रविवार, 30 दिसंबर 2012

औपनिवेशिक भारत बनाम आज का भारत: संक्षिप्त तुलना



(कुछ दिनों पहले फेसबुक पर यह सवाल उठाया गया था कि जब यहाँ वर्तमान सरकार के खिलाफ इतना गुस्सा है, तो इस पार्टी को, इसके नेताओं को चुनाव में जिताकर सरकार बनाने का मौका भला कौन देता है? उस सवाल को मैंने याद रखा था। आज सोचा और लिखा इसपर।)  
औपनिवेशिक भारत में जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा ऐसा रहा होगा, जो परम्परागत सिद्धान्त “कोउ नृप भये हमे का हानि” (कोई भी राजा हो, हमें क्या फर्क पड़ता है?) के सिद्धान्त पर चलते हुए शासन-प्रशासन के मामले में निस्पृह, तटस्थ रहता होगा। लगभग 35 प्रतिशत जागरुक भारतीयों का वर्ग ब्रिटिश राज का समर्थक रहा होगा- इसमें से 20 प्रतिशत तो ऐसे रहे होंगे, जो नौकरी, जमीन्दारी इत्यादि के कारण समर्थक रहे होंगे, बाकी 15 प्रतिशत खालिस चापलूस रहे होंगे, जिन्हें अगर अनुमति मिल जाती, तो वे सही में किसी अँग्रेज के पैरों से जूते-मोजे उतारकर उनके तलवों को चाटने लगते!
      इनके मुकाबले 5 प्रतिशत (40 करोड़ का 5 प्रतिशत 2 करोड़ बैठता है) भारतीय ही ऐसे रहे होंगे, जिन्हें लगता होगा कि इस साम्राज्य का एक दिन पतन होगा और भारत आजाद होगा। इनमें भी सिर्फ 1 प्रतिशत ही ऐसे रहे होंगे, जो आजादी के लिए “सरफरोशी” की तमन्ना अपने दिलों में रखते होंगे।
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      आज के भारत में भी वही स्थिति है- बस सन्दर्भ बदल गये हैं। लगभग 70 आबादी तटस्थ रहती है- इसमें से आधे तो मतदान में भाग लेते ही नहीं, बाकी आधे ‘लहरों पर सवार होकर’ मतदान करते हैं। जब लहर न हो, तो उम्मीदवार की जाति या धर्म देखकर, या फिर, ‘पार्टी लाईन’ के तहत मतदान करते हैं- बिना यह देखे कि उम्मीदवार पर चोरी-डकैती-हत्या-बलात्कार-भ्रष्टाचार के कितने आरोप लगे हैं!
      35 प्रतिशत लोग जागरुक जरुर हैं, मगर उनकी जागरुकता देश के किसी काम की नहीं, क्योंकि वे किसी पार्टी, किसी नेता, या किसी नेती के अन्ध समर्थक होते हैं। उनकी पार्टी जो भी नीति अपनायेगी, उसे वे येन-केन-प्रकारेण सही साबित करेंगे। इन्हीं में से 15 प्रतिशत चापलूस होते हैं, जो अनुमति मिलने पर खुले-आम अपने नेता या नेती के तलवे चाटने लगेंगे!
      इनके मुकाबले 5 प्रतिशत भारतीय ही ऐसे होंगे, जो देश की बदहाली से दुःखी हैं, जो यह मानते हैं कि सभी राजनेता आपस में मौसेरे भाई हैं और सत्ता मिलने पर सभी एक जैसे हो जाते हैं।
      इनमें भी सिर्फ 1 प्रतिशत ही ऐसे हैं, जो यह मानते हैं कि 15 अगस्त 1947 को जो सत्ता-हस्तांतरण हुआ था, उसकी शर्तों के तहत उसी व्यवस्था को इस देश में लागू रखा गया, जिसे अँग्रेजों ने एक “उपनिवेश” पर “राज” करने के लिए बनाया था। ये 1 प्रतिशत लोग ही “लीक से हटकर” सोचने की हिम्मत रखते हैं, सड़ी-गली व्यवस्था को दफनाकर नयी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं।
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      औपनिवेशिक काल में लगभग 95 प्रतिशत भारतीय यह मानकर चल रहे थे कि ब्रिटिश साम्राज्य एक महान एवं शक्तिशाली साम्राज्य है, इसे पराजित करना असम्भव है और यह भारत में अभी सैकड़ों-हजारों वर्षों तक कायम रहेगा। मगर परिस्थितियाँ बदलीं और आधी दुनिया पर राज करने वाले ब्रिटेन की हैसियत आज अमेरिका के पालतू कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है। अमेरिका जिसकी तरफ उँगली उठाता है, ब्रिटेन उसपर भौंकने लगता है। आज खुद ब्रिटिश अपने साम्राज्यवादी अतीत पर शर्मिन्दा हैं! तभी तो चार-छह महीने पहले लन्दन के उस संग्रहालय को बन्द कर दिया गया, जिसे नयी पीढ़ी को साम्राज्यवादी गौरव से परिचित कराने के उद्देश्य से बनाया गया था।
      ठीक इसी प्रकार, आज 95 भारतीयों को लगता है कि कुछ नहीं बदलने वाला है, साँप और नाग बारी-बारी से (बेशक, अन्यान्य छोटे साँपों की मदद से) देश पर शासन करते रहेंगे, और सब कुछ यूँ ही चलते रहेगा। मगर मैं देख सकता हूँ कि वह दिन दूर नहीं है, जब सारे-के-सारे बड़े भ्रष्टाचारी- चाहे वे राजनेता हों या उच्चाधिकारी, पूँजीपति हों या माफिया- निकोबार के किसी निर्जन टापू पर निर्वासित जीवन बिता रहे हैं... और देश खुशहाली के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है (ध्यान रहे- ‘खुशहाली’, ‘विकास’ नहीं!)
      साल 2012 ने जाते-जाते इस संक्रमण की शुरुआत कर दी है... बेशक, “दामिनी” के बलिदान को इस बदलाव के “तात्कालिक कारण” के रुप में इतिहास में सदा के लिए दर्ज किया जायेगा।
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      हाँ, मैं तो “1 प्रतिशत” वाली श्रेणी में खुद को रखता हूँ... आप अपना स्थान देख लें...   

बदलाव “ऊपर से” आयेगा, न कि “नीचे से”



      बहुत-से विचारक मान रहे हैं कि “समाज” में बदलाव पहले आयेगा, तब “ऊपर” व्यवस्था बदलेगी। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि नीचे से आप बहुत छोटा-सा तथा बहुत छोटे-से क्षेत्र में बदलाव ला सकते हैं (जैसे कि अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि तथा आसपास के गाँवों में बदलाव लाया है); देश भर में बड़े बदलाव लाने के लिए एक “देशभक्त, ईमानदार तथा साहसी” नायक के हाथ में सत्ता होना अनिवार्य है। (ध्यान रहे, उसे समय पर “कठोर” भी होना पड़ेगा- सिर्फ “विनम्रता” से बात बिगड़ जायेगी, जैसा कि लालबहादूर शास्त्रीजी के साथ हुआ था।)
      दो उदाहरणों से मेरी बात स्पष्ट हो सकती है-
1.  सिंगापुर- जहाँ का प्रशासन, जहाँ की न्यायिक व्यवस्था चुस्त है- में जाकर भारतीय भी अनुशासित हो जाते हैं- ऐसा क्यों? वही भारतीय स्वदेश लौटने पर कानून-व्यवस्था को फिर ठेंगा दिखाने लगते हैं। जाहिर है, यहाँ व्यवस्था न केवल लचर है, बल्कि भ्रष्ट भी है। प्रसंगवश, सिंगापुर में जब एक अमेरीकी किशोर को ‘बेंत से पिटाई’ (कैनिंग) की सजा मिली थी, तब अमेरीकी राष्ट्रपति ने भी माफी की गुहार लगायी थी, मगर वहाँ की न्यायपालिका नहीं झुकी और सजा का पालन हुआ। (पिछले हफ्ते ‘प्रभात खबर’ के सम्पादक हरिवंश जी ने इसकी विस्तृत व्याख्या की थी।) 
2.  बचपन से हम सुनते आये हैं कि फलां एस.पी. या फलां थानेदार जब यहाँ था, तो यहाँ अपराध बन्द हो गये थे। यही बात टीवी पर एक विचारक भी पिछले दिनों कह रहे थे। ऐसे किस्से आजतक प्रचलित हैं। ताजा उदाहरण हैं बिहार के अररिया जिले के एस.पी. शिवदीप लाण्डे। उनके नाम से अपराधी थर्राते हैं। इतिहास से भी उदाहरण लिया जा सकता है- कहते हैं कि शेरशाह सूरी के जमाने में अपराध नहीं होते थे। क्या पहले “जनता” बदली थी तब “शेरशाह” आया था? नहीं, पहले शेरशाह शासक बना और तब जनता- मतलब अपराधी- सुधर गये थे।
कहने का तात्पर्य, हमें पहले “शासन प्रणाली” को बदलना होगा- बाकी प्रणालियाँ इसी के साथ सुधरने लगेंगी। दुर्भाग्य से, आज शासन प्रणाली बदलने की बात वही सोच सकते हैं, जो इस देश को “महान लोकतंत्र” नहीं मानते, जो संविधान को “पत्थर की लकीर” या “ब्रह्म वाक्य” नहीं मानते... और ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है!  

खाकी तथा खादी के बीच गठजोड़: माजरा क्या है?


  
      पिछले दो दिनों से मेरे दिमाग में यह सवाल उमड़-घुमड़ रहा था कि पुलिसवाले इन खादीधारियों (हालाँकि अब खादी पहनने का चलन नहीं है- इसे मुहावरे के रुप में लिया जाय) को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी भला क्यों लगा देते हैं?
      इस प्रश्न का उत्तर ‘फेसबुक’ पर मिला। एम.एस. राणा बताते हैं कि मणिपुर की मनोरमा के गुनहगारों को बचाने के लिए भारत सरकार मुकदमा लड़ रही है- बारह साल बीत गये- न्याय के लिए अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की हड्डियाँ गलने लगी हैं इन बारह वर्षों में, मगर सरकारों का मन नहीं गला! उड़ीसा की आरती मांझी के गुनहगारों को बचाने के लिए सरकार मुकदमा लड़ रही है- और आरती जेल में है! छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी के गुनहगारों को बचाने के लिए भी सरकार मुकदमा लड़ रही है- सोनी खुद जेल में है! प्रशान्त भट्ट जानकारी देते हैं कि सोनी ने जिस पुलिसवाले के खिलाफ आरोप लगाया था, उसे राष्ट्रपति ने पुलिस मेडल से सम्मानित किया है।  
ये बहुचर्चित काण्ड हैं। इनके अलावे हजारों ऐसे मामले हैं, जहाँ पुलिसवालों द्वारा जघन्य से भी जघन्य अपराध किये जाते हैं (बहुत पहले कहीं पढ़ा था- एक थाने में माँ-बेटे को नंगा करके बेटे को माँ के ऊपर लेटने को विवश कर दिया गया था!) और हर मामले में सरकार पुलिसवालों को बचाने के लिए जमीन-असमान एक कर देती है।
नेताओं की, सरकार की, व्यवस्था की इस प्रवृत्ति के बदले में ही शायद ये पुलिसवाले इनकी रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाते हैं। सोचिये, कि देश की जनता का हर हिस्सा, सरकार का प्रायः हर विभाग कभी-न-कभी सरकार की किसी-न-किसी नीति के खिलाफ अपना विरोध जता चुका है- यहाँ तक कि सेनाध्यक्ष को इस साल अदालत में जाना पड़ा, मगर पुलिसवालों ने कभी सरकारों की किसी नीति का कभी विरोध नहीं किया- जबकि पुलिसवालों की ‘यूनियन’ भी है!
शायद बहुतों को बुरा लगे, मगर यह एक कड़वी सच्चाई है कि गृहमंत्री रहते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भी पुलिस की “मानसिकता” को बदलने की कोशिश नहीं की थी। पुलिसवालों के लिए आज भी देश उपनिवेश है, नेता ‘शासक’ हैं, जनता ‘शासित’ और शासितों पर डण्डे के जोर पर हुकुम चलाना उनका ‘कर्तव्य’ है।
आज देशभक्त और ईमानदार पुलिसवालों को या तो आत्महत्या करनी पड़ती है, या फिर, वे बिना महत्व वाले पदों पर अपनी पोस्टिंग करा लेते हैं। साहसी पुलिसवाले बहुत कम रह गये हैं, जो खादीधारियों की परवाह नहीं करते हैं।  

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

जनाक्रोश’ दिसम्बर’12: तीन निष्कर्ष



घटना- 16 दिसम्बर 2012 की रात राजधानी दिल्ली में एक चलती बस में 6 दरिन्दे मिलकर एक युवती के साथ जो वहशियाना हरकत करते हैं, उसे दुनिया की सबसे दर्दनाक, शर्मनाक और खौफनाक घटनाओं में से एक गिना जाना चाहिए।
निष्कर्ष- हम हिन्दुस्तानियों के- बल्कि हम इन्सानों के- नैतिक एवं चारित्रिक पतन की यह पराकाष्ठा है। अब हमें अपने तथा अपनी आने वाली नस्लों के नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के प्रति सचेत हो जाना चाहिए।
नोट- आज की सरकारें, आज के राजनेता सिर्फ और सिर्फ “विकास दर” को लेकर चिन्तित रहते हैं; उन्हें देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक वातावरण की कोई परवाह नहीं है। देश की राजनीतिक सोच में बदलाव लाने की जरुरत है- क्योंकि यहीं से सारे बदलाव के रास्ते निकलते हैं।  
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घटना- इस शर्मनाक घटना के बाद हफ्ते भर तक देश का जनमानस उबलता रहता है, मगर हमारे प्रधानमंत्री के मुँह से अफसोस का एक बोल नहीं फूटता है- भरोसा दिलाना तो दूर की बात है। जब जनप्रदर्शन उग्र रुप धारण करता है, तब वे बोलते हैं- वह भी जगहँसाई वाले अन्दाज में।
निष्कर्ष- वर्तमान प्रधानमंत्री को चूँकि जनता ने नहीं चुना है, इसलिए जनता से संवाद करना वे जरुरी नहीं समझते हैं। समय आ गया है कि हम सीधे नागरिकों द्वारा 5 वर्षों के लिए प्रधानमंत्री के चयन के बारे में सोचें- चाहे इसके लिए संविधान ही क्यों न बदलना पड़े।
नोट- संविधान का दो-तिहाई (यानि 70 फीसदी) हिस्स “1935 का अधिनियम” है, जिसे अँग्रेजों ने एक “उपनिवेश” पर शासन-प्रशासन करने के लिए बनाया था, न कि एक “स्वतंत्र” देश पर। इस लिहाज से, संविधान को तो ऐसे भी बदलने की जरुरत है।  
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घटना- शनिवार 22 दिसम्बर को ‘इण्डिया गेट’ पर प्रदर्शन कर रहे युवा, जिनमें लड़कियों की बड़ी तादात होती है- किंग्स रोड पर आगे बढ़ते हुए वायसराय हाउस की ओर बढ़ने की कोशिश करते हैं। वायसराय महोदय अगर चाह्ते, तो उन्हें वायसराय भवन तक आने दे सकते थे, उनसे ज्ञापन ले सकते थे, दुःख के दो शब्द बोल सकते थे, मगर वे ऐसा नहीं करते हैं। प्रतिनिधिमण्डल तक को नहीं बुलाते हैं। उल्टे इन युवाओं पर पुलिस द्वारा बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की जाती है।
निष्कर्ष- समय आ गया है कि हम दिल्ली में वायसराय तथा राज्यों में लाट साहबों के पदों को समाप्त करने पर विचार करें, चाहे इसके लिए “कॉमनवेल्थ” (राष्ट्रमण्डल) की सदस्यता का परित्याग ही क्यों न करना पड़े! ये दिखावे वाले बेकार पद हैं और इन्हें कायम रखने में प्रतिमिनट देश का करोड़ों रुपया खर्च होता होगा।
नोट- राष्ट्रमण्डल, यानि कॉमनवेल्थ की सदस्यता का अर्थ यह हुआ कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक डोमिनियन स्टेट है- आधा स्वतंत्र, और तकनीकी रुप से यहाँ के राष्ट्रपति यानि वायसराय ब्रिटिश राजमुकुट का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस लिहाज से, राष्ट्रमण्डल से तो ऐसे भी भारत को त्यागपत्र देना चाहिए और सत्ता-हस्तांतरण की शर्तों को मानने से इन्कार कर देना चाहिए। अगर राष्ट्रपति और राज्यपालों का पद जरुरी हुआ, तो भारतीय ढंग के, कम खर्चीले, बिना आडम्बर वाले ऐसे पद बनाये जा सकते हैं।
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‘न्यायिक आयोग’ से ‘देश की नियति’ तक: एक विचार-प्रवाह



      बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि एक पश्चिमी राजनीतिक विश्लेषक ने ‘आयोगों” की तुलना ‘धड़ाका करने’- देशी भाषा में कहें, तो पखाना करने- से की थी। पहले दवाब बनता है, फिर आवाज होती है, फिर एक ‘धड़ाक्’, और फिर... अगले दिन प्रेशर बनने तक तसल्ली!
      आयोगों के मामले में भी वही होता है- पहले जनता का आक्रोश और दवाब, फिर नारेबाजी और लाठीचार्ज-गोलीबारी, फिर आयोग का गठन, और फिर... अगला आक्रोश पैदा होने तक राहत!
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      इस बार मामला संगीन है, इसलिए हो सकता है कि कुछ गम्भीर परिणाम सामने आ जायें, मगर 1947 के बाद से आयोगों तथा उनकी रपटों का जो हश्र हुआ है, उसे देखते हुए भरोसा नहीं हो रहा है।
      हो सकता है कि वर्तमान दोनों आयोगों के कार्यकाल दो-तीन बार बढ़ाना पड़े। जब सरकार को इसकी रपट मिल जाय, तो सरकार इस पर कुण्डली मारकर बैठ जाये! जनता का दवाब पड़ने पर इसे संसद की पटल पर रखा जाय और अपनी आदतों को मुताबिक संसद को मछली बाजार बनाते हुए सांसद इस पर चर्चा करें, जिससे कोई निष्कर्ष न निकले। अन्त में, इसके विधिवत् अध्ययन के लिए एक ‘संसदीय समिति’ बना दी जाय, जो अध्ययन करते-करते सो जाये। जनता का दवाब पड़ने पर वह सरकार को रिपोर्ट दे और सरकार उसपर कार्रवाई के लिए ‘उच्च अधिकार प्राप्त मंत्री समूह’ बना दे। मंत्री समूह एक पंक्ति में निम्न ‘गोपनीय’ रिपोर्ट सरकार को दे- “बलात्कार तथा यौन-अपराधों से जुड़े मामलों की ‘त्वरित’ सुनवाई तथा इनके लिए ‘कठोर’ सजा हम राजनेताओं की सेहत के लिए हानिकारक होगा।” ...और फिर सरकार आयोगों की रपटों को खारिज कर दे, या इन्हें ठण्डे बस्ते में डाल दे!
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      तब तक चुनाव आ जायेंगे और हो सकता है कि जो भारतीय इस जघन्य घटना पर आज आक्रोशित हो रहे हैं, वे ही राजनेताओं की रैलियों में उमड़ने लगें; राजनेताओं या उनकी औलादों के चेहरे देखकर अपना ‘गधा-जनम’ छुड़ाने लगें; अपनी पार्टी को देखकर या जाति, उपजाति, धर्म के आधार पर उम्मीदवारों को वोट देने के लिए लाईन में लग जायें- बिना यह देखे कि पिछले पाँच वर्षों से यह कहाँ था, इसके ऊपर बलात्कार के दर्जनों आरोप क्यों लगे हैं, इसकी सम्पत्ति पिछले दिनों सौ-दो सौ गुना कैसे बढ़ गयी!
      फिर सांसदों की मण्डी सजेगी; जोड़-तोड़ से सरकार बनेगी; सभी अपराधी-माफिया, सभी उद्योगपति-पूँजीपति, सभी बे-ईमान-भ्रष्ट अफसर, सभी देशी-विदेशी दलाल इस नयी सरकार को अपने अनुसार ढाल लेंगे... और पुराना ढर्रा फिर चल पड़ेगा!
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      अब चाहें महात्मा कबीर आ जायें अपनी वाणी लेकर या स्वामी विवेकानन्द आ जायें अपना वेदान्त-उद्घोष लेकर; चाहे भगत सिंह आ जायें अपना बम लेकर या नेताजी सुभाष आ जायें अपनी आज़ाद हिन्द फौज़ लेकर- इस देश के लोगों की “भारतीयता” को वे नहीं जगा पायेंगे, जो समुद्रगुप्त के जमाने में, चन्द्रगुप्त-अशोक के जमाने में, विक्रमादित्य-हर्षवर्द्धन के जमाने में पायी जाती थी... जब ज्ञान और आध्यात्म के क्षेत्र में, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में, कला और संगीत के क्षेत्र में, सुख और समृद्धि के क्षेत्र में, शासन और प्रशासन के क्षेत्र में, शौर्य और वीरता के क्षेत्र में भारत का डंका दुनियाभर में बजा करता था!
      पहले तो ‘बौद्ध-जैन धर्मों की करूणा और दया’ ने, फिर (इन्हीं के फलस्वरुप) ‘हजार वर्षों की गुलामी’ ने, और फिर अन्त में, (ताबूत की आखिरी कील के समान) ‘गाँधीजी की अहिंसा’ ने इस कौम को गहरी नीन्द में सुला दिया है! अब कोई देश यहाँ परमाणु बम भी फेंक दे, तो इस कौम की तन्द्रा शायद न टूटे- हमारी-आपकी लेखनी की बिसात ही क्या है!
      ...तो यही इस देश की नियति है।
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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

मैं तो "चमत्कार" की आशा रखने लगा हूँ, और आप?


5 जुलाई, 1943 को आजाद हिन्द फौज की सलामी लेने के बाद नेताजी ने जो भाषण दिया था, उसका छोटा-स अंश-
“...अपने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में मैंने यही अनुभव किया है कि यूँ तो भारत आज़ादी पाने के लिए हर प्रकार से हकदार है, मगर एक चीज की कमी रह जाती है, और वह है- अपनी एक आज़ादी की सेना। अमेरिका के जॉर्ज वाशिंगटन इसलिए संघर्ष कर सके और आज़ादी पा सके, क्योंकि उनके पास एक सेना थी। गैरीबाल्डी इटली को आज़ाद करा सके, क्योंकि उनके पीछे हथियारबन्द स्वयंसेवक थे। यह आपके लिए अवसर और सम्मान की बात है कि आपलोगों ने सबसे पहले आगे बढ़कर भारत की राष्ट्रीय सेना का गठन किया। ऐसा करके आपलोगों ने आज़ादी के रास्ते की आखिरी बाधा को दूर कर दिया है। आपको प्रसन्न और गर्वित होना चाहिए कि आप ऐसे महान कार्य में अग्रणी, हरावल बने हैं।..."
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नेताजी न केवल प्रखर देशभक्त थे, बल्कि प्रबुद्ध राजनीतिज्ञ भी थे। हालाँकि परिस्थितियों ने कभी उनका साथ नहीं दिया। पहले गाँधीजी ने (नेहरूजी को स्थापित करने के लिए) नेताजी को काँग्रेस छोड़ने पर विवश किया; फिर स्तालिन ने उन्हें सैन्य सहयोग नहीं दिया (स्तालिन नाज़ी आक्रमण का अनुमान लगा चुके थे शायद- हिटलर से सन्धि होने के बावजूद); हिटलर भी नेताजी के इण्डियन लीज़न के साथ जर्मन सेना की टुकड़ियों को रवाना करने से कतराते रहे; जापान ने नेताजी को बुलाने में अनावश्यक रुप से देर की; जब अँग्रेजों पर आक्रमण किया भी, तो इम्फाल के रास्ते- ताकि जापानी सेना अमेरीका द्वारा बनवायी जा रही "लीडो" सड़क को नष्ट कर सके; जबकि भारत की आजादी के लिए जापानी सेना को चटगाँव के रास्ते भारत में प्रवेश करना था (मेरा यह अनुमान गलत भी हो सकता है- हो सकता है, नेताजी ने भी इम्फाल वाले कठिन रास्ते को ही सही माना हो); ...और अन्त में फिर स्तालिन ने नेताजी को सैन्य मदद नहीं दी।
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खैर, मगर नेताजी का अनुमान सही साबित हुआ। उनकी योजना थी- जैसे ही आजाद हिन्द फौज और जापानी सेना भारत पर चढ़ाई करे, ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान तथा नागरिक एक साथ बगावत कर दें। बगावत हुई भी- मगर बाद में- जब आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों का कोर्ट मार्शल चल रहा था- लाल किले में। भारतीय सेना के बागी होने के बाद जाकर अँग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया- वर्ना सविनय अवज्ञा से लेकर भारत छोड़ो तक किसी भी नागरिक आन्दोलन के दौरान उन्होंने भारत छोड़ने पर विचार नहीं किया था।
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खैर, आज भी हम गुलामी के दौर से गुजर रहे हैं- भ्रष्टाचारी, बे-ईमान लोग हम पर शासन कर रहे हैं, और हम इनसे आजादी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष तभी सफल होगा, जब इसे पीछे-से एक शक्तिशाली सेना की मदद मिले, वर्ना ये बिना दिल, बिना दिमाग वाले पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बल वाले किसी भी जनान्दोलन को कुचल देंगे।
यह आलेख मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि मैं सफाई दे सकूँ कि मैं बार-बार “जनान्दोलन को भारतीय थलसेना का नैतिक समर्थन हासिल रहना चाहिए”- ऐसा क्यों कहता हूँ; मैं क्यों कहता हूँ कि जेनरल वी.के. सिंह को भारत सरकार तथा भारत की न्यायपालिका के खिलाफ जाते हुए पद छोड़ने से इन्कार करना चाहिए था। यह “संक्रमण” का दौर है, भारत बदहाली से निकल कर खुशहाली की ओर कदम बढ़ाने ही वाला है। बेशक, आन्दोलन नागरिक ही करेंगे, मगर उन्हें एक शक्तिशाली संस्था का नैतिक समर्थन जरुर चाहिए।
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आज मुझे नहीं पता, क्या होने वाला है। क्या दो-एक साल में देश की व्यवस्था बदलेगी? क्या यह आन्दोलन एक देशव्यापी जनान्दोलन का रुप लेगा? क्या सत्ताधारी और सभी राजनेता इसके सामने घुटने टेकेंगे? या फिर, फिर वही ढाक के तीन पात हो जायेंगे... ?
31 मई, 2012 को जिस दिन जेनरल वी.के. सिंह ने इस्तीफा दिया, मैं उसी दिन से किसी “चमत्कार” (अप्रत्याशित घटनाक्रम) की आशा रखने लगा हूँ। पता नहीं, आप में से कितने मेरी भावनाओं से सहमत होंगे।
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रविवार, 23 दिसंबर 2012

"संक्रमण की चरम स्थिति"?


पिछले दिनों मैं बार-बार यह महसूस कर रहा था कि 31 मई को जेनरल वी.के. सिंह को अपना पद नहीं छोड़ना चाहिए- उन्हें एक साल और सेनाध्यक्ष के पद पर बने रहना चाहिए। इससे सरकार तथा तमाम राजनीतिज्ञों के दिलो-दिमाग पर एक खौफ, एक भय बना रहता और वे “जनविरोध” में एक सीमा से आगे जाने का साहस नहीं कर पाते। मुझे भरोसा था कि साल 2012 में भारत में व्यवस्था-परिवर्तन का दौर शुरु होकर रहेगा- परिवर्तन के लिए सड़कों पर तो जनता ही उतरेगी, मगर चूँकि पुलिस बल उन्हें खदेड़ सकते हैं, इसलिए सेना का “नैतिक” समर्थन इस जनान्दोलन को हासिल रहना जरूरी है।
मगर उन्होंने पद छोड़ दिया... और अब देखिये, जनता का आन्दोलन कितना भी व्यापक हो जाय, सरकार तथा राजनेता (ये गली के कुत्तों के तरह एकजुट हो जाते हैं- जब भी जनता सड़कों पर उतरती है) पुलिस और अर्द्धसैन्य बलों की मदद से उन्हें कुचल ही देगी! रामदेव-अन्ना से हम ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते- इनमें इतना “नैतिक साहस” नहीं है कि किसी आन्दोलन को “अन्जाम” तक पहुँचा सकें। इस वक्त सिर्फ और सिर्फ भारतीय थलसेना का मौन या नैतिक समर्थन जनता के मनोबल को कायम रख सकता है और वर्तमान सेनाध्यक्ष के रहते यह सम्भव नहीं दीखता। हाँ, पूर्व जेनरल वी.के. सिंह अगर आह्वान कर दें, तो अलग बात है।
ध्यान रहे- मैं सारे देश में “आमूल-चूल परिवर्तन” का समर्थक हूँ और उसी की बात कर रहा हूँ। इतिहस गवाह है कि हर बड़े बदलाव का एक “तत्कालिक” कारण होता है- यहाँ “दामिनी काण्ड” को वही तात्कालिक कारण बनाकर जनता चाहे, तो देश की राजनीति को पूरी तरह से बदल सकती है। जब मैं “पूरी तरह से” कह रहा हूँ, तो इसका अर्थ यही है- “पूरी तरह से”! राजनीति बदलने के बाद अँग्रेजों की दी हुई पुलिस प्रणाली, न्याय प्रणाली, प्रशासनिक व्यवस्था, इत्यादि सबको बदलना होगा- क्योंकि इन प्रणालियों-व्यवस्थाओं का जन्म एक “उपनिवेश” पर शासन करने के लिए हुआ था।
मुझे लगता है, संक्रमण का दौर चरम स्थिति में पहुँचने वाला है।
...और अगर इस बार भी जनान्दोलन, जनाक्रोश बेकार चला गया, तो कोई बात नहीं, 2014 के आम चुनाव के वक्त एकबार फिर कोशिश की जायेगी!  

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

गैंगरेप के बहाने- फ्लैशबैक में- न्यायप्रणाली


      पुरानी घटना है- लगभग 25-30 साल पुरानी। बलात्कार के एक आरोपित को बाइज्जत बरी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय कुछ इन शब्दों में फैसला सुनाते हैं-
      “यह अदालत जान रही है कि आरोपित ने अपराध किया है; मगर चूँकि पुलिस ने कमजोर आरोप-पत्र दाखिल किया है, इसलिए हम उसे रिहा करने के लिए बाध्य हैं। हमें आरोपित को रिहा करते हुए अफसोस हो रहा है, और हम पुलिस को निर्देश देते हैं कि भविष्य में वह ऐसे मामलों में पर्याप्त अनुसन्धान करते हुए पर्याप्त सबूतों के साथ आरोप-पत्र दाखिल किया करे।”
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      यह दूसरी घटना भी लगभग उतनी ही पुरानी है। एक बालिका के साथ एक वकील यौन-दुराचार करते हैं। स्वाभाविक रुप से, पुलिस उनपर ‘बलात्कार’ की धारा लगाकर उन्हें अदालत में पेश करती है। अदालत में वकील साहब तर्क देते हैं कि कानून में बलात्कार की “परिभाषा” देखी जाय- उन्होंने पीड़िता की “योनि” में अपने “लिंग” का प्रवेश कराया ही नहीं है, तो फिर “बलात्कार” का आरोप कैसे? जाहिर है, वकील साहब ने अपने लिंग के स्थान पर किसी और वस्तु की मदद से बालिका के साथ यौन-दुराचार किया था।  
      न्यायाधीश महोदय “बलात्कार” की “परिभाषा” को “शब्दशः” पढ़कर देखते हैं और आरोपित वकील की “विद्वता” एवं “कार्य-कुशलता” से “चमत्कृत” होते हुए उन्हें बाइज्जत बरी कर देते हैं।
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      उपर्युक्त दोनों घटनायें सच्ची हैं। भले मैंने अखबारों से इन खबरों की कतरन काटकर नहीं रखी है, न ही मैंने इनके ब्यौरों को डायरी में नोट कर रखा है, मगर मेरा यकीन कीजिये- ये दोनों घटनायें इस देश में घटी हैं और अखबारों में इनकी खबरें छपी हैं। मेरा किशोर मन इन खबरों से बहुत विचलित हुआ था- तभी तो ये मेरे दिलो-दिमाग में अंकित हैं!  
      हालाँकि यह भी सच है कि दूसरे उदाहरण में उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिय था कि कानून की “भावना” देखी जानी चाहिए, न कि उसके “शब्दों” को; मगर मुझे पता नहीं है कि आगे चलकर सर्वोच्च-न्यायालय ने उच्च-न्यायालय के फैसले को पलटा था या नहीं। क्योंकि अपने यहाँ ऐसा अक्सर होता है।
      कुछ और भी पुरानी खबरें हैं, जिन्हें पढ़कर मेरा मन उद्वेलित हुआ था और जिस कारण वे मुझे याद रह गयी हैं।
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      जमशेदपुर में एक वकील की गर्भवती पत्नी के साथ बलात्कार होता है- सड़क पर- कार से उतारकर। तब वहाँ के सभी वकील एक होकर फैसला लेते हैं- कोई बलात्कारी की पैरवी नहीं करेगा!
      यानि अगर हम चाहें कि अदालतों में वकील समुदाय बलात्कारियों को “मासूस” व पीड़िता को “बदचलन” साबित न किया करें, तो इसके लिए पीड़िता को किसी वकील की बहन, बेटी या पत्नी होना पड़ेगा, अन्यथा उसकी खैर नहीं- अदालत में उसकी इज्जत का तार-तार होना तय है!
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      इलाहाबाद में संगम के तट पर एक ग्रामीण युवती जब गंगाजी में डुबकी लगाकर बाहर आती है, तो उसके कपड़े गायब थे- चोरी हो गयी होगी। तन ढकने के लिए वह किसी और के कपड़े पहन लेती है। उसपर चोरी का इल्जाम लगता है, मुकदमा चलता है और अँग्रेजों की दी हुई हमारी “महान” न्याय प्रणाली के “विद्वान” न्यायाधीश महोदय “मानवता” को, “परिस्थितियों” को दरकिनार करते हुए “चोर” को कई वर्षों की जेल की सजा सुना देते हैं। सजा तीन साल की थी या पाँच साल की याद नहीं, मगर वह “साल” में ही थी, “महीनों” में नहीं- इतना मुझे याद आ रहा है।
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      पूर्वोत्तर के किसी शहर की जेल में एक व्यक्ति 30-35 वर्षों से बन्द था। किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता की नजर इस गुपचुप रहने वाले कैदी पर पड़ती है; या फिर उसे कहीं से थोड़ी जनकारी मिलती है। वह तहकीकात करता है, तो पता चलता है कि उस व्यक्ति को कभी कोई सजा मिली ही नहीं थी! कभी पुलिस उसे “यूँ ही” “उठा” लायी होगी- किसी खाना-पूरी के लिए और बाद में उसे “छोड़ना” “भूल” गयी होगी। ...और उस बेचारे “आम आदमी” की जिन्दगी जेल में ही खप गयी।
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ये पुरानी खबरें हैं। इसके बाद हमने खूब तरक्की है। ताजा उदाहरण है- दिल्ली में चलती बस में हुआ बलात्कार- दरिन्दगी की सीमा को लाँघते हुए।     वैसे, यह चूँकि राजधानी में हुआ, इसलिए इसकी चर्चा हो रही है, वर्ना इससे भयानक हादसे इस देश में हो चुके हैं। आज ‘प्रभात खबर’ में सत्यप्रकाश चौधरी जी का छोटा-सा आलेख पढ़ा- सिहर गया। उन्हीं की कुछ पंक्तियाँ-
“छत्तीसगढ़ में एक शिक्षिका सोनी सोरी को नक्सलियों का हमदर्द बताकर पुलिस ने उसके गुप्तांगों में कंकड़ ठूँस दिये-”
“इसी साल अप्रैल में राँची में एक अधेड़ महिला मजदूर के साथ पहले सामूहिक दुष्कर्म किया गया, फिर उसके जननांग को शराब की बोतल फोड़कर क्षत-विक्षत कर दिया गया, अन्ततः उसने दम तोड़ दिया।”
      क्या हुआ इन मामलों में?
क्या हो रहा है बलात्कार के 40,000 मामलों में?? तारीख पर तारीख पड़ रही है... पुलिस वाले मोटी घूँस खाकर केस को कमजोर बना रहे हैं... वकील मोटी फीस लेकर बलात्कारी को मासूस व पीड़िता को बदचलन साबित कर रहे हैं... मजिस्ट्रेट मोटी से भी मोटी रकम डकार कर अभियुक्त को जमानत दे रहे हैं... और... पीड़िता तथा उसका परिवार टूट रहा है...
रेंगते-रेंगते कुछ मामले अंजाम तक पहुँचते भी हैं, तो देश की एक “महिला” राष्ट्रपति “वायसराय हाउस” छोड़ने से ऐन पहले सभी बलात्कारियों को क्षमादान देकर जाती हैं- कुछ इस अन्दाज में- मानो, वे महारानी विक्टोरिया हों!  
      अभी दिल्ली वाले मामले में गनीमत मनाईये कि अभियुक्त किसी अरबपति के शहजादे या नेता के भाई-भतीजे नहीं हैं। अगर ऐसा होता, तो अभी तीन महीनों तक पुलिस छापेमारी करती और उसके भारी जनाक्रोश के चलते अगर अभियुक्त समर्पण कर भी देते, तो काले कोट वालों की लाईन लग जाती उन्हें बेगुनाह और पीड़िता को बदचलन साबित करने के लिए!
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      अन्त में अपनी एक बात। सोच रखा था- 2012 के बाद भूल कर भी देश-दुनिया को बदलने की बातें नहीं सोचूँगा... अपने-आप में मगन रहने की नीति अपनाऊँगा। मगर साल के अन्त में इस खौफनाक घटना ने मुझे पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है... नहीं, मैं इस देश की व्यवस्था को बदल कर रहूँगा- चाहे मुझे और 4-5 साल कोशिश करनी पड़े!
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पुनश्च: (23/12)
मैं शर्मिन्दा हूँ कि इस आलेख में मैंने ऐसा लिखा कि “यह चूँकि राजधानी में हुआ, इसलिए इसकी चर्चा हो रही है, वर्ना इससे भयानक हादसे इस देश में हो चुके हैं।”
मैं गलत था, क्योंकि मेरी धारणा थी कि दरिन्दों ने लात-घूँसों से “दामिनी” के पेट पर वार किया होगा, इसलिए उसकी आँतें क्षतिग्रस्त हुई हैं। कल फेसबुक पर एक पोस्ट को पढ़कर (जिसे बाद में हटा लिया गया है शायद- मैं भी उसे साझा करने का साहस नहीं जुटा पाया था) पता चला कि लोहे के सरिये को उसके शरीर के अन्दर गहरे तक घुसाकर उसके आँतों को क्षतिग्रस्त किया गया है।
यह भारत ही नहीं, दुनिया का जघन्यतम अपराध है! इसके दरिन्दों को सजा देने के लिए हमारे कानून कम हैं- इन्हें अलग ढंग की सजा देनी ही पड़ेगी!

पुनश्च: (24.3.2017) 
पहले पाराग्राफ में वर्णित घटना के समाचार के कतरन को यहाँ प्रस्तुत किया गया

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मालदीव से ‘जी.एम.आर.’ का निष्कासन: भारत की “विदेश नीति” की विफलता




      ज्यादातर भारतीय मालदीव के इस फैसले को गलत ठहरायेंगे; मगर मैं नहीं, क्योंकि मैं खुद इस अवधारणा का कट्टर समर्थक हूँ कि भारत में स्वतंत्र रुप से जड़ें जमा चुकी सभी विदेशी/बहुराष्ट्रीय निगमों को निकाल बाहर किया जाय- बिना अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों की परवाह किये। मेरा व्यक्तिगत विचार कहता है कि भारत को सिर्फ और सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ के कानूनों/प्रावधानों/नीतियों/सन्धियों का सम्मान करना चाहिए, बाकियों के पालन के लिए भारत को कोई भी शक्ति बाध्य नहीं कर सकती!
      चूँकि जी.एम.आर. एक भारतीय कम्पनी है- इसलिए सिर्फ इसी आधार पर मैं मालदीव के फैसले को गलत नहीं ठहरा सकता।
हाँ, भारत की विदेश नीति की विफलता एकबार फिर जगजाहिर हो गयी। हो सकता है, बहुत-से साथी मालदीव की राजनीति तथा मालदीव के साथ भारत की विदेश नीति की जानकारी न रखते हों, वे मोटे तौर पर सिर्फ तीन बातें ध्यान में रख सकते हैं-
1.      1988 में मालदीव में राष्ट्रपति गयूम के खिलाफ बाकायदे सैन्य बगावत हुई थी, तब भारत ने बाकायदे अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजकर बगावत को दबाया था और गयूम की सत्ता को बचाया था। आप सोचेंगे- गयूम बड़े अच्छे शासक रहे होंगे। जी नहीं, वे एक कट्टरपन्थी किस्म के शासक थे।
2.      2008 के आम चुनाव में मालदीव की जनता ने बाकायदे आम चुनाव में मतदान करके गयूम को सत्ता से बेदखल किया और नशीद के हाथों में सत्ता सौंपी। नशीद को पिछले डेढ़ वर्षों से काल-कोठरी में कैद करके रखा था- गयूम ने! जाहिर है- नशीद की विचारधारा उदारपन्थी है और व्यक्तिगत जीवन में भी वे जेण्टलमैन हैं- क्योंकि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने उन जेलरों को माफ कर दिया, जिन्होंने उन्हें (नशीद को) प्रताड़ित किया था।
3.      गयूम अपनी हार को पचा नहीं पाये और उनके इशारे पर फरवरी 2012 में पुलिस की कुछ टुकड़ियों ने बगावत की। ध्यान रहे, यह सैन्य बगावत नहीं थी। मगर भारत ने नशीद की मदद नहीं की क्योंकि- 1. नशीद उदारपन्थी (तथा बेशक, भारत से मित्रता के समर्थक) थे और 2. भारत सरकार उत्तर प्रदेश के विधान चुनाव से ऐन पहले एक उदारपन्थी मुस्लिम शासक की सत्ता बचाकर देश के कट्टरपन्थी मुसलमानों के वोट का नुकसान नहीं उठाना चाहती थी! नशीद ने इस्तीफा दे दिया और गयूम के समर्थक वाहिद राष्ट्रपति बने, जो न केवल कट्टरपन्थी हैं, बल्कि भारत के स्थान पर चीन से मित्रता के समर्थक हैं। आप क्या सोचते हैं- बिना भारत सरकार की सहमति से वाहिद राष्ट्रपति बन गये होंगे? जी नहीं, पर्दे के पीछे से भारत सरकार ने वाहिद को बाकायदे अभयदान दिया था।
वही वाहिद अभी नशीद के समय (जून 2010 में) भारतीय इन्फ्रास्ट्रक्चर कम्पनी जी.एम.आर. के साथ हुए समझौते को रद्द कर रहे हैं। यह समझौता मालदीव के ‘इब्राहिम नासिर इण्टरनेशनल एयरपोर्ट’ के रख-रखाव के लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप मॉडल के तहत हुआ था।
           यह भारत की विदेश-नीति की विफलता नहीं, तो और क्या है? 

     पुनश्च: 
     भारत का समर्थन न मिलने के बावजूद नशीद भारत के मित्र बने हुए हैं अप्रैल 2012 में दिल्ली आकर उन्होंने साउथ ब्लॉक को आगाह कर दिया था कि जी.एम.आर. को बाहर किया जा सकता है- मगर जाहिर है, साउथ ब्लॉक वाले कान में तेल डाले सोते रहे!