भाड़ में जाये यह 95-96-97 प्रतिशत! इस परसेण्टेज के फितूर ने
बच्चों से उनका नैसर्गिक बचपन और किशोरों से उनका स्वाभाविक अल्हड़पन छीन लिया है। 14-15 की उम्र में ही हमारे किशोर 34-35 के अधेड़-जैसे हो
गये हैं। करियर, करियर, करियर! लानत है ऐसी करियर और उसकी तैयारियों पर, जो हमारे
नौनिहालों को खेल के मैदानों से दूर करके उनकी आँखों में मोटे-मोटे शीशों वाले
चश्मे चढ़ा देती है!
पता नहीं, इस दिशा में कोई शोध हुआ है या
नहीं, मगर मुझे लगता है, 10वीं-12वीं में 98-99 प्रतिशत अंक लाने वाले ये किशोर
आगे चलकर कभी देश के जिम्मेदार नागरिक नहीं बनते होंगे। अगर ये डॉक्टर, इंजीनियर,
अफसर वगैरह बन भी गये, तो सारी जिन्दगी इनकी बस निन्यानबे के फेर में बीतती होगी।
अपने माता-पिता, अपने यार-दोस्त, अपने समाज, अपने देश का कोई भी कर्ज चुकाने की
कोशिश ये नहीं करते होंगे। इन्सानीयत तो इनके अन्दर खोजने से भी नहीं मिलती होगी।
यह कब की मर चुकी होगी इनके अन्दर घर-परिवार, दोस्त-समाज से कटकर अन्धाधुन्ध पढ़ाई
करते-करते।
जो कोई साहित्य-कला, खेल-कूद से लेकर
विज्ञान-प्रौद्योगिकी तक के क्षेत्र में देश का नाम रोशन करता है, उनका बायोडाटा
उठा कर देख लिया जाय, 10वीं-12वीं में वे औसत या औसत से थोड़ा ही ऊपर रहे होंगे।
बेशक, अभी यह मेरा अनुमान है, मगर शोध होने पर इसके सही होने की सम्भावना ही
ज्यादा है। देश का नाम रोशन करने की बात जाने दीजिये, जिम्मेदार नागरिकों का भी
बायोडाटा उठा कर देख लिया जाय, जो समाज में जनप्रिय होते हैं, वे भी अपने स्कूली
दिनों में औसत ही रहे होंगे।
हाँ, अगर कोई बच्चा असाधारण रुप से
प्रतिभाशाली है और खेलते-कूदते हुए वह 90-95 प्रतिशत अंक ले आता है, तो अलग बात है।
वर्ना ज्यादातर की स्थिति तो ऐसी है कि उनके माता-पिता उन्हें एक मानसिक "प्रेशर
कूकर" में डाल देते हैं।
ये बड़े-बड़े स्कूल, जहाँ बच्चों को मिलीटरी
टाईप अनुशासन में रखा जाता है- अगर कोढ़ हैं देश पर, तो ये बड़े-बड़े कोचिंग इंस्टीच्यूट वाले
कोढ़ में खाज हैं!
पता नहीं, कभी हमारी शिक्षा व्यवस्था के
दिन कभी सुधरेंगे या नहीं...