जाय; फ्लाइ-ओवर पर रेल पटरी "दोहरी" बिछायी जाय और इनपर "शटल" किस्म की ट्रेन चलायी जाय, जो हर नगर को आस-पास के 4 या 5 पड़ोसी नगरों से जोड़ने का काम करे। चूँकि सामान्य ट्रेनों को चलाने के लिए बिजली या डीजल के रुप में "ऊर्जा" की व्यवस्था करना एक खर्चीला सौदा है, इसलिए इस रेलपथ पर सामान्य मेकेनिकल तकनीक वाली बिना बिजली, बिना डीजल से चलने वाली ट्रेन चलाई जाय, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है। (इस मामले में "रोलर कोस्टर" को याद कर सकते हैं।)  
एक और बात- फ्लाइ-ओवर "सड़क" बनाने में भले ज्यादा खर्च आता हो, मगर फ्लाइ-ओवर "रेलपथ" बनाने में ज्यादा खर्च नहीं आना चाहिए। और फिर, फ्लाइ-ओवर पर "ब्रॉड गेज" पटरी बिछाना कौन-सा जरुरी है? इसपर तो "मीटर गेज" पटरियाँ भी बिछायी जा सकती हैं! (बेशक, ट्रेन भी "मीटर गेज" ही होंगी- हालाँकि वे "आधुनिक" होंगी!)
इस फ्लाइ-ओवर के लिए अलग से जमीन अधिग्रहण की समस्या भी नहीं रहनी चाहिए- दो नगरों को जोड़ने वाला जो "राजपथ" होता है, उसके ठीक बीचों-बीच- जहाँ हरियाली की व्यवस्था होती है- खम्भे गाड़ते हुए इस फ्लाइ-ओवर को बनाया जा सकता है। चूँकि राजपथ "सर्पिल" होते हैं और इस फ्लाइ-ओवर रेलपथ के लिए "एरियल डिस्टेन्स" पर चलना ज्यादा मुफीद होगा, इसलिए अलग से भी इसका रूट निर्धारित किया जा सकता है- फिर भी, 30-40 मीटर की दूरियों पर एक या दो खम्भों के लिए शायद ही भूमि-अधिग्रहण का झमेला पेश आये!
ठीक है कि इस रेल में बीच के स्टेशनों पर नहीं उतरा जा सकता, मगर इससे "सामान्य" ट्रेनों में भीड़-भाड़ कम हो जायेगी- क्या इससे इन्कार किया जा सकता है?
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अब सबसे महत्वपूर्ण बात। आज जबकि "बुलेट" ट्रेनों के सपने देखे जा रहे हैं, वैसे में, मैं भला इस तरह की "दकियानूसी" ट्रेनों की परिकल्पना क्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ?
उत्तर यह है कि "जटिल" तकनीक पर "तेजी" से "भागती" आज की जो जीवन-शैली है, इसकी उम्र 100 साल से ज्यादा मुझे नजर नहीं आती। यह हमें बहुत नुकसान पहुँचा रही है। अगले सौ वर्षों के अन्दर लोग इसे समझ लेंगे और फिर "सामान्य" तकनीक पर "फुर्सत" के साथ "सहज" जीवन-शैली अपनाने की प्रवृत्ति लोग अपनाने लगेंगे- ऐसा मेरा विश्वास है। जो देश या समाज इसे समझकर अभी से इसे अपनाना शुरु कर देगा, वह आनेवाले समय में नये युग का नायक होगा!
मैं चूँकि समय से पहले इसकी घोषणा कर रहा हूँ, इसलिए यह अटपटा लग रहा है।
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टिप्पणी:  
इस तरह के मेरे दो अन्य आलेखों पर भी नजर डाली जा सकती है-

     1. बड़े/परमाणु विद्युत संयंत्र बनाम छोटे-छोटे विद्युत संयंत्र


रविवार, 24 फ़रवरी 2013

112. तो हम "रामसेतु" को तोड़ डालेंगे....?



       यूँ तो रामसेतु (एडम्स ब्रिज) को तोड़कर जलजहाजों के लिए रास्ता बनाने की परिकल्पना बहुत पुरानी है (यह कहानी 1860 तक पीछे जाती है), मगर "सेतुसमुद्रम शिपिंग चैनल प्रोजेक्ट" का गठन फरवरी' 1997 में हुआ, जब देवेगौड़ा साहब प्रधानमंत्री थे
इसके सालभर बाद अटलबिहारी वाजपेयी साहब प्रधानमंत्री बनते हैं, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य रह चुके हैं। बेशक, वे चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल-जैसे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं थे- उन्होंने विश्व समुदाय के खिलाफ जाकर परमाणु परीक्षण को हरी झण्डी दी और देशवासियों के स्वाभिमान को जगाया। मगर अफसोस, कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अमूल्य धरोहर "रामसेतु" को तोड़नेवाली इस परियोजना को रद्द करने के बजाय पाँच वर्षों तक इसके काम को वे आगे बढ़ाते रहे!
       जब भाजपा के नेतृत्व वाली "राष्ट्रवादी" सरकार ने इस परियोजना को रद्द करने में रुचि नहीं दिखायी, तो काँग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार से भला हम क्या उम्मीद रखें?
       सो, इस सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि चूँकि इस परियोजना पर 829 करोड़, 32 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं, इसलिए अब इसे बन्द नहीं किया जायेगा- भले सरकार द्वारा ही गठित पचौरी समिति ने इस परियोजना पर आगे बढ़ने की सलाह न दी हो! -आज अखबार में ऐसी खबर है।
       अब सर्वोच्च न्यायालय के पास ज्यादा करने के लिए कुछ नहीं है।
       देखा जाय... आगे क्या होता है...
       ***
(इस विषय पर पहले भी मैंने अपना विचार प्रकट किया था था- रामसेतुके बहाने कुछ सोच-विचार)

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

111. अपना संसद भवन: कभी बनेगा भी?


दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्ष जब आधिकारिक वक्तव्य देते हैं और उनके वक्तव्य के सीधे प्रसारण की व्यवस्था रहती है, तब पटभूमि (बैकग्राउण्ड) का खासा ध्यान रखा जाता है, ताकि टीवी पर देखने वालों को एक भव्यता, एक शान का अनुभव हो... । भव्यता या शानो-शौकत न भी झलके, तो एक प्रकार की "शालीनता" का ध्यान जरूर रखा जाता है पटभूमि पर।  
इनके मुकाबले आज टीवी पर जब अपने प्रथम नागरिक को बजट सत्र का उद्घाटन भाषण देते हुए देखा, तो यकीन कीजिये, मैंने खुद को शर्मिन्दा महसूस किया। कहना नहीं चाहिए, मगर कहने को मजबूर हूँ कि ऐसा लग रहा था- जैसे, अपने घर के बाथरूम के दरवाजे के बाहर खड़े होकर राष्ट्रपति महोदय अपना वक्तव्य पढ़ रहे हैं!
इतनी बेतरतीब पुताई बाथरूम के दरवाजे पर ही हो सकती है!
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मेरे हिसाब से तो अँग्रेजों के जाने के बाद भारतीय नेताओं को पार्लियामेण्ट हाउस, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, वायसराय हाउस के तरफ झाँकना भी नहीं चाहिए था- इनमें स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी खोल देना चाहिए था। अपना अलग संसद भवन बनाना चहिए था और जबतक अपना नया भवन बनता, तबतक तम्बूओं से ही राजकाज चलाना चाहिए था!
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मैं यह भी बता दूँ कि हमारे संसद भवन के अन्दर की जो बनावट, सजावट, रंग-संयोजन इत्यादि हैं, वे मन में नैराश्य और उदासी का भाव संचार करने वाले हैं। इसके अलावे, जो बाहरी बनावट है, वह "शून्याकार" है, जहाँ बैठने वाले लोग गोल-गोल घूमने वाली नीतियाँ बनाते रह जायेंगे, मगर देश कभी आगे नहीं बढ़ेगा... जो समस्यायें 1947 में थीं, उन समस्याओं से हम आज भी जूझ रहे हैं!
जो भी तरक्की हुई है देश में, वे सब "समय के साथ अपने-आप होने वाली" तरक्की है... देश चलाने वालों की नीतियों की वजह से इस देश में कोई खास तरक्की नहीं है... यकीन न हो, तो ठण्डे दिमाग से विचार करके देख लीजिये... 

110. हेलीकॉप्टर घोटाला: सारी दाल ही काली है!


       जरा सोचिये-
·         प्रधानमंत्री या रक्षामंत्री को "लेह" ले जाने के लिए एक वीवीआईपी हेलीकॉप्टर की जरुरत महसूस की जाती है।
·         हेलीकॉप्टर ऐसा होना चाहिए, जो 18,000 फीट की ऊँचाई पर उड़ान भर सके।
·         निविदा जारी की जाती है। पता चलता है कि दुनिया में एकमात्र "यूरोकॉप्टर" ही ऐसा हेलीकॉप्टर है, जो 18,000 फीट की ऊँचाई पर उड़ान भर सकता है- यानि "लेह" तक जा सकता है। दुनियाभर में कोई दूसरा ऐसा चॉपर है ही नहीं!
·         ऐसे में, अगर भारत सरकार एक यूरोकॉप्टर खरीद लेती, तो भला किसे परेशानी होती? एक के स्थान पर दो भी खरीद लिये जाते (दूसरा 'स्टैण्ड-बाय के लिए), तो भी किसी को आपत्ति नहीं होती। दो की जगह तीन यूरोकोप्टर खरीदने पर भी शायद ही किसी को आपत्ति होती।
·         मगर ऐसा नहीं किया जाता। भला क्यों?
क्योंकि-
·         जब आप ऐसी मशीन खरीद रहे हों, जिसे सिर्फ एक ही कम्पनी बनाती हो, तो जाहिर है कि वह कम्पनी "दलाली" पर पैसे खर्च नहीं करेगी। दूसरी बात, जब आप उस मशीन की एक, दो या तीन ही संख्या खरीद रहे हों, तब भी दलाली की सम्भावना नगण्य हो जाती है।
·         जबकि हमारे नेताओं तथा नौकरशाहों को रक्षा-सौदों में मोटी दलाली खाने की लत लग गयी है।
इसलिए-
·         कुछ और कम्पनियों को दौड़ में शामिल करने के लिए उड़ान क्षमता को 18,000 फीट से घटाकर 15,000 फीट कर दिया जाता है। ("लेह" जाने की जरुरत खत्म!?)
·         चॉपरों की संख्या 12 की जाती है। (ध्यान रहे, ये चॉपर "सैनिकों" की आवाजाही के लिए नहीं है, न ही ये युद्धक या बमवर्षक हैं, ये मैदानी इलाकों यानि कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिए भी नहीं हैं; फिर 12 ऐसे वीवीआईपी हेलीकॉप्टरों की क्या जरुरत थी भाई? और फिर प्रधानमंत्री/रक्षामंत्री कौन-सा नियमित दौरा करते हैं "लेह" का?)
·         जाहिर है कि सिर्फ और सिर्फ "दलाली" पाने की आशा में यह खेल खेला जाता है, जिसमें वायुसेना प्रमुख तक को मोहरा बनाया जाता है। (यह और बात है कि वायुसेना प्रमुख का आत्मबल मजबूत नहीं रहा होगा, सो वे राजनेताओं/नौकरशाहों के दवाब के सामने झुक जाते हैं।)
·         रक्षा-सौदों में दलाली सत्ता पक्ष व विपक्ष के प्रमुख नेता मिल-बाँट कर खाते हैं, इसलिए सरकार बदलने के बाद भी मामला खटाई में नहीं पड़ता है और सौदा उसी कम्पनी के साथ होता है, जो 10 परसेण्ट की दलाली देता है।
अब स्थिति यह है कि-
·         इटली में इस दलाली की सालभर से चल रही जाँच अब जब अपने चरम विन्दु पर पहुँच गयी है, तब अपने यहाँ नेता, नौकरशाह, दलाल, मार्शल वगैरह मिलकर इसकी लीपा-पोती में सक्रिय हो गये हैं। लीपा-पोती के कई तरीके हैं इस देश में- 1. सीबीआई जाँच बैठा दो; 2. ज्यादा-से-ज्यादा नाम उछालो; 3. अगले किसी घोटाले की पोल खुलने दो; 3. किसी भावनात्मक मुद्दे को हवा दे दो।
·         संसद में इस दलाली के मामले में विस्तृत बहस न होने पाये, इसकी भी पूरी तैयारी कर ली गयी है- आज से बजट सत्र शुरु हो रहा है- देख ही लीजियेगा.... 

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

109. रक्षा उपकरण, इनके सौदे और इनमें दलाली


जो वैज्ञानिक, इंजीनियर, तकनीशियन, डिजाइनर इत्यादि मिलजुलकर हाइड्रोजन बम बना सकते हैं, सुपर कम्प्यूटर बना सकते हैं, अन्तर्महाद्वीपीय मिसाइल बना सकते हैं, कृत्रिम उपग्रह बना सकते हैं; वे देश की सेनाओं की जरुरतों के मुताबिक तोप, वायुयान, जलपोत वगैरह नहीं बना सकते- ऐसा मुझे नहीं लगता। देश चलाने वालों की तरफ से थोड़ी-सी प्रेरणा मिलने पर वे सबकुछ बना सकते हैं। अँग्रेजों के यहाँ से जाने के तुरन्त बाद भारत ने अपना एक जलपोत बनाकर उसे ब्रिटेन भेजा भी था कि देखो, हम खुद जहाज बना सकते हैं! मगर यह जोश जल्दी ही ठण्डा पड़ गया।
       मुझे यह लगता है कि सत्ता-हस्तांतरण के बाद देश की सत्ता गलत लोगों के हाथों में चली गयी थी, जिन्होंने समय के साथ धीरे-धीरे ऐसी व्यवस्था कायम कर दी कि आज की तारीख में शासन, प्रशासन, पुलिस, सेना और न्यायपालिका इत्यादि के उच्च पदों पर "देशभक्त", "ईमानदर" और "साहसी" व्यक्ति पहुँच ही नहीं सकते। ऐसा कोई पहुँच गया, तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से दवाब डालकर,  या फिर जलील करके उसे हटा दिया जाता है। याद कीजिये, तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे- भले लोग भूल जाते हों। (क्या किसी को एसबीआई प्रमुख आरके तलवार बनाम संजय गाँधी प्रकरण याद है? ताजा प्रकरण तो जेनरल वीके सिंह बनाम सरकार का है ही, जिसमें न्यायपालिका ने भी सरकार का ही पक्ष लिया था!)   
       खैर, तो बात यह थी कि सेनाओं की जरुरतों की चीजें हम खुद नहीं बनाते- क्योंकि देश चलाने वाले ऐसा नहीं चाहते। देश चलाने वाले विदेशों के साथ रक्षा-सौदे करना पसन्द करते हैं। इससे कई फायदे उन्हें मिलते हैं: 1. दलाली काफी मोटी मिलती है, 2. पैसे को बाहर-बाहर से ही स्विस बैंकों में पहुँचाया जा सकता है, 3. भेद खुलने का खतरा अपेक्षाकृत कम रहता है, 4. भेद खुलने पर भी सेना के "मनोबल" का मुद्दा उछालकर मामले को दबाना आसान होता है, और 5. इसी बहाने बहुतों को गोरी चमड़ी वाली कुछ हसीनाओं के साथ हमबिस्तर होकर गधा जन्म छुड़ाने का मौका मिल जाता है!
       ***
       जिस प्रकार, इस देश के हर सरकारी-अर्द्धसरकारी विभाग में हर काम के लिए- खासतौर पर दो-नम्बरी कामों के लिए- घूँस एवं दलाली की रकम तय होती है और यह भी तय रहता है कि किस अधिकारी व कर्मी को कितना परसेण्टेज मिलेगा, उसी प्रकार रक्षा-सौदों में मिलने वाली दलाली को भी बाँटने का एक अलिखित दिशा-निर्देश जरुर होगा!
       मैं अनुमान लगाता हूँ कि दलाली की रकम का 60% हिस्सा राजनेताओं को तथा 40% हिस्सा अन्यान्य लोगों को मिलता होगा। राजनेता अपने हिस्से को दो भागों में बाँटते होंगे- सत्ता पक्ष व विपक्ष के प्रमुख नेताओं के बीच- 40:20 या फिर 30:30 प्रतिशत के अनुपात में। अन्यान्य लोगों के लिए जो हिस्सा रहता है, उसे चार बराबर हिस्सों में बाँटा जाता होगा- 10% देशी दलालों को, 10% वरिष्ठ नौकरशाहों को, 10% सेनाध्यक्षों को दे दिया जाता होगा और बाकी बचे 10% को "आरक्षित या आपात्कालीन" कोष के रुप में रखा जाता होगा, जिसका उपयोग ऑडिट, मीडिया, जाँच एजेन्सी इत्यादि के उच्चपदस्थ अधिकारियों को तोहफे देने में किया जाता होगा।
       इस प्रकार, ये मामले कभी उभरकर सामने नहीं आते और आते भी हैं तो सब भाई-बन्धु बड़े प्रेम से मिलजुल कर इसकी लीपा-पोती करते हैं।
       ***
       आपने ध्यान दिया होगा कि विदेशों में जब ऐसा कोई मामला उभरता है, तो अक्सर अभियुक्त अदालत में सच्चाई बयान करते हुए अपना दोष स्वीकार कर लेता है- भारत में ऐसा नहीं होता। यहाँ अभियुक्तों को अपने आकाओं तथा देश की व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास होता है कि उनका बाल भी बांका नहीं होगा, ज्यादा-से-ज्यादा कुछेक महीने उन्हें जेल में बिताने पड़ सकते हैं और जेल में भी सिपाही दारोगा उन्हें सलाम ही ठोकेंगे! विदेशों में ऐसे मामलों में "सूत्रधार" (किंगपिन) को पकड़ा जाता है और उसे सजा भी मिलती है, मगर हमारे यहाँ किंगपिन का नाम तक उभरकर सामने नहीं आता!
देखा जाय, तो "बोफोर्स" की दलाली इस देश के घोटालों का एक "आदर्श" नमूना है। वीपी सिंह रैलियों में एक पर्ची को लहराकर कि इसमें बोफोर्स की दलाली खाने वालों के नाम हैं, आम चुनाव जीत जाते हैं और प्रधानमंत्री बनने के बाद कहते हैं- ऐं, कौन-सी पर्ची?
वीपी सिंह को छोड़ दें, तो भाजपा ने भी पाँच साल देश चलाया, मगर बोफोर्स के दलालों को नहीं पकड़ पायी। सीबीआई ने बोफोर्स मामले में एक चवन्नी खोजने के लिए सवा रुपया खर्च करके एक विश्व कीर्तिमान बनाया है- यह और बात है कि चवन्नी अब भी नहीं मिली है और जाँच बन्द हो गयी है। जब जाँच बन्द हो गयी, तो बेचारे क्वात्रोच्ची के खातों पर रोक भला क्यों बनी रहे? तो वर्तमान सरकार के एक आदेश पर क्वात्रोची के विदेशों में स्थित खातों से रोक हटा ली जाती है, क्वात्रोच्ची सारे पैसे निकाल लेता है और उसके बाद सरकार बड़े भोलेपन से दूसरा आदेश जारी करती है- पहला आदेश गलती से जारी हो गया था... ! 'गलती' करने वाले का आज तक पता नहीं चला है!
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हालिया 'ऑगस्टा-वेस्टलैण्ड हेलीकॉप्टर घोटाले' में भी दलाली की रकम को ऊपर बताये गये अनुपात में मिल-बाँटकर खाया गया होगा। इटली में भले 'घूँस देने वालों' को सजा हो जाय और भले ही वहाँ भारत में 'घूँस लेने वालों' के नाम उजागर हो जायें, मगर भारत में 'बोफोर्स घोटाले की आदर्श जाँच' को देखते हुए हम आश्वस्त रह सकते हैं कि- 1. जाँच कभी पूरी नहीं होगी, 2. कोई दोषी साबित नहीं होगा, 3. किसी को सजा मिलने की तो खैर, कल्पना ही नहीं की जा सकती!, 4. दलाली की रकम की जब्ती/बरामदगी नहीं होगी, और 5. अगला घोटाला सामने आते ही (तीन से छह महीने का समय लगता है- किसी अगले घोटाले के तूल पकड़ने में) इस घोटाले को सब भूल जायेंगे।
       हाँ, इस बीच इतना जरुर होगा कि- 1. पक्ष-विपक्ष के नेता एक-दूसरे के साथ "नूरा-कुश्ती" खेलेंगे, 2. सीबीआई के उच्चाधिकारी विदेश (इटली-ब्रिटेन) दौरे करेंगे और 3. ये तीनों मिलजुलकर इतने नाम उछालेंगे, मामले को इतना उलझायेंगे कि दो-तीन हफ्ते बाद ही इसका 'सिरा' खोजना मुश्किल हो जायेगा- देख लीजियेगा।  
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आज स्थिति यह है भारतीय घपलों, घोटालों, दलालियों पर एक "कोश" (इनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया जा सकता है और साहित्य से लेकर अर्थशास्त्र तक के शोधार्थी भारतीय भ्रष्टाचार की विशिष्ट शैली आदि पर प्रबन्ध लिखकर डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर सकते हैं!
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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

108. क्या महिलाओं के सशक्तिकरण की सम्भावना इस देश में है?



       देश की न्यायपालिका के प्रति सम्मान रखते हुए मैं एम.जे. अकबर साहब के एक लेख ('प्रभात खबर' में प्रकाशित) से कुछ पाराग्राफ उद्धृत करता हूँ:
        कानून और न्याय दोनों ही मानवीय हैं, इसलिए इसमें हमेशा कुछ छूट जाने या कोई चूक होने की गुंजाइश बनी रहती है. लेकिन, हम न्याय के मामले सुप्रीम कोर्ट को आखिरी शब्द के तौर पर स्वीकार करते हैं क्योंकि हमें इसकी ईमानदारी पर इस सीमा तक यकीन जरूर है कि कभी-कभार हो जानेवाली चूक भी ईमानदार ही होती है. न्याय प्रणाली जिन स्थापित माध्यमों से अपनी विश्‍वसनीयता की रक्षा करती है, उनमें न्यायालय की अवमाननाके सिद्धांत का महत्वपूर्ण स्थान है.
अगर आप घर में रहना चाहते हैं, न कि जेल में तो आपको कोर्ट के फैसले पर असहमति प्रकट करने की सलाह नहीं दी जा सकती. लेकिन हमें यकीन है कि श्रीमान हमें विस्मय प्रकट करने की थोडी आजादी जरूर देंगे! 
       ***
       पांच फरवरी को अखबारों में यह खबर छपी कि पी सथाशिवम और जेएस खेकर की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने उस व्यक्ति की मौत की सजा को बरकरार रखा है, जिसने एक सात साल के बो को अगवा कर लिया था और जब उसे उसके एवज में फिरौती नहीं मिली, तो उसकी हत्या कर दी थी. न्यायाधीशों ने यह निष्कर्ष निकाला कि उन्हें अपराधी में किसी सुधार की कोई आशा नजर नहीं आती. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उसकी विकृति अमानवीय थी और यह कि उसने काफी सोच-समझ कर और शांत दिमाग से योजना बना कर उस लड.के की हत्या की. यह सब पूरी तरह सही है. उन्होंने मृत्युदंड को बरकरार रखने के लिए जो तर्क दिया उस पर कोई बहस नहीं की जा सकती. लेकिन अपने फैसले का औचित्य बताते हुए उन्होंने जो लिखा, उसमें एक अजीब दिलचस्प बात थी. इसे न्यायाधीशों ने मृत्युदंड के पक्ष को मजबूत करने वाला बताया. मैं उसे उद्धृत कर रहा हूं- मृतक के अभिभावक को तीन बेटियां और एक बेटा था. एक मात्र बेटे को अगवा करने का मकसद मां-बाप के मन में अधिकतम भय पैदा करना था. जानबूझ कर एक मात्र बेटे की हत्या करना उसके अभिभावकों के लिए गंभीर परिणाम देनेवाला होगा’. पीठ ने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा,‘माता-बाप के लिए अपने इकलौते बेटे को गंवाने का दुख, जो उनके वंश को आगे बढाता और बुढ.पे में उनकी देखभाल करता, किसी तरह मापा नहीं जा सकता.
ऐसी सोच के निहितार्थ चौंकानेवाले हैं. इसका एक अर्थ यह है कि अभिभावकों का दुख तब कम होता, अगर उनकी तीन बेटियों में से किसी के साथ यह अपराध किया गया होता, क्योंकि बेटी न उनके वंश को आगे बढाती, न बुढ.पे में उनकी देखरेख करती. न्यायाधीशों ने इकलौते बेटेपर पूरा जोर दिया. आखिर न्यायाधीश किस दुनिया में रह रहे हैं?
       यह दुनिया कौन सी है, इसे एक सप्ताह पहले आये एक और फैसले से समझा जा सकता है. यह फैसला भी मृत्युदंड के खिलाफ याचिका पर आया. इस पीठ में जस्टिस सथाशिवम थे- जस्टिस एफएमआइ कलिफुल्ला के साथ. सुप्रीम कोर्ट के दोहरे मापदंडों के बारे में एक भय का एहसास किये बगैर इस फैसले को दोहराना कठिन है. उनके समक्ष एक ऐसे व्यक्ति का मामला था, जिसे ट्रायल कोर्ट और हाइकोर्ट, दोनों ने ही कसूरवार ठहराते हुए फांसी की सजा सुनायी थी. उस बर्बर हत्यारे ने अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म किया. पुलिस में उसकी पत्नी द्वारा शिकायत किये जाने पर उसे गिरफ्तार किया गयाथा. जब वह पैरोल पर छूट कर आया तब उसने अपनी बेटी और पत्नी दोनों की ही कुल्हाड. से हत्या कर दी.
यह घृणित बर्बर हत्यारा जस्टिस सथाशिवम और कलिफुल्ला की बदौलत जीवित रहने का आदेश पा चुका है. किसी को आश्‍चर्य हो सकता है कि दुष्कर्म और लैंगिक पूर्वाग्रहों के खिलाफ देशभर में उपजा भीषण ज्वार सुप्रीम कोर्ट को छू कर नहीं गया? मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने जरूर स्त्रियों की आक्रोश भरी आहों को सुना है. उन्होंने कहा कि अगर यह मुमकिन होता, तो वे भी दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे लोगों में शामिल होते. 
क्या मुख्य न्यायाधीश तब लाचार थे, जब सुप्रीम कोर्ट के उनके सहयोगी इस तरह के विरोधाभासी फैसले सुना रहे थे. ट्रायल कोर्ट और हाइकोर्ट भविष्य में क्या करेंगे जब अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म और उसकी हत्या करनेवाला अपराधी उनके समक्ष लाया जायेगा, जिसने अपनी पत्नी की भी इस कारण हत्या की हो, कि वह उसकी मां है. क्या तब वे मृत्युदंड देने से काफी दूर ठिठक जायेंगे, क्योंकि जस्टिस सथाशिवम और जस्टिस कलिफुल्ला ने अपने फैसले से एक परंपरा कायम कर दी है. क्या एक दुष्कर्म की शिकार बनायी गयी और हत्या कर दी गयी नाबालिग किशोरी के जीवन का मूल्य एक अगवा करके हत्या कर दिये गये लड.के के जीवन से कम है! क्या एक व्यक्ति जिसने दो स्त्रियों की हत्या की वह दया का पात्र है और एक लड.के की हत्या करनेवाला फांसी पर चढ. दिये जाने का! क्या यही न्याय है! माननीय सुप्रीम कोर्ट के पास चुप रहने का विकल्प है. हम अपने सवालों को एक सीमा के बाद आगे नहीं ले कर जा सकते. क्या सुप्रीम कोर्ट चुप रहने के विकल्प को ही जवाब के तौर पर चुनेगा! 
(http://epaper.prabhatkhabar.com/epaperpdf//1222013//1222013-md-hr-8.pdf)
        ***
        संयोग से कल ही मैंने स्वामी विवेकानन्द जी उस कथन को फेसबुक पर साझा किया था, जिसमें उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के बिना इस देश (बल्कि दुनिया) की तरक्की को असम्भव बताया है।
       हलाँकि मैं खुद यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि सरकार की ओर से महिला सशक्तिकरण के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्योंकि यह "संस्कार" का मामला है। फिर भी, जितना मेरा दिमाग है, उतना सोचते हुए मैंने खुशहाल भारत में महिला सशक्तिकरण की एक योजना प्रस्तुत की है:
       24.1      जनसंख्या वृद्धि के लिये जो सामाजिक तबके और भौगोलिक क्षेत्र मुख्य रुप से जिम्मेवार हैं, उन तबकों तथा क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हुए बिना किसी शैक्षणिक योग्यता के बन्धन के 16 से 20 वर्ष तक की अविवाहित महिलाओं को भर्ती करते हुए एक सम्पूर्ण महिला सैन्य टुकड़ी का गठन किया जायेगा।(इसे 'शक्ति सेना' कह सकते हैं।)
24.2      इस सैन्य टुकड़ी में महिलाओं को 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ने की विशेष छूट होगी, ताकि वे विवाह कर सामान्य गृहस्थ जीवन बिता सकें। (नौकरी न छोड़ने वाली महिलाओं को भी 28 वर्ष की उम्र के बाद ही विवाह की अनुमति दी जायेगी।)
24.3      नौकरी छोड़ते समय जितने वर्षों की सेवा किसी महिला ने की होगी, उतने ही वर्षों का अतिरिक्त वेतन उन्हें एकमुश्त धनराशी के रुप में दिया जायेगा।
24.4      इस सैन्य टुकड़ी के जिम्मे सेना के वे काम होंगे, जिन्हें सीमा से दूर रहकर भी अंजाम दिया जा सकता है (जैसे- सेना डाकघर)।
24.5      यहाँ महिला सैनिकों के लिये सामान्य शिक्षा-दीक्षा की भी व्यवस्था होगी।
24.6      अन्यान्य सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ने, एकमुश्त धनराशी (जितने वर्षों की सेवा उन्होंने की है, उतने ही वर्षों के वेतन के बराबर) प्राप्त करने की छूट होगी; साथ ही, नौकरी न छोड़ने की दशा में विवाह करने की अनुमति उन्हें 28 की उम्र के बाद ही प्रदान की जायेगी।
24.7      'शक्ति सेना' या असैनिक (नागरिक) सेवा की जो महिला 28 की उम्र से पहले विवाह कर लेती है, उन्हें भी 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ते समय एकमुश्त धनराशि का लाभ दिया जायेगा- बशर्ते कि वे तब तक माँ नहीं बनी हों।
(http://khushhalbharat.blogspot.in/2009/12/24.html)
इसके अलावे, अश्लीलता एवं कुरीतियों पर भी मैंने कुछ लिखा है:
30.1          देश के सभी सामाजिक/ सांस्कृतिक/महिला संगठनों के प्रतिनिधियों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक त्रैमासिक अधिवेशन बुलाया जाएगाजिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एकाधिक न्यायाधीश गण करेंगे।
30.2          समाज में विभिन्न तरीके से फ़ैल रही अश्लीलता एवं कुरीतियों पर इस अधिवेशन में चर्चा होगी तथा सर्वसम्मति या बहुमत से इन्हें मिटाने के लिए कुछ निर्णय लिए जायेंगे।
30.3          इस अधिवेशन में लिए गए निर्णयों को क़ानून के बराबर का दर्जा दिया जाएगा और इसके द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों तथा जुर्मानों का सरकारी विभागों द्वारा कड़ाई से पालन किया जाएगा।
30.4          सरकार अपनी ओर से सरकारी नौकरी के इच्छुकों से दहेज़ नही लेने/देने का शपथपत्र भरवायेगी और इसका उल्लंघन होने पर सम्बंधित युवा को सरकारी नौकरी के योग्य नहीं ठहराया जाएगा या नौकरी से निकाल बाहर किया जाएगा। (सामाजिक संस्थाओं को दहेज के लेन-देन की खबर पुलिस में देने के लिये कहा जायेगा।)
30.5          किसी भी समारोहखासकर- विवाह समारोहों में खर्च के मामले में परिवार की सम्मिलित वार्षिक आय से अधिक राशि खर्च नहीं करने की सीमा निर्धारित की जाएगी और उल्लंघन करनेवाले परिवार के सभी कमाऊ सदस्यों को जेल की सजा दी जाएगी। (खान-पानसाज-सज्जास्त्रीधन और उपहारों का खर्च जोड़कर विवाह समारोह या किसी भी समारोह का खर्च निकाला जाएगा।)
30.6          सरकार की ओर से (बेशक, सरकारी खर्च पर) प्रखण्ड स्तर पर सामूहिक विवाह की एक परम्परा शुरु की जायेगी, जिसके तहत 'शरद पूर्णिमा' की रात युवक-युवती परिचय सम्मेलन तथा इसके प्रायः तीन महीनों बाद 'बसन्त पँचमी' के दिन शुभ-विवाह का आयोजन किया जायेगा। (इसके लिए प्रत्येक प्रखण्ड में बाकायदे सामुदायिक भवन बनवाये जायेंगे और इस कार्यक्रम में उन सामाजिक संगठनों का सहयोग लिया जायेगा, जो "जात-पाँत" पर आधारित न हों।)
(http://khushhalbharat.blogspot.in/2009/11/blog-post_21.html)

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

107. 'घोषणापत्र' के क्रियान्वयन की शुरुआत...?



       मेरे 'घोषणापत्र' का एक छोटा-सा अध्याय है- 'आम रिहाई', जिसमें तीन घोषणायें हैं:
38.1          संगीन अपराधों के अभियुक्तों, दोषियों और आदतन अपराधियों, हिस्ट्रीशीटर को छोड़कर शेष समस्त कैदियों को जेलों से रिहा किया जाएगा।
38.2          रिहाई कई चरणों में हो सकती है- जैसे, बीमार, बुजुर्ग, महिला, नाबालिग़, विचाराधीन इत्यादि।
38.3          आम रिहाई पाने वालों के पुनर्वास के लिए सरकार विशेष ध्यान देगी। (अध्याय 4: सबके लिए रोजगार, अध्याय 21: बेसहारों के लिए।)
       खुशी की बात है कि हमारी सरकार "विचाराधीन" कैदियों की रिहाई के लिए गम्भीर हो गयी है- ऐसी एक खबर आज के अखबार में है। दरअसल, जो गरीब अभियुक्त छोटे-मोटे अपराधों में जेलों में बन्द होते हैं, वे उन अपराधों के लिए तय सजा से कहीं ज्यादा समय जेलों में बिता लेते हैं। क्योंकि एक तो उनके पास जमानत के पैसे नहीं होते; दूसरे, वकील रखने के पैसे नहीं होते; तीसरे, वकील भी उनका आर्थिक शोषण करते हैं; चौथे, उनकी पहुँच य पैरवी नहीं होती; और पाँचवे, न्यायाधीशगण उनके प्रति 'विवेक' एवं 'मानवता' नहीं दिखलाते।
       काश, कि राजनीतिक दल एक-एक कर इन घोषणाओं को अमली जामा पहनाना शुरु कर दें!

       2003 में इस 'घोषणापत्र' को पुस्तिका के रुप में प्रकाशित करने के बाद डाक द्वारा और 2009 में इसे ऑनलाईन बनाने के बाद मैंने ई'मेल द्वारा देश के सभी प्रमुख रजनीतिक दलों के पास भेजा था, पर सबने इसे कचरा ही समझा होगा।