सोमवार, 27 मई 2013

144. हम "दिकूओं" ने हमेशा "होड़" का शोषण ही किया है!


(कल मैंने नक्सलवाद के पीछे के एक कारण- खेती योग्य जमीन के असमान बँटावारे का जिक्र किया था। आज दूसरा कारण- आदिवासियों का शोषण।)
उत्तरी सन्थाल-परगना के जो दो-चार जिले अभी तक "लाल" नहीं हुए हैं, उन्हीं में से एक "साहेबगंज" जिले का मैं निवासी हूँ। मेरे कस्बे का नाम बरहरवा है। "राजमहल की पहाड़ियों" की एक पंक्ति बरहरवा के पश्चिम से गुजरती है।
इलाके के जो "सन्थाल" हैं, वे इन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में रहते हैं और जो "पहाड़िया" हैं, वे पहाड़ियों पर रहते हैं। सन्थाल और पहाड़िया को मिलाकर "होड़" कहते हैं और हमलोग, जो बाहर से आकर सन्थाल-परगना में बसे हुए हैं, "दिकू" हैं। बेशक, 'होड़' व 'दिकू' दोनों आदिवासी शब्द हैं।
सन्थाल-पहाड़िया, यानि एक शब्द में जंगल-पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी आम तौर पर हफ्ते में एक या दो बार खरीद-बिक्री करने हाट-बाजारों में आते हैं। आम तौर पर वे शान्तिप्रिय और सन्तोषी होते हैं। "लालच"-जैसी बुराई से वे कोसों दूर हैं।
एक जमाने में आदिवासी महिलायें चाँदी के वजनी गहनों से लदी होती थीं- हमने अपने बचपन में देखा है। आज जो गहने वे पहनती हैं, वे उस समय के हिसाब से एक-चौथाई से भी कम लगते हैं। कहाँ गयी उनकी चाँदी?
एक जमाने में राजमहल की पहाड़ियाँ जंगलों से ढकी थी- आज विशाल पेड़ कम ही दीखते हैं। कहाँ गये उनके पेड़?
कहने को वे जंगल-पहाड़ों के "मालिक" हैं, मगर हम दिकूओं ने उनकी जमीन को पट्टे पर लेकर बड़े-बड़े "क्रशर" वहाँ स्थापित कर रखे हैं... और वे "मालिक" इन्हीं क्रशरों में मजदूरी कर रहे हैं! क्रशरों की कमाई से दिकू मालामाल हो रहे हैं... और होड़ की स्थिति ज्यों की त्यों बनी है, बल्कि बदतर हो गयी है। पिछले करीब पचास वर्षों से ऐसा चल रहा है। अब तो चूँकि सारे क्रशर ऑटोमेटिक हो गये हैं और भीमकाय जेसीबी एवं बुलडॉजरों का इस्तेमाल होने लगा है खनन में, इसलिए अब मजदूरी का अवसर भी ज्यादा लोगों को नहीं मिलता।
पत्थर खनन के इस व्यवसाय ने सत्तर के दशक जोर पकड़ा था, जब "फरक्का" का पुल बन रहा था। तब से अब तक खनन का काम नहीं भी तो बीस-पच्चीस गुना बढ़ गया होगा। "पाकुड़ स्टोन" का नाम शायद आपने भी सुना हो। अब चूँकि भारी-भरकम मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है, इसलिए जाहिर है कि पर्यावरण को नुक्सान पहुँचने की रफ्तार भी काफी बढ़ गयी है।
सरकार की "कमाई" का तो जिक्र करना ही बेकार है- अगर यहाँ दो प्रतिशत खनन भी "वैध" रुप से हो रहा हो, तो उसे "बहुत" माना जायेगा!
खैर, बात आदिवासियों के शोषण की है। पत्थर व्यवसाय से पहले आदिवासियों के उत्पादों (मौसमी फल, सब्जी, फसलें वगैरह) को सस्ते में खरीदकर हम दिकू उनका शोषण करते थे। उनके चाँदी के गहनों को गिरवी रखकर उन्हें कर्ज देकर और फिर गहनों को जब्त करके भी हम दिकूओं ने उनका शोषण किया है।
हम दिकूओं ने उनके जंगलों का सफाया कर डाला है- कुछ पत्थर-खदान के नाम पर और कुछ आरा-मिल तक कटे पेड़ पहुँचाकर।
कहने का तात्पर्य एक जमाने से हम दिकूओं ने होड़ का सिर्फ शोषण ही किया है- उनके जंगल, उनकी जमीन, उनके खनिज, उनके उत्पाद पर कब्जा करके "मुनाफा" हम दिकूओं ने कमाया है और वे जंगल-पहाड़-जमीन के "मालिक" होकर भी आज भी उसी स्थिति में हैं, जैसी स्थिति में 100-50 साल पहले थे। परिवर्तन आया भी है, तो "सन्थालों" में, "पहाड़ियों" की स्थिति आज भी "पाषाणयुग"-जैसी ही है।
सवाल है- आखिर तरक्की में उनका हिस्सा हम क्यों नहीं देना चाहते? ऐसा क्यों है कि उनकी जमीन से पत्थर निकाल कर हम अमीर, और अमीर हो रहे हैं... और वे जमीन के मालिक हमारे खदान में मजदूरी करते हुए गरीब और गरीब होते जा रहे हैं? ऐसे "असमान" विकास से तो विकास न होना ही ठीक लगता है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि कहीं हमारा शान्त इलाका भी एकदिन "लाल" तो नहीं हो जायेगा?
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मैं समझता हूँ कि बंगाल हो या उड़ीसा, छत्तीसगढ़ हो या आन्ध्र, हर जगह होड़ के साथ यही, या ऐसी ही कहानी दुहरायी जा रही है।
जब वे इस तरक्की में अपना हिस्सा माँगते हैं, तो हम उन्हें जंगली-पहाड़िया समझकर दुत्कार देते हैं। पीढ़ियों तक- जी हाँ, पीढ़ियों तक दुत्कार सहने के बाद जाकर वे उग्र होते हैं। यह और बात है कि नक्सलवाद के नाम पर भी गलत बातें होती हैं, मगर इस समस्या के मूल में शोषण के खिलाफ आम आदिवासियों का आक्रोश ही है।
सन्देह है कि जैसे ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका में आदिवासियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया गया है, कहीं वैसा ही कार्यक्रम भारत सरकार भी न बना ले- उद्योगपतियों-पूँजीपतियों के दवाब में आकर- नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर। ताकि भू-सम्पदा की लूट में किसी तरह की दिक्कत न आये।     
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रविवार, 26 मई 2013

143. दो सवाल: हो सके, तो जवाब जरूर दें



      छत्तीसगढ़ में घटी ताजा नक्सली हमले की प्रतिक्रिया में व्यक्त किये जा रहे जा रहे विचारों को मैंने सरसरी निगाह से देखा
       मैं अपनी प्रतिक्रिया के रुप में एक सवाल सामने रखना चाहता हूँ।
सभी जानते हैं कि जाते-जाते अँग्रेज अपने चमचों, अपने नौकरों, अपनी दाईयों वगैरह को 100-50 बीघा खेती योग्य जमीन देकर गये थे। इसके अलावे, लगान वसूली के लिए जो एक औपनिवेशिक "जमीन्दारी" व्यवस्था उनके राज में कायम की गयी थी, उसके तहत एक-एक जमीन्दार ने अपने रैयतों से लूटकर सैकड़ों एकड़ जमीन अपने नाम कर ली थी। जब अँग्रेज चले गये, तो क्या खेती योग्य सारी जमीन का पुनर्वितरण नहीं होना चाहिए था?
       हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत एक कृषिप्रधान देश है, यहाँ गरीबी का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में पाया जाता है, और इस ग्रामीण गरीबी का मुख्य कारण है- लोगों के पास खेती योग्य जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा न होना। ऐसे में, क्या भारतीयों की अपनी सरकार की यह पहली प्राथमिकता नहीं थी कि खेती योग्य जमीन को पहले अपने कब्जे में लेकर फिर उसका पुनर्वितरण किया जाय? काम कष्टसाध्य जरूर होता, मगर इसे किया जा सकता था। क्यों नहीं किया गया?
...क्योंकि जमीन्दार, सामन्त और अँग्रेजों के चमचे ही बाद में संसद में पहुँच गये।
ऐसा भी नहीं है कि कुछ राज्य सरकारों ने अपनी तरफ से कोशिश नहीं की। कुछ ने थोड़ी-बहुत कोशिश की, मगर- जहाँ तक मेरी जानकारी है- हर मामला कोर्ट में गया और हर मामले में कोर्ट ने जमीन्दारों का पक्ष लिया! जबकि यह देश के 'पुनर्निर्माण' का दौर था- कुछ फैसले 'औपनिवेशिक' कानूनों तथा बनी-बनायी लीक से हटकर लिये जाने की जरुरत थी। कुल-मिलाकर, कोर्ट की "मानसिकता" को भी "सामन्तवादी" ही कहा जा सकता है।
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प्रसंगवश, एक और सवाल मुझे मथता है।
क्यों ऐसा हुआ कि अँग्रेजों के जाने के बाद जिस ब्रिटिश भारतीय सेना ने महान ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए युद्ध किया, उसे स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय सेना मान लिया गया, और जिसने देश को आजाद कराने के लिए युद्ध किया, उस आजाद हिन्द फौज को बागी मान लिया गया? क्या कायदे से ब्रिटिश भारतीय सेना को भंग करते हुए आजाद हिन्द फौज को भारत की राष्ट्रीय सेना नहीं बनाया जाना चाहिए था? यहाँ तो आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में प्रवेश तक नहीं दिया गया। ऐसा क्यों?
मैं सोचने पर मजबूर हूँ- 15 अगस्त 1947 के बाद भी एक-एक व्यक्ति के पास सैकड़ों एकड़ जमीन... मुट्ठीभर लोगों के पास देश की 70 फीसदी सम्पत्ति... इन्हीं का साथ देने वाले राजनेता...  इन्हीं का पक्ष लेने वाली न्यायपालिका... इन सबकी अंगरक्षा करने वाली पुलिस ...आजादी के लिए लड़ने वाले "बागी" और अँग्रेजों के तलवे चाटने वाले "राष्ट्रीय"...
...क्या हम वाकई 15 अगस्त 1947 को आजाद हुए थे?
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पुनश्च:
हालिया नक्सली हमले की निन्दा करने या मृतक राजनेताओं के प्रति श्रद्धाँजली व्यक्त करने के लिए मेरी अन्तरात्मा ने अभी तक मुझे आवाज नहीं दी है, इसलिए मैं ऐसा कर पाने में असमर्थ हूँ।
हाँ, जो वर्दीधारी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए हताहत हुए हैं, उनके परिजनों एवं उनके लिए मैं अपनी हार्दिक सम्वेदना प्रकट करता हूँ।

शनिवार, 25 मई 2013

142. मेरे जीवन का 'दर्शन'


जन्म लेना, संसर्ग करना, अपनी सन्तति पैदा करना और मर जाना- इतना हर जीव करता है 
अगर परमात्मा ने मुझे मनुष्य बनाया है, तो जरूर इनके अलावे भी मुझे कुछ करना है 
          जितनी मेरी क्षमता होगी, उतना करुँगा; जो मुझसे बन सकेगा, वह करुँगा और जो संसाधन मेरे सामने उपलब्ध होंगे, उन्हीं के बल पर करूँगा
जहाँ मेरी सीमायें समाप्त होगी, वहाँ सबकुछ ऊपरवाले के भरोसे छोड़ दूँगा 
...बस मेरी कोशिश यही होगी कि कभी किसी का मजाक न उड़ाऊँ, किसी को नीचा न दिखाऊँ और किसी का बुरा न चाहूँ
ब्रह्माण्ड में इलेक्ट्रॉन है, तो प्रोटोन भी है और न्यूट्रॉन भी तो बुराई, अच्छाई और उदासीनता- सब बनी  रहेंगी मैं न किसी को मिटा सकता हूँ, न किसी को बना कर सकता हूँ
...बस यही देखूँगा कि मैं किस तरफ हूँ
जिस परम शक्ति ने मुझे ब्रह्माण्ड की सर्वोत्तम कृति "मनुष्य" का जन्म दिया; जिस माता-पिता ने मुझे स्वस्थ मस्तिष्क एवं ह्र्दय के साथ मुझे स्वस्थ शरीर दिया; जिन गुरुओं ने मुझे पढ़ना-लिखना सीखाकर इस योग्य बनाया कि मैं किसी विषय पर स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सकूँ; जिन अपनों की शुभकामनाओं ने मेरे चारों तरफ सुरक्षा-कवच बनाते हुए मुझे हर अनिष्ट से बचाया- उन सबके प्रति मैं जन्म-जन्मान्तरों तक कृतज्ञ रहूँगा।
तुम्हारी इच्छा ही पूरी हो मेरे ईश्वर।
...मेरी सिर्फ इतनी-सी इच्छा है भगवान, कि मेरा हर जन्म भारत माता की गोद में ही हो।
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चित्र: साभार:  http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/3/32/Flammarion-3.jpg 

शुक्रवार, 24 मई 2013

141. आह!


     






       इन तस्वीरों को देखकर मैं आह भरकर रह जाता हूँ
काश, उस दिन अन्ना हजारे ने राजघाट पर जाकर गाँधीजी का आशीर्वाद लेने और रामलीला मैदान जाकर अनशन करने के बजाय आह्वान किया होता- "संसद चलो- चलो संसद!"... तो आज देश की तकदीर कुछ और ही होती...
ऐसा नहीं है कि नियति हमें अवसर नहीं देती। देती है, मगर कभी जनता चूक जाती है, तो कभी नेता।
1944 में जनता चूक गयी थी, जब वह नेताजी के "दिल्ली चलो- चलो दिल्ली" के आह्वान पर सड़कों पर नहीं निकली। बेशक, जनता से ज्यादा जिम्मेवार उस समय ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान थे, जिन्होंने नेताजी का साथ देने के बजाय "महान ब्रिटिश साम्राज्य" की रक्षा का फैसला लिया!  
2011 में अन्ना हजारे चूक गये, जब वे संसद की ओर कूच करने का आह्वान करने का साहस नहीं दिखा पाये। ध्यान रहे- इस वक्त जेनरल वीके सिंह साहब सेनापति थे- किसी कीमत पर वे अपने जवानों को इस जनसैलाब के खिलाफ नहीं उतारते! रही बात पुलिस की, तो घूँसखोरी पर पलने वाले उसके जवानों की औकात क्या थी, जो इस जनसैलाब के सामने टिक पाते!
ऐसा "जन-सैलाब" अब शायद ही फिर कभी सड़कों पर निकले!  
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अब यह मत कहिये कि क्रान्तिकारी तख्तापलट के बाद देश की स्थिति और खराब हो जायेगी- देश में जो भी बदलाव आना है, वह हमारी महान "लोकतांत्रिक" प्रक्रिया के माध्यम से ही आयेगा। यह सुन-सुन कर मेरे कान पक गये हैं।
देश में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। क्या देश में सुन्दरलाल बहुगुणा-जैसे पर्यावरणविद् नहीं हैं? क्या देश में सुभाष कश्यप-जैसे संविधानविद् नहीं हैं? क्या देश में माणिक सरकार-जैसे शासक और विनोद राय-जैसे प्रशासक नहीं हैं? क्या देश में जस्टिस राजू-जैसे न्यायाधीश नहीं हैं?
ऐसे ही, अच्छे शिक्षाविद्, अर्थशास्त्री, विदेशनीति विशेषज्ञ, रक्षा विशेषज्ञ, किसानों-मजदूरों के नेता- सब मिल जायेंगे। बस एक ही शर्त हो कि वे "चरित्रवान" हों। क्या चरित्रवान लोगों को हम अपनी महान "लोकतांत्रिक" प्रक्रिया के माध्यम से कभी संसद तक पहुँचा पायेंगे? मेरे इस सवाल को ध्यान से समझने की कोशिश कीजिये- पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर।   
फिर देखिये, ऐसी एक "कार्यकारी परिषद" के शासन के दौरान देश में कैसे बदलाव आता है, कैसे अमीरी-गरीबी की खाई को पाटा जाता है, कैसे चुनाव सुधार किये जाते हैं, कैसे लोकपाल का गठन होता है (भविष्य के लिए), कैसे देश की शासन, प्रशासन, पुलिस, न्याय व्यवस्था को चाक-चौबन्द बनाया जाता है, कैसे देश की जनता सुशिक्षित-सुसंस्कृत, खुशहाल बनती है, कैसे देश स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनता है....
नहीं समझना है, तो मत समझिये। देते रहिए वोट- चुनते रहिए नागनाथों और साँपनाथों को बारी-बारी से। गाते रहिये अपने महान लोकतंत्र एवं महान संविधान के तराने और देखते रहिए देश को रसातल में जाते हुए... जैसे कि 'टाइटनिक' को डूबते हुए बहुत-से लोगों ने अपनी आँखों से देखा था... 
बाद में मत कहियेगा कि किसी ने चेताया नहीं था।
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रविवार, 19 मई 2013

140. बैंकिंग-प्रणाली का कायाकल्प: एक सुझाव



       हाल में 'शारदा' चिट फण्ड कम्पनी का घोटाला उजागर होने के बाद से (राँची से प्रकाशित) एक अखबार धारावाहिक रुप से "चिट फण्ड कथा" प्रकाशित कर रहा है, जिसमें इस तरह की विभिन्न कम्पनियों के कच्चे चिट्ठे खोले जा रहे हैं। इसकी 17-18 किस्त प्रकाशित हो चुकी है और आगे भी, लगता है, यह कथा जारी रहेगी। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि धोखेबाज चिट फण्ड कम्पनियों का मकड़जाल कितना बड़ा है
       सरसरी निगाह से देखने पर यही लगता है कि लोग 'लालच' या 'मजबूरी', या फिर, दोनों के कारणों इस जाल में फँसते हैं। इस लालच और मजबूरी के पीछे है हमारी राष्ट्रीय बैंकों की नीति एवं कार्य-प्रणाली, जो
1. देश के दूर-दराज के इलाकों में प्रभावशाली ढंग से मौजूद नहीं है,
2. बचत पर बहुत ही कम ब्याज देती है- खासकर, छोटी बचत पर, (जबकि कर्ज पर बहुत ज्यादा ब्याज लेती है)
3. आम तौर पर यहाँ प्रभावशाली लोगों का स्वागत किया जाता है, जबकि गरीबों को दुत्कारा जाता है।
अपने देश में बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण भले हो गया है, मगर देश के सामाजार्थिक उत्थान को ध्यान में रखकर एक "राष्ट्रीय बैंकिंग नीति" नहीं बनी है, फलस्वरुप आज भी "राष्ट्रीय" बैंक ज्यादा-से-ज्यादा "मुनाफा" कमाने की नीति पर चलते हैं।
       ***
यहाँ बैंकिंग-प्रणाली के "कायाकल्प" के लिए सुझाव प्रस्तुत किये जा रहे हैं- नक्कारखाने में तूती की आवाज की तर्ज पर:
       बचत पर ब्याज:
       आज एक गरीब चाहे पेट काटकर हजार रुपया बैंक में जमा करे, या एक कालाबाजारी करोड़ रुपया, दोनों को एक समान दर से जमापूँजी पर ब्याज मिलता है। क्या यह सही है? क्या 1 हजार रुपये तक की जमापूँजी पर 15 प्रतिशत की दर से और 1 करोड़ रुपये तक की जमापूँजी पर 3 प्रतिशत की दर से ब्याज नहीं मिलना चाहिए? इसी प्रकार, 10 हजार तक की बचत पर 12 प्रतिशत, 1 लाख तक की बचत पर 9 प्रतिशत और 10 लाख तक की बचत पर 6 प्रतिशत की दर से ब्याज मिलना चाहिए। 1 करोड़ रुपये से ज्यादा की जमापूँजी पर बेशक, कोई ब्याज नहीं मिलना चाहिए और 10 करोड़ से ज्यादा की रकम पर तो बैंकों को ब्याज "देने" के बजाय ब्याज "वसूलना" चाहिए- पूँजी को "सुरक्षित" रखने के एवज में!
       ऋण पर ब्याज:
       आज एक बेरोजगार युवक छोटा-मोटा व्यवसाय शुरु करने के लिए 10 हजार रुपया कर्ज ले, या एक बड़ा औद्योगिक घराना विमानन कम्पनी शुरु करने के लिए 10 करोड़ ले, दोनों को लगभग समान दर से ब्याज चुकाना पड़ता है। यह कैसा न्याय है? होना तो यह चाहिए कि 10 हजार रुपये तक का कर्ज लेने वाले से सिर्फ 1 प्रतिशत की दर से ब्याज लिया लिया जाय। इसी प्रकार, 1 लाख तक के कर्ज पर 3 प्रतिशत, 10 लाख तक के कर्ज पर 6 प्रतिशत, 1 करोड़ तक के कर्ज पर 9 प्रतिशत, 10 करोड़ तक के कर्ज पर 12 प्रतिशत और इससे बड़े कर्ज पर 15 प्रतिशत की दर से ब्याज लिया जाना चाहिए।
       मेरे हिसाब से, 1 हजार रुपये तक का कर्ज "ब्याजमुक्त" होना चाहिए- यानि ग्राहकों को यह अवसर मिलना चाहिए कि वे अपने बचत खाता से "शून्य" राशि के बाद भी 1 हजार तक की रकम आवश्यकता पड़ने पर निकाल सकें! यह मत सोचिये कि सभी ऐसा करने लगेंगे- आखिर 1 हजार तक की बचत पर 15 प्रतिशत का ब्याज कौन छोड़ना चाहेगा भला? बहुत "मजबूरी" में ही कोई शून्य राशि के बाद रकम निकालना चाहेगा।
       ऐसा भी सोचना गलत होगा कि इससे बैंक घाटे में चले जायेंगे। आज लोग कर्ज तो ले लेते हैं, मगर ब्याज चुकाने में उनका दम निकलने लगता है; बहुत-से लोगों को आत्महत्या करनी पड़ती है; बैंकों के बहुत-से कर्ज डूब जाते हैं, और कर्ज वसूलने के लिए बैंकों को अलग से विभाग या व्यवस्था बनानी पड़ती है। जो सुझाव दिये गये हैं, उनपर अमल करने से उपर्युक्त स्थितियाँ पैदा नहीं होंगी, फलतः बैंकों को नुक्सान नहीं होगा। हाँ, देशवासियों का भला जरूर हो जायेगा।   
शाखाओं की संरचना:
बैंकों की शाखाओं की संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि प्रत्येक पंचायत व वार्ड में बैंक की कम-से-कम 1 "छोटी" शाखा हो; इसी प्रकार, प्रत्येक प्रखण्ड, नगर या उपमहानगर में न्यूनतम 2 "मँझली" शाखायें हों, और प्रत्येक जिले और महानगर में कम-से-कम 3 "बड़ी" शाखायें हों। इनके अलावे, बैंकों की "राज्य स्तरीय", "अंचल स्तरीय" और "राष्ट्रीय" शाखायें भी होनी चाहिए। एक राज्य में कम-से-कम 4 राज्य स्तरीय शाखायें, एक अँचल (यहाँ अँचल का तात्पर्य देश के उत्तर-पूर्वांचल, पूर्वांचल, पश्चिमांचल, उत्तरांचल, दक्षिणांचल, और मध्यांचल भाग से है) में कम-से-कम 5 अँचल स्तरीय शाखायें, तथा देशभर में कम-से-कम 6 राष्ट्रीय शाखायें तो होनी ही चाहिए।
जहाँ तक प्रशासनिक ढाँचे की बात है, बैंकों के मुख्यालय तीन स्तरों पर हो सकते हैं- राष्ट्रीय, आँचलिक तथा राज्य स्तर पर।   
       लेन-देन की सीमा:
       छोटी शाखाओं में एक व्यक्ति को एकदिन में 10 हजार रुपये से ज्यादा का लेन-देन नहीं करने देना चाहिए; इसी प्रकार, मँझली शाखाओं में लेन-देन की सीमा हो 1 लाख रुपये और बड़ी शाखाओं की सीमा हो 10 लाख रुपये। इसी अनुपात में बेशक, राज्य स्तरीय शाखाओं में एक व्यक्ति (ग्राहक) द्वारा एक दिन में लेन-देन की सीमा होनी चाहिए 1 करोड़ और अँचल स्तरीय शाखाओं के की सीमा होनी चाहिए 10 करोड़ रुपये। अगर कोई व्यक्ति या कम्पनी एक दिन में 10 करोड़ रुपये से ज्यादा के लेन-देन की क्षमता रखती हो, तो बेशक उसका खाता राष्ट्रीय शाखा में ही होना चाहिए- कहीं और नहीं!
       कर्ज देने के मामले में भी यही नियम लागू होने चाहिए- यानि 10 हजार तक के कर्ज "छोटी" शाखाओं से मिलने चाहिए; 1 लाख तक के कर्ज "मँझली" शाखाओं से; 10 लाख तक के कर्ज "बड़ी" शाखाओं से; 1 करोड़ तक के कर्ज "राज्य स्तरीय" शाखाओं से; 10 करोड़ तक के कर्ज "आँचलिक" शाखाओं से और इससे बड़े कर्ज सिर्फ "राष्ट्रीय" शाखाओं से दिये जाने चाहिए। 
       खाता संख्या:
       आज हर बैंक अलग-अलग ढंग की खाता-संख्या देता है, फलस्वरुप एक नागरिक के बहुत सारे खाते हो सकते हैं। दूसरी तरफ, खाता खोलने के लिए ग्राहक से तरह-तरह के पहचान-सबूत माँगे जाते हैं। इन दोनों समस्याओं का एक ही समाधान है- "बहुद्देशीय राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र"।
मेरी समझ में यह नहीं आता है कि देश को चलाने वाले इतने "अदूरदर्शी" कैसे हो सकते हैं? उन्होंने अभी तक एक "बहुद्देशीय राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र" के बारे में सोचा क्यों नहीं है?
सरकार को चाहिए कि वह "मतदाता पहचानपत्र", "पैन कार्ड" और "आधार कार्ड" को मिलाते हुए "बहुद्देशीय राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र" जारी करना शुरु करे और इसकी संख्या को ही बैंकों में "खाता संख्या" के रुप में दर्ज किया जाय। इससे एक बैंक की सेवा पसन्द न आने पर ग्राहक आसानी से अपना बैंक बदल भी सकेंगे। इस तरह के पहचानपत्र जारी करने के लिए अगर चुनाव आयोग में "पूर्णकालिक" स्टाफ की भर्ती करनी पड़ी, पंचायत/वार्ड स्तर तक कार्यालय स्थापित करना पड़े, तो ऐसा किया जाना चाहिए। ये कर्मी चुनाव के दौरान "मतदानकर्मी" तथा बाकी समय में "पहचानपत्रकर्मी" की भूमिका निभा सकेंगे।
मानवशक्ति:
एक विचित्र प्रथा "नौकरियों" में प्रचलित है- कर्मियों को उनके घर से जहाँ तक हो सके, दूर रखने की। मुझे इस प्रथा के पीछे कोई तुक नजर नहीं आता। मेरा मानना है कि बैंक ही नहीं, किसी भी विभाग में कर्मचारी- खासकर, निचले पाँवदान के कर्मचारी विशुद्ध रुप से "स्थानीय" होने चाहिए और मानवशक्ति (व्यक्तिगत रुप से मैं मानव-"संसाधन" शब्द का घोर विरोधी हूँ!) के चयन की जो प्रक्रिया है, उसके "विकेन्द्रीकरण" का हिमायती हूँ। मेरे हिसाब से, श्रमिक वर्ग के कर्मियों को उनके गृह पंचायत/वार्ड में पदस्थापित किया जाना चाहिए; लिपिक वर्ग के कर्मियों को गृह प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर में; पर्यवेक्षक वर्ग के कर्मियों को उनके गृह राज्य में और कनिष्ठ अधिकारियों को उनके गृह अँचल में पदस्थापना देनी चाहिए। हाँ, वरिष्ठ अधिकारियों को देशभर में कहीं भी पदस्थापना दी जा सकती है।
अन्त में:
अगर सरकार को लगे कि वर्तमान में जो "राष्ट्रीयकृत" बैंक देश में हैं, उन्हें इन नीतियों के पालन के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और न ही भारतीय रिजर्व बैंक को इनके लिए राजी किया जा सकता है, तो सरकार को भारतीय रेल सेवा, भारतीय डाक सेवा की तर्ज पर एक भारतीय बैंकिंग सेवा की स्थापना के बारे में सोचना चाहिए, जो रिजर्व बैंक के नियंत्रण से मुक्त हो; जो "मुनाफा" कमाने के बजाय देश के "सामाजार्थिक" उत्थान को अपना मूलमंत्र बनाये और जो उपर्युक्त नीतियों को लागू करे।
देख लीजियेगा- एक-एक कर सारे बैंक इन नीतियों को अपनाने के लिए बाध्य हो जायेंगे। उनके यहाँ जायेगा ही कौन- खाता खुलवाने या कर्ज लेने (2-1 प्रतिशत पूँजीपतियों को छोड़कर)???
*****
पुनश्च:    

बैंक अपने शिक्षित ग्राहकों को एक खास "टैबलेट" जारी करे, जो ग्राहक के अँगूठे (या किसी भी एक उँगली) के निशान से संचालित होगा- इस टैबलेट के माध्यम से ग्राहक एक-दूसरे के खाते में आसानी से लेन-देन कर सकेंगे।
(जैसे कि- ग्राहक 'क' पैसे देना चाहता है 'ख' को; वह अपने टैबलेट पर 'ख' की खाता संख्या- जो कि वास्तव में नागरिकता संख्या है- टाईप करता है; 'ख' का फोटो, नाम, स्थान, कम्पनी इत्यादि स्क्रीन पर उभर आते हैं; अगर जानकरियाँ सही हैं, तो 'क' राशि टाईप कर आगे बढ़ता है; 'ख' को सन्देश प्राप्त होता है, साथ ही वह 'क' का फोटो आदि देख सकता है; अगर जानकरी सही है, तो वह सहमति देता है; 'क' को सहमति का सन्देश प्राप्त होता है; और फिर वह पैसे भेज देता है; अन्त में, दोनों को पैसे के लेन-देन का सन्देश प्राप्त होता है। नोट- भूलवश हुए लेन-देन को सुधारने का अधिकार तो बैंक की शाखाओं के पास होगा ही; साथ ही, भूल लेन-देन को स्वीकार करनेवाले ग्राहक पर मामूली अर्थदण्ड लगाने पर भी विचार किया जा सकता है।)

गुरुवार, 16 मई 2013

139. प्रधानमंत्री 'अपर हाऊस' से: भला क्यों?



       हो सकता है कि 'सत्ता-हस्तान्तरण' के समय कुछ दवाब रहा हो अँग्रेजों की तरफ से, जिस कारण भारत की शासन-प्रणाली के रुप में बर्तानवी संसदीय प्रणाली का चयन किया गया। इस प्रणाली में कोई बुराई भी नहीं है। हाँ, सम्राट या साम्राज्ञी की नकल करते हुए राष्ट्रपति का पद सृजित करना जरूरी नहीं था। इस पद को बनाना भी था, तो इसे "आडम्बरयुक्त" नहीं बनाना था। भारत-जैसे देश के लिए, जहाँ दो-तिहाई आबादी गरीब हो, सम्राटों वाले आडम्बर से युक्त राष्ट्रपति का पद या तो "सफेद हाथी" हो सकता है, या फिर आम जनता के जख्मों पर छिड़का गया नमक- और कुछ नहीं!
       खैर, यहाँ मुद्दा कुछ और है। सवाल है कि क्या बर्तानवी संविधान में ऐसा कोई प्रावधान है कि वहाँ 'अपर हाऊस' (हाऊस ऑव लॉर्ड्स) से भी कोई प्रधानमंत्री बन सकता है? या, ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण है, जब किसी 'लॉर्ड' को ब्रिटेन का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया हो?
       अगर कोई जानकार इस जिज्ञासा का उत्तर दे सकें, तो मेहरबानी होगी। मुझे लगता है कि ब्रिटेन के संविधान में ऐसा प्रावधान नहीं होगा और न ही वहाँ की संसदीय-प्रणाली में ऐसा कोई उदाहरण मिलेगा।
       अगर मेरा अनुमान सही है, तो फिर सवाल उठता है, भारतीय नीति-निर्धारकों ने इस प्रावधान को संविधान में क्यों शामिल किया कि अपर हाऊस (राज्यसभा) का भी सदस्य प्रधानमंत्री बन सकता है? अगर इस प्रावधान को शामिल किया भी- किसी अनदेखी 'आपात्कालीन' परिस्थिति के बारे में सोचकर- तो साथ में इस शर्त को क्यों नहीं जोड़ा कि ऐसा प्रधानमंत्री 6 महीनों के अन्दर किसी एक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ेगा और चुनाव में विजयी होने के बाद ही वह इस पद पर कायम रहेगा, अन्यथा उसे जाना पड़ेगा? मेरे हिसाब से, यही तो 'लोकतंत्र' है!
       सब जानते हैं कि राज्यसभा के सदस्यों को जनता प्रत्यक्ष रुप से नहीं चुनती। ऐसे में, राज्यसभा के सदस्य को लम्बे समय के लिए देश का प्रधानमंत्री बनाना क्या लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं है?
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       कुछ सिद्धान्त सार्वभौम किस्म के होते हैं- वे हर जगह लागू होते हैं। ऐसा ही एक सिद्धान्त है- जो नौकरी देता है, उसी के हाथों में नौकरी छीनने का भी अधिकार होता है। साथ ही, जो नौकरी देता है, वफादारी उसी के प्रति रखनी पड़ती है।
       लोकतंत्र में उक्त सिद्धान्त को लागू करने पर हम पाते हैं कि चूँकि जनता प्रधानमंत्री को चुनती है, इसलिए जनता के ही हाथों में उसे हटाने का भी अधिकार होता है। (भले इस अधिकार के इस्तेमाल का अवसर 5 साल में एकबार ही क्यों न मिले!) इसी प्रकार, चूँकि जनता प्रधानमंत्री को चुनती है, इसलिए प्रधानमंत्री जनता के प्रति वफादारी दिखाता है और उसकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करता है।
       अब जरा पिछले एक दशक से भारत में कायम स्थिति पर नजर डालें। जो प्रधानमंत्री हैं, उन्हें जनता ने नहीं चुना है, इसलिए जनता उन्हें हटा भी नहीं सकती। वे फिर राज्यसभा के लिए चुन लिये गये- जनता देखती रह गयी। (चुने भी जाते हैं आसाम से, जबकि वे वहाँ के निवासी नहीं हैं- दस्तावेज पर गौहाटी के एक कमरे का किरायेदार बनकर वे राज्यसभा में आसाम का प्रतिनिधित्व करते हैं।) चूँकि उन्हें जनता ने नहीं चुना है, इसलिए जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरने की परवाह भी उन्हें नहीं हैं।
तकनीकी रुप से वे अपनी जगह सही हैं- मुझे जिसने पद पर बिठाया है, उसी के प्रति वफादारी दिखाऊँगा, उसी की आकांक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करूँगा और उसी के कहने पर इस पद को छोड़ूँगा। इसमें गलत क्या है?
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अन्त में- अगर तो ब्रिटिश संविधान में अपर हाऊस से प्रधानमंत्री चुनने का प्रावधान है, या ब्रिटिश परम्परा में हाऊस ऑव लॉर्ड्स से कभी कोई प्रधानमंत्री चुना गया है, तब तो कोई खास बात नहीं है; लेकिन ऐसा न होने पर यही समझना चाहिए कि हमारे नीति-निर्धारकों की "मंशा" साफ नहीं थी। उन्होंने "पिछले दरवाजे" (बैकडोर) या "छिद्र" (लूपहोल) के रुप में हमारे संविधान में इस प्रावधान को जोड़ा था, जिसका एक बहुत ही बुरा परिणाम आधी सदी बाद आज हमारी पीढ़ी भोग रही है।
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शनिवार, 11 मई 2013

138. राष्ट्रगीत : एक काल्पनिक स्थिति



      मान लीजिये कि किसी स्थान पर किसी अवसर पर पाकिस्तान का राष्ट्रगीत गाया जा रहा है। या फिर, चीन का ही राष्ट्रगीत गाये जाने की तैयारी है। वहाँ उपस्थित पाकिस्तानी या चीनी नागरिक सावधान की मुद्रा में खड़े हो चुके हैं।
ऐसे में, वहाँ उपस्थित भारतीय क्या बैठे रहेंगे? या वहाँ से उठकर चले जायेंगे??
       मुझे तो ऐसा नहीं लगता। मुझे लगता है, वहाँ उपस्थित भारतीय भी पाकिस्तानी या चीनी नागरिकों के साथ सावधान की मुद्रा में खड़े हो जायेंगे और तब तक खड़े रहेंगे, जब तक कि उनका राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान पूरा नहीं हो जाता।
       कहने का तात्पर्य, एक सभ्य एवं देशभक्त व्यक्ति, समाज या कौम अपने दुश्मन देश के भी राष्ट्रगीत के प्रति सम्मान की भावना प्रदर्शित करेगा।
...और अगर कोई व्यक्ति, समाज या कौम अपने ही देश के राष्ट्रगीत के प्रति असम्मान की भावना मन में रखे, तो न केवल इसे जहालत की पराकाष्टा समझनी चाहिए, बल्कि उसकी देशभक्ति को भी सन्देह के घेरे में रखा जाना चाहिए!
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पुनश्च:
मेरी उपर्युक्त कल्पनिक स्थिति में सभी भारतीय शामिल हैं, चाहे वे किसी भी उपासना पद्धति को मानने वाले हों मुझे लगता है, जब भी ऐसी काल्पनिक स्थिति पैदा होगी, सारे भारतीय सावधान की मुद्रा में खड़े हो जायेंगे- चाहे राष्ट्रगीत/राष्ट्रगान/राष्ट्रधुन इजरायल की हो, या अरब की; या फिर चीन की हो, या अमेरिका की
बेशक, दूसरे देश वाले भी ऐसा ही करेंगे- अगर भारत का राष्ट्रगीत/राष्ट्रगान/राष्ट्रधुन गाया/बजायी जा रहा हो- भारतीय सावधान में खड़े हों, तो दूसरे देशों के नागरिक भी सावधान में खड़े हो जायेंगे
क्योंकि यही तो सुसभ्य, सुशिक्षित, सुसंस्कृत होने की पहचान है! वर्ना काहे की सभ्यता, काहे की शिक्षा और काहे का संस्कार!
जो व्यक्ति, समाज या कौम ऐसा नहीं कर पाता है- बहाना चाहे कोई भी हो- बहाने तो एक हजार खोजे का सकते है, उसकी सभ्यता, उसकी शिक्षा, उसके संस्कार, उसकी देशभक्ति किस काम की- किस दिन के लिए?
बात धर्म की नहीं है- धर्म तो ऐसा विषय है, जिसका जिक्र करना मैं कभी पसन्द ही नहीं करता मैं बात "राष्ट्रीयता" की कर रहा हूँ, सभ्यता-संस्कृति की कर रहा हूँ, शिक्षित और देशभक्त होने की कर रहा हूँ
ओलिम्पिक में कभी ऐसा हुआ, कि पुरस्कार वितरण के दौरान सोवियत संघ की राष्ट्रधुन बज रही हो और पोडियम पर खड़ा अम्ररिकी खिलाड़ी हिल-डुल रहा हो? या अमेरिकी राष्ट्रधुन के दौरान रूसी खिलाड़ी हिल-डुल रहा हो? ऐसा कभी नहीं होता!
राष्ट्रगीत/राष्ट्रगान/राष्ट्रधुन किसी भी देश की हो, हर सभ्य, शिक्षित, संस्कृत, देशभक्त व्यक्ति, समाज और कौम का फर्ज बनता है कि उसके प्रति सम्मान की भावना प्रदर्शित करे- फिर चाहे वह गीत, गान, या धुन दुश्मन देश की हो, या किसी छोटे-कमजोर देश की, या अपने देश की
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137. "खाद्य-सुरक्षा" के पीछे क्या है?



                'खाद्य सुरक्षा विधेयक' के बड़े चर्चे हो रहे हैं- इसे 'जादू की छड़ी' के रुप में प्रचारित किया जा रहा है
       इसके पीछे दो कारण हैं- एक 'तात्कालिक'; दूसरा 'दीर्घकालिक'।
'तात्कालिक' कारण सबको दीख रहा है- कुछ ही महीनों में होने वाला आम चुनाव। जैसे पिछले आम चुनाव से पहले प्रचारित किया गया था कि 'मनरेगा' के तहत सभी गरीबों को साल में 100 दिनों का रोजगार गारण्टी के साथ मिलेगा, वैसे ही आगामी आम चुनाव से पहले प्रचारित करने की योजना है कि सभी गरीबों को सस्ते में अनाज मिलेगा।
       लेकिन जो 'दीर्घकालिक' कारण है इस योजना के पीछे, उसपर सबका ध्यान नहीं जाता है।
भारत ने जिस "लंगोटिया पूँजीवाद" (भ्रष्ट एवं अनैतिक उपाय अपनाकर, देश के संसाधनों को लूटकर खुद को तथा अपने नाते-रिश्तेदारों, परिचितों को फायदा पहुँचाने वाला पूँजीवाद) को अपना रखा है, उसके तहत 'खाद्य सुरक्षा'-जैसे उपाय अपनाना सरकार की मजबूरी है।
       पूँजीवाद की इस विकृत अवधारणा को जोर-शोर से अपनाने के कारण हमारे देश की ज्यादातर पूँजी कुछ परिवारों की मुट्ठियों में कैद हो गयी है और यह प्रक्रिया तेजी के साथ जारी भी है। कोई भी राजनीतिक दल या कोई भी लोकतांत्रिक सरकार अब इस "प्रक्रिया" को नहीं रोक सकती।
जो भी सरकार इस देश में बनेगी, जिस किसी दल के हाथ में राजसत्ता होगी, उसे इस "लंगोटिया पूँजीवाद" के सामने नतमस्तक होना ही पड़ेगा और 'मनरेगा' तथा 'खाद्य सुरक्षा'-जैसे कार्यक्रम चलाने ही पड़ेंगे- ताकि-
1.   गरीब जनता अमीरों तथा सत्ताधारियों के खिलाफ "सड़कों पर न उतरे" और
2.  कोई गरीब "भूख से न मरे"! (भूख से मौत होने पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी होती है।)
सभी जानते हैं कि जो व्यक्ति, समाज या कौम "टुकड़ों पर पले", वह कभी स्वाभिमानी और खुद्दार नहीं हो सकता, इसलिए देश के पूँजीपतियों तथा सत्ताधारियों का वर्ग, 'विश्व-बैंक' वगैरह से मिलकर देश में "रोजगार के अवसर" पैदा नहीं कर रहा है, बल्कि उन्हें एक तरह से "टुकड़ों पर पालने" की सजिश रच रहा है। और हाँ, बिना "ऑडिट" की व्यवस्था किये पंचायतों को अनाप-शनाप फण्ड देकर आम जनता की ईमानदारी को भी खत्म करने की साजिश रची जा रही है।
जब आम जनता स्वाभिमानी, खुद्दार, ईमानदार नहीं होगी, तो इन भ्रष्ट पूँजीपतियों तथा सत्ताधारियों का कौन क्या बिगाड़ लेगा?  
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