गुरुवार, 28 मार्च 2013

119. खाली दिमाग का चिन्तन: होली का खुमार उतरने के बाद



       कहते हैं कि- खाली दिमाग शैतान का अड्डा!
       शाम खाली बैठे-बैठे एक ख्याल आया
       सोशल मीडिया- खासकर, फेसबुक पर- "राष्ट्रवादी" शब्द पर नरेन्द्र मोदी-समर्थकों ने और "आम आदमी" शब्द पर अरविन्द केजरीवाल-समर्थकों ने एक तरह से अपना-अपना "कॉपीराइट" ठोंक दिया है। "हिन्दू" शब्द पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो खैर, पहले से ही अपना कॉपीराइट जता रखा है। इधर कुछ दिनों से लग रहा है कि "देशभक्त" शब्द पर जल्दी ही स्वामी रामदेव-समर्थकों को कॉपीराइट मिलने वाला है। बच गये दो शब्द- "भारतीय" और "हिन्दुस्तानी"। इनमें से "भारतीय" शब्द पर भाजपा वाले और "हिन्दुस्तानी" शब्द पर अन्ना हजारे-समर्थक अपना-अपना दावा ठोंक सकते हैं।
       अगर ऐसा हो गया, तो मेरे-जैसा सीधा-सादा आदमी जब खुद को "राष्ट्रवादी", "आम आदमी", "हिन्दू", "देशभक्त", "भारतीय", या "हिन्दुस्तानी" नहीं बोल पायेगा, तब हो सकता है कि ये सभी समूह मिलकर मुझे "काँग्रेसी" घोषित कर दें!
       यह तो बड़ी विकट स्थिति होगी।
       ***
       एक और ख्याल आया।
       देश में गरीबी-अमीरी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।
1. इसे पाटना है या नहीं?
2. पाटना है, तो किस हद तक? यानि गरीबी-अमीरी के बीच का, या कम-से-कम न्यूनतम व अधिकतम वेतन-भत्तों-सुविधाओं के बीच का- अनुपात कितना होगा? 1:5, या 1:7, या 1:15, या फिर, 1:100, या 1:1000?
3. जो भी अनुपात हो, उसे हासिल करने के लिए कुछ कठोर कदम उठाये जायेंगे या नहीं?
इन सवालों पर उपर्युक्त समूहों में से किसी भी समूह के लोगों को अब तक कुछ लिखते मैंने नहीं देखा है।
       अगर किसी समूह वाले के पास इस सवाल का जवाब है, तो बेशक वे यहाँ प्रस्तुत कर सकते हैं।
       बस, एक अनुरोध है कि मुझे "साम्यवादी" न घोषित करें।
       ***
       वे चाहें, तो 'बुरा न मानो होली है' समझकर इसे नजरअन्दाज भी कर सकते हैं...
       देश का होना तो वही है, जो "नियति" ने तय कर रखा है और होने का समय भी उसी ने तय कर रखा है...
       ...हम और आप किस खेत की मूली हैं, "नियति" के सामने?
       ***
       बहुतों को ऐसा लग सकता है कि गरीबी-अमीरी के बीच बढ़ती खाई इतना महत्व नहीं रखती कि नरेन्द्र मोदी, अरविन्द केजरीवाल, स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और दूसरे अन्यान्य नेता- जो खुद को रसातल में समाते इस देश के तारणहार के रुप में प्रस्तुत करते हैं- इस पर कोई विचार प्रकट करें।
       हो सकता है, मैं ही गलत हूँ, जो इस मुद्दे को महत्व दे रहा हूँ। फिर भी, यहाँ मैं दो कथन उद्धृत करता हूँ:
       1. "कोई भी आदमी इतना अधिक धनी नहीँ होना चाहिए कि वह दूसरे को खरीद सके, और न ही कोई आदमी इतना अधिक गरीब होना चाहिए कि वह अपने आपको बेचने के लिये मजबूर हो जाये। भारी असमानताएं निरंकुशता के लिए रास्ता तैयार करती हैँ।" (शहीद ए आजम भगतसिँह जी की जेल की ङायरी के पेज नं 176 (111) से) 
       2. "इतिहासकार अर्नोल्ड टायनर्बा के अनुसार मिस्र, रोम और यूनान की महान सभ्यताओं के पतन का मुख्य कारण था कि अमीर नेतृत्व और सामान्य जनता के बीच खाई बढ. गयी थी। अत: समाज के स्थिर रहने के लिए जरूरी है कि बढ़ती असमानता पर नियंत्रण किया जाये।" (दैनिक ‘प्रभात खबर’ में 26/3/13 को प्रकाशित डॉ. भरत झुनझुनवाला के एक लेख ‘अमीर-गरीब का फासला’ से)
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शनिवार, 23 मार्च 2013

118. भगत और सुभाष की आत्मा को और मत रूलाईये....



बहुत अच्छा लगता है, जब सोशल मीडिया पर लोगों को भगत सिंह और नेताजी सुभाष की तस्वीरों तथा कथनों को साझा करते देखता हूँ- खासकर, 23 जनवरी और 23 मार्च को मगर सच्चाई यह है कि हम आम भारतीय सौ-दो सौ साल पहले भी कायर, दब्बू, डरपोक, चापलूस थे और आज भी हैं! हमलोग हमेशा यही चाहते हैं कि 'क्रान्तिकारी' पैदा तो हों, मगर अपने नहीं, पड़ोसी के घर में हमलोग 'सत्ताधारियों' के पीठ पीछे कुछ भी कह लें, उनके सामने आते ही हम अपना दुम हिलाते हैं, कूं-कूं करते हैं और मौका मिले, तो उनके तलवे भी चाटते हैं!
जब तक भगत सिंह और सुभाष जिन्दा रहते हैं, हम उनका साथ देने के लिए खुलकर सड़क पर नहीं आते मगर उनके शहीद होते ही उनकी तस्वीरें लेकर सड़्कों पर निकल पड़ते हैं
क्या सोचा था भगत सिंह ने? यही न कि मुझे फाँसी लगने के बाद देश का युवा वर्ग आन्दोलित हो जायेगा... क्रान्ति हो जायेगी... अँग्रेजी सत्ता को लोग उखाड़ फेकेंगे.... मगर कुछ हुआ? नहीं न?
क्या सोचा था सुभाष ने? यही न कि जैसे ही मैं एक छोटी-सी सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचूँगा, देश की जनता सड़कों पर आ जायेगी... ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर देंगे... मगर कुछ हुआ? नहीं न?
यही है हम भारतीयों का असली चरित्र!
शीशे की तरह साफ दीख रहा है कि आज देश में जो स्थिति है, वह अँग्रेजी राज से अलग नहीं है शासन-प्रशासन-पुलिस-न्यायपालिका- सारी-की-सारी व्यवस्था- मुट्ठीभर लोगों को फायदा पहुँचा रही है... देश की आम जनता को अपनी चौखटों से यह दुत्कार कर भगा देती है... फिर भी इस देश के महान लोकतंत्र पर, महान संविधान पर हम फिदा रहते हैं... कहीं "बगावत" की एक छोटी-सी चिंगारी भी नजर नहीं आ रही है... इसी सड़ी-गली व्यवस्था में, इसी भ्रष्ट चुनाव प्रक्रिया के तहत, बस इसे हटाकर उसे बैठाने के लिए सारे-के-सारे पढ़े-लिखे लोग मानो पगला रहे हैं! कोई "सम्पूर्ण बदलाव" नहीं चाहता!
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इस ब्लॉग के पिछले सन्देश में महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार पर लिखते-लिखते मेरी कलम बहक गयी थी और उस वक्त मैंने ये पंक्तियाँ लिखी थीं-
 "हम भारतीयों के दिलो-दिमाग पर "तीन महान भ्रमों" ने कब्जा कर रखा है-
पहला भ्रम:   "15 अगस्त 1947 को देश को "आजादी" मिली थी।"
जबकि वास्तविकता यह है कि उसदिन "सत्ता-हस्तांतरण" हुआ था और सांकेतिक रुप से ही सही, मगर हमारा देश आज भी ब्रिटेन का एक डोमेनियन स्टेट है, जिस कारण हम आज भी पाकिस्तान, श्रीलंका तथा अन्यान्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में अपने "राजदूत" नहीं भेज सकते- हम वहाँ "उच्चायुक्त" भेजते हैं।
दूसरा भ्रम: "हमारा संविधान एक महान संविधान है।"
जबकि वास्तविकता यह है कि इसका दो-तिहाई हिस्सा (प्रायः 70 प्रतिशत अंश) '1935 का अधिनियम' है, जिसे अँग्रेजों ने एक 'गुलाम' देश पर 'राज' करने के लिए बनाया था, न कि एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाने के लिए।
तीसरा भ्रम: "हमारे देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली कायम है।"
जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने चुनाव क्षेत्र के प्रायः दो-तिहाई (70 प्रतिशत) मतदाताओं का प्रतिनिधित्व "नहीं" करते हैं और हमारे संसद में बैठने वाले लगभग साढ़े पाँच सौ जनप्रतिनिधि देश की जनता की भलाई के लिए नीतियाँ नहीं बनाते, बल्कि 5-7 शक्तिशाली सांसदों की एक "किचन कैबिनेट" विश्व बैंक, आईएमएफ, ड्ब्ल्यूटीओ तथा अमीर देशों के दलाल बनकर पूँजीपतियों, उद्योगपतियों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों को फायदा पहुँचाने और देश के संसाधनों को लूटने की नीयत से नीतियाँ बनाते हैं।
जब तक देशवासियों के दिलो-दिमाग से इन भ्रमों का सफाया नहीं हो जाता, इस देश में बदलाव की गुंजाइश एक रत्ती भी नहीं है।"
***
               आप चाहे इसे गद्दी पर बैठा दो, या उसे- कहीं एक रत्ती भी कुछ नहीं बदलने वाला.
मेरे साथियों, अगर भगत सिंह और सुभाष की तरह सारी वर्तमान व्यवस्था, जो कि शोषण, दोहन और उपभोग पर आधारित है, को जड़ से उखाड़ फेंकने तथा इसके स्थान पर एक नयी व्यवस्था, जो कि समता, पर्यावरण-मित्रता और आध्यात्म पर आधारित हो, को कायम करने का जज्बा आप दिल में रखते हों, तो भगत सिंह और सुभाष के चित्र साझा कीजिये.... और अगर आप वर्तमान महान संविधान के तहत वर्तमान शासन-प्रशासन-पुलिस-न्याय प्रणाली के निर्देशों का पालन करते हुए बस इसके स्थान पर उसे बैठाने की इच्छा रखते हों, तो...
....मेहरबानी करके भगत और सुभाष की आत्मा को और मत रूलाईये....

रविवार, 17 मार्च 2013

117. "सत्य सेल्यूकस, .........."



       बच्चियों, किशोरियों, युवतियों, महिलाओं के साथ- यहाँ तक कि विक्षिप्त महिलाओं तथा विदेशी मेहमान महिलाओं के साथ- नित्य होने वाले लोमहर्षक दुष्कर्मों, वीभत्स सामूहिक दुष्कर्मों के बारे में सुन-सुन कर दिमाग भन्ना गया है
       दुष्कर्म के बाद आमतौर पर पीड़िता की जघन्य हत्या कर दी जाती है, या वे खुद ही आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाती हैं, या फिर, समाज और व्यवस्था उसे तिल-तिल कर मारती है।
       इक्के-दुक्के मामलों में दुष्कर्मी को सजा होती है, वह भी मामूली, और उसमें भी जमानत या पैरोल पर रिहा होकर दुष्कर्मी मजे करता है। (सन्दर्भ- बिट्टी मोहान्ति मामला।)
       ध्यान रहे कि दुष्कर्म की उन्हीं घटनाओं को हम जान पाते हैं, जो राष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपती हैं, या जिन्हें टीवी पर समाचार चैनल वाले दिखाते हैं। इनकी संख्या रोज होने वाली ऐसी घटनाओं का एक प्रतिशत भी होती है या नहीं- सन्देह है।
       दुष्कर्म के अलावे महिलाओं पर तेजाब भी फेंका जाता है, दहेज के लिए उत्पीड़ित किया जाता है तथा और भी बहुत तरह के अत्याचार महिलाओं पर किये जाते हैं। इनमें भी ज्यादातर महिलाओं को जान से हाथ धोना पड़ता है और दोषी को शायद ही वाजिब सजा मिल पाती है।
       ***
       इन दुष्कर्मों, अत्याचारों के लिए 1. समाज और 2. व्यवस्था, दोनों समान रुप से जिम्मेदार हैं।  
       "समाज" इसलिए जिम्मेदार है कि इसमें रहने वाले हम लोगों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन हो गया है। इस पतन के कारण तो बहुत सारे हैं, मगर एक शब्द में कहना हो, तो यही कहा जायेगा कि हमारा नैतिक एवं चारित्रिक पतन इसलिए हो रहा है कि हम भी दुनिया के अन्यान्य बहुत-से देशों की तरह "भौतिकवाद" की चकाचौंध भरी मगर वास्तव में अन्धी दौड़ में शमिल हो गये हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है कि हमारी सरकारों के एजेण्डे में देश का भौतिक विकास तो शामिल है, मगर देशवासियों की नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उन्नति उनके एजेण्डे में दूर-दूर तक कहीं शामिल नहीं है
       "व्यवस्था" इसलिए जिम्मेदार है कि प्रशासन, पुलिस और न्याय व्यवस्था करीब-करीब चरमरा गयी है। इन तीनों व्यवस्थाओं के पंगु होने के पीछे जो कारण है, वह यह है कि देश की राजसत्ता गलत लोगों के हाथों में चली गयी है। राजसत्ता में गलत लोगों का प्रभुत्व इसलिए कायम हो गया है कि हमारी चुनाव प्रणाली दूषित है। अब यहाँ शाश्वत समस्या यह है कि जिन गलत लोगों का राजसत्ता में प्रभुत्व कायम हो गया है, वे चुनाव प्रणाली के दोषों को दूर नहीं होने देंगे।
       इस प्रकार, हम पाते हैं कि सिर्फ महिलाओं के प्रति दुष्कर्म ही नहीं, बल्कि देश की प्रायः सभी समस्याओं का जो "पूर्णकालिक" समाधान है, वह यह है कि देश की राजसत्ता सही लोगों के हाथों में सौंपी जाय। फिलहाल यह "पूर्णकालिक" समाधान दूर की कौड़ी नजर आती है।
       ***
       हाल-फिलहाल तो महिलाओं को "तात्कालिक" समाधान से काम चलाना पड़ेगा। इसके तहत महिलाओं को सरकार, प्रशासन, पुलिस और अदालत से कोई उम्मीद नहीं रखनी होगी। इसके बदले उन्हें अपने पर्स या हैण्डबैग में (सौन्दर्य सामग्रियों के साथ-साथ) पेपर-कटर, पेंचकस या ऐसी ही कुछ चीजों को रखना होगा, जिनका प्रयोग आपात्कालीन परिस्थितियों में हथियार के रुप में किया जा सके।
       मुझे वाकई उस दिन तसल्ली मिलेगी, जिस दिन मैं यह समाचार सुनूँगा कि एक किशोरी ने पेपर-कटर से हमला करके तीन मनचलों को बुरी तरह घायल कर दिया; या, एक युवती ने छेड़खानी करने वाले एक युवक के पेट में छह ईंच लम्बा पेंचकस घोंप दिया; या फिर, एक महिला ने बलात्कार करने की कोशिश कर रहे आदमी के अण्डकोष पर अपने घुटनों से वार करके उसे सदा के लिए नपुँसक बना दिया।
       ठीक है कि ऐसा करने वाली महिलायें फिर शायद सामान्य जीवन न बिता सके, मगर दो बातों पर विचार करके देखा जाय- 1. ऐसी दो-चार खबरें आने के बाद मनचले तथा आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग क्या सपने में भी छेड़खानी या दुष्कर्म करने का साहस जुटा पायेंगे? और 2. धूप से तपती धरती पर गिरने वाली बरसात की पहली बूँदों को क्या फनाह नहीं होना पड़ता है? यानि क्या भगत सिंह यह सोचकर क्रान्तिकारी बने थे कि देश को आजाद कराने के बाद वे इसका प्रधानमंत्री बनेंगे? जाहिर है, किसी-न-किसी को तो पहल करने ही होगी... दूसरों के लिए।
       *****  
       ऊपर मैंने कहा कि महिलाओं के प्रति दुष्कर्म ही नहीं, बल्कि देश की प्रायः सभी समस्याओं का जो "पूर्णकालिक" समाधान है, वह है राजसत्ता को सही लोगों के हाथों में सौंपना। यही नहीं, सत्ता पर काबिज गलत लोगों को निकाल बाहर कर उन्हें निकोबार के किसी टापू पर निर्वासित करना भी जरुरी है।
       मुझे नहीं लगता कि एक तानाशाह, एक डिक्टेटर के अलावे कोई और इस काम को कर सकता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए स्पष्ट लग रहा है कि अगर समाज के लोगों का नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उत्थान करना है; प्रशासन, पुलिस और न्याय व्यवस्था को चाक-चौबन्द, त्वरित एवं न्यायप्रिय बनाना है, तो दस वर्षों की एक तानाशाही की स्थापना करनी ही होगी।  
...और इस तरह की जनकल्याणकारी तानाशाही की स्थापना- बेशक, 10 वर्षों के लिए- तभी हो सकती है, जब देश के नागरिक व सैनिक कन्धे से कन्धा मिलाकर, कदम से कदम मिलाकर सड़कों पर उतरें। जब मैं 'नागरिक' कह रहा हूँ, तो मेरा आशय 'आम' लोगों, खासकर युवाओं से है, न कि अन्ना हजारे या स्वामी रामदेव-जैसे जन-नेताओं से, जो बात-बात पर आमरण अनशन करने लगते हैं और प्रेरणा पाने के लिए राजघाट पहुँच जाते हैं; इसी प्रकार, जब मैं 'सैनिक' कह रहा हूँ, तो मेरा ईशारा 'जवानों' तथा उनके सूबेदारों से है, न कि जेनरलों से, जो सत्ता पर काबिज गलत लोगों की साजिशों में शामिल होने (सन्दर्भ: हेलीकॉप्टर घोटाले में पूर्व वायुसेना प्रमुख के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल होना) को मजबूर हो जाते हैं, जबकि "देश की भलाई" के लिए उन्हें सत्ता पर काबिज गलत लोगों के कान उमेठने चाहिए।
       मैं पूरे होशो-हवास में अपने ये विचार प्रकट कर रहा हूँ- अगर यह बगावत है, तो अपने देश की भलाई के लिए मैं बागी भी बनने के लिए तैयार हूँ।
नेताजी सुभाष ने भी तो ब्रिटिश सरकार से भीख माँगकर, थोड़ा-थोड़ा करके आजादी लेने से इन्कार किया था, फिर मैं क्यों उम्मीद रखूँ कि ये बिल, वो बिल पास करके; यह कानून, वह कानून बनाकर; इसे हटाकर, उसे बैठाकर देश की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है? क्या पैंसठ साल कम थे इन सबके लिए? हजारों तो कानून बन गये, हर विचारधारा वाले को सत्ता पर बिठाया गया- कहीं रत्ती भर भी कुछ बदला? अगस्त'1947 में जिन समस्याओं से हम जूझ रहे थे, वे तो जस के तस कायम हैं ही, दर्जनों नयी समस्यायें हमारा जीना मुहाल कर रही हैं।
       ***
       दुर्भाग्य यह है उस समय देश के "नागरिक" तथा ब्रिटिश सेना के भारतीय "जवान", दोनों ही नेताजी सुभाष के सन्देश को ग्रहण नहीं कर पाये थे और वे अप्रैल' 44 में बगावत करने से चूक गये, जब नेताजी इम्फाल-कोहिमा सीमा पर युद्ध करते हुए भारत में प्रवेश करना चाहते थे। उनदिनों भारतीय तीन भ्रमों के शिकार थे- पहला भ्रम: "ब्रिटिश साम्राज्य अभी सैकड़ों वर्षों तक कायम रहेगा।" जबकि विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद समाप्त हो जायेगा और उपनिवेशों को आजादी देनी पड़ेगी- यह दीखने लगा था। दूसरा भ्रम: "विश्वयुद्ध के बाद विजयी देश होने के कारण ब्रिटेन और भी ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र बन जायेगा।" जबकि वस्तविकता यह थी कि अमेरिका और सोवियत संघ के रुप में दो नयी शक्तियों के उभरने के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे। तीसरा भ्रम: "ब्रिटिश न्यायप्रिय होते हैं, वे जो करेंगे अच्छा ही करेंगे।" जबकि वास्तविकता यह थी कि ब्रिटिश बहुत ही शातिर कमीन थे, जिन्होंने इस देश के संसाधनों को बुरी तरह निचोड़ा था। ...और जाते-जाते भी वे भारत को शारीरिक-मानसिक रुप से अपंग, अपाहिज बनाकर ही गये।
... और आज भी मेरे "बागी" विचार से सहमत होने वाला कोई नहीं है- मेरे अपने, मेरे करीबी तक नहीं। प्रसंगवश, मैं सेना में रहा हूँ- वहाँ भी कोई मेरे विचार से सहमत नहीं होता था।
       ऐसा इसलिए है कि आज भी हम भारतीयों के दिलो-दिमाग पर "तीन महान भ्रमों" ने कब्जा कर रखा है-
पहला भ्रम: "15 अगस्त 1947 को देश को "आजादी" मिली थी।" जबकि वास्तविकता यह है कि उसदिन "सत्ता-हस्तांतरण" हुआ था और सांकेतिक रुप से ही सही, मगर हमारा देश आज भी ब्रिटेन का एक डोमेनियन स्टेट है, जिस कारण हम आज भी पाकिस्तान, श्रीलंका तथा अन्यान्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में अपने "राजदूत" नहीं भेज सकते- हम वहाँ "उच्चायुक्त" भेजते हैं।
दूसरा भ्रम: "हमारा संविधान एक महान संविधान है।" जबकि वास्तविकता यह है कि इसका दो-तिहाई हिस्सा (प्रायः 70 प्रतिशत अंश) '1935 का अधिनियम' है, जिसे अँग्रेजों ने एक 'गुलाम' देश पर 'राज' करने के लिए बनाया था, न कि एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाने के लिए।
तीसरा भ्रम: "हमारे देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली कायम है।" जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने चुनाव क्षेत्र के प्रायः दो-तिहाई (70 प्रतिशत) मतदाताओं का प्रतिनिधित्व "नहीं" करते हैं और हमारे संसद में बैठने वाले लगभग साढ़े पाँच सौ जनप्रतिनिधि देश की जनता की भलाई के लिए नीतियाँ नहीं बनाते, बल्कि 5-7 शक्तिशाली सांसदों की एक "किचन कैबिनेट" विश्व बैंक, आईएमएफ, ड्ब्ल्यूटीओ तथा अमीर देशों के दलाल बनकर पूँजीपतियों, उद्योगपतियों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों को फायदा पहुँचाने और देश के संसाधनों को लूटने की नीयत से नीतियाँ बनाते हैं।
जब तक देशवासियों के दिलो-दिमाग से इन भ्रमों का सफाया नहीं हो जाता, इस देश में बदलाव की गुंजाइश एक रत्ती भी नहीं है।
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इतना सब पढ़कर अगर आपको यह लगे कि मैं अनर्गल प्रलाप कर रहा हूँ, तो मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि दो हजार साल पहले इस देश को जानने-समझने के बाद सिकन्दर ने अपने सेनापति से ठीक ही कहा था कि- "सत्य सेल्यूकस, क्या विचित्र यह देश है!"
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मंगलवार, 12 मार्च 2013

116. विचार तथा नियति की रेखा


विचार एक तरह की "ऊर्जा" है (हालाँकि यह वैज्ञानिक रुप से साबित नहीं हुआ है), जो "तरंगों" के रुप में बहता है. ये तरंगें दूसरों के विचारों से तो टकराती हैं, साथ ही, "नियति" की रेखा से भी टकराती हैं ("नियति" "समय" की ही रेखा है, जिसके आदि-अन्त को हम नहीं जानते. इसपर भूत-वर्तमान-भविष्य की सारी घटनायें दर्ज रहती हैं. हालाँकि इसका भी अस्तित्व अभी सिद्ध नहीं हुआ है.)
एक-दो व्यक्तियों के विचार शायद नियति की रेखा तक पहुँचते ही नहीं हैं- उसपर असर डालना तो दूर की बात है. जब बहुत सारे लोग एक-जैसा सोचने लगते हैं, तो "नियति" की रेखा पर विचार-तरंगों का खासा प्रभाव पड़ता है और नियति की रेखा में भविष्य के लिए दर्ज घटनाओं में विचार के अनुसार परिवर्तन हो जाते हैं. दूसरे शब्दों में, जब बहुत-से लोग एक-जैसा विचार रखने लगते हैं, तब जाकर वह विचार व्यवहार में परिणत होता है.  
आज अगर देश 120 करोड़ में से सवा करोड़ लोग किसी एक विचार को मन-प्राण से अपना लें, तो फिर देखिये, 2-4 साल के अन्दर ही वह विचार लागू होता है या नहीं! मगर ऐसा नहीं होगा... हम भारतीयों की "मानसिक" स्थिति अभी उस स्तर तक पहुँची ही नहीं है कि देश के 1 प्रतिशत लोग भी देश की भलाई के बारे में सोच सकें. वे हजारों विचारधाराओं में बँटे हुए हैं. यही नहीं, वे विरोधी विचार रखने वालों की टाँग खींचने के लिए भी दुनियाभर में जाने जाते हैं.
एक प्रतिशत तो बहुत ज्यादा हो गया... 4 भारतीय भी एक-जैसा विचार नहीं रख सकते, या एक-दूसरे का साथ नहीं दे सकते- चाहे मुद्दा मातृभूमि की भलाई से ही क्यों न जुड़ा हो! ताजा उदाहरण हैं- अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी.
इसीलिए अच्छे विचारों को बस फैलाया जाय.... हजार-लाख में कोई एक एक भी ग्रहण कर ले तो बहुत है... और इस उम्मीद पर कायम रहा जाय कि जब बहुत-से लोग अच्छा सोचते हैं, तो कुछ अच्छा घटित होता है... 

रविवार, 10 मार्च 2013

115. "काली शक्ति" (The Dark Power)


 


       लम्बे समय से मेरे मन में यह सन्देह पल रहा है कि एक "काली शक्ति" है इस देश में, जिसने गुप्त रुप से यह प्रण ले रखा है कि वह- 1. इस देश को अर्थिक रुप से दिवालिया बनाकर रहेगी; 2. यहाँ राजनीतिक अराजकता या अस्थिरता के हालात पैदा कर के रहेगी; 3. ऊपर से नीचे तक हर भारतीय को भ्रष्ट, बे-ईमान, चरित्रहीन बनाकर रहेगी, और 4. यहाँ के सामाजिक ताने-बाने या यहाँ की सभ्यता-संस्कृति को तहस-नहस कर के छोड़ेगी!    


       मुझे लगता है कि वह शक्ति बहुत ही शातिर है। बहुत ही ठण्डे दिमाग से वह अपनी चालें चल रही है। एक-एक कर वह अपने सभी मनसूबों को पूरा कर रही है। उसने अपने धुर विरोधियों तक को या तो काले जादू से सम्मोहित कर रखा है; या फिर, उनके कच्चे चिट्ठों को दबाये रखकर उन्हें दब्बू बना रखा है! अपने मनसूबों की कामयाबी के बाद इस देश से छू-मन्तर होने की फूलप्रूफ योजना भी उसने बना रखी है।  


       मेरे इस सन्देह को कल-परसों फिर बल मिला, जब मुझे पता चला कि "आपसी सहमति से शारीरिक सम्बन्ध कायम करने" के लिए उम्र सीमा 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष की जा रही है! मैं इसे देश अगली पीढ़ी के "चारित्रिक पतन" के लिए बड़ी ही सूझ-बूझ से रची जा रही एक साजिश मानता हूँ! क्योंकि हम सब जानते हैं कि 16 वर्ष की उम्र में भारतीय किशोर आम तौर पर मासूस एवं चरित्रवान होते हैं! (बाद में उनकी यह मासूमियत तथा आदर्शवादिता कहाँ खो जाती है और क्यों वे "ऊपरी कमाई" वाली नौकरी तलाशने लगते हैं- इस पर अलग से शोध की जरुरत है।)  


        ***


       थोड़ी देर के लिए विषय से हटता हूँ


       गाँधीजी की "अहिंसा की जिद" के चलते अगर "असहयोग आन्दोलन" विफल न हुआ होता, तो हमें 1922 में आजादी मिल गयी होती। इसके 22 साल बाद ब्रिटिश सेना के भारतीय जवानों ने अगर "महान ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति राजभक्ति" का परित्याग करते हुए नेताजी सुभाष का साथ दिया होता, तो आजादी 1944 में मिल जाती। 1922 या 44 में मिली आजादी "असली" आजादी होती। तब हम अँग्रेजों के किसी भी शर्त को मानने के लिए बाध्य नहीं होते और (उसके "1935 के अधिनियम" को कचरे की पेटी में फेंकते हुए) हमने अपना खुद का संविधान बनाया होता! बेशक, यह संविधान "भारतीय" होता, जिसमें चाणक्य-जैसे विद्वानों की नीतियों तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति के मूलभूत तत्वों का समावेश होता!


       चाण्क्य की एक नीति यह भी है कि किसी राजा की पत्नी विदेशी मूल की नहीं होनी चाहिए! जरा सोचिये... अगर इस नीति को हमारे भारतीय संविधान में अपनाया गया होता, तो- बकौल नोस्त्रादमूस- तीन तरफ पानी से घिरे देश में 'आकाश से उतरकर' कोई राजा नहीं बन सकता था, क्योंकि उसकी पत्नी विदेशी मूल की होती! (मगर ऐसा हुआ। क्यों? क्योंकि "नियति" ने इसे तय कर रखा था। तभी तो सैकड़ों साल पहले इसकी भविष्यवाणी हुई!)


       अगर भारतीय सभ्यता-संस्कृति के मूलभूत तत्वों को संविधान में अपनाया गया होता, तो 25 साल की उम्र तक हर किसी को पठन-पाठन या खेल-कूद में व्यस्त रहने, फिर आजीविका कमाने की सलाह दी जाती और तब जाकर शादी-ब्याह के बारे सोचने के लिए उन्हें कहा जाता।


       मगर यहाँ तो चीख-चीख कर अब तक तो कण्डोम बेचा जा रहा था और अब उन्हें 16 साल की उम्र में ही शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है! मकसद क्या है?


       वही- कि देश की अगली पीढ़ी, जिसके कन्धों पर देश चलाने की जिम्मेवारी आयेगी, वह शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक रुप से लुंज-पुंज हो! बताईये, पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने की उम्र में हमारे बच्चों को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए हमारी राजसत्ता बाकायदे उकसा रही है!


       ***


       अब तो बस यही सोच रहा हूँ कि "नियति" ने इस देश के भविष्य के बारे में आखिर तय क्या कर रखा है... ?

गुरुवार, 7 मार्च 2013

114. अलविदा शावेज!


आधुनिक भारत के तीन नायकों से मैं खुद को प्रभावित महसूस करता हूँ: 1. स्वामी विवेकानन्द, 2. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और 3. लाल बहादूर शास्त्री

       अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिनसे मैं खुद को प्रभावित महसूस करता हूँ, वे हैं: 1. कमाल पाशा, 2. नेल्सन मण्डेला और 3. फिदेल कास्त्रो। इसी कड़ी में पिछले दिनों एक और नाम जुड़ गया था- ह्यूगो शावेज! यह संयोग ही है कि ये चारों राष्ट्राध्यक्ष रहे हैं।

       मैं अपने लेखों में ऐसा जिक्र करता हूँ कि अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, अरविन्द केजरीवाल को अगर कोई एक मंच पर ला सकता है, तो वे जेनरल वीके सिंह हैं- मुझे इस देश में बदलाव लाने का बस यही एक रास्ता दीख रहा है। (मेरे ज्यादातर साथियों को नरेन्द्र मोदी के रुप में बदलाव का रास्ता दीख रहा है- मगर मेरी अन्तरात्मा ने मुझे अब तक इस रास्ते का समर्थन करने के लिए आवाज नहीं दिया है। मुझे ऐसा लगता है कि वे पूँजीपतियों/उद्योगपतियों/बहुराष्ट्रीय निगमों/अमीर देशों के प्रधानमंत्री ही साबित होंगे! ...वैसे, अगले तीन-चार वर्षों में ही साफ हो जायेगा कि मैं गलत हूँ या सही। खैर।)

       बात शावेज की हो रही है। उनके बारे में ज्यादा कुछ न कहकर मैं दैनिक प्रभात खबर के एक पन्ने का लिंक साझा कर रहा हूँ, जिसमें शावेज के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गयी है:

 http://www.prabhatkhabar.com/node/271977?page=show

       और इसी लेख से मैं ह्यूगो शावेज के कथन को उद्धृत कर रहा हूँ, जो मुझे काफी पसन्द आया और जो मेरे विचारों से मेल खाता है। कथन है:

       "जब नागरिक-सरकार समाज में गरीबों के हितों की रक्षा करने में विफल हो जाये, तब मिलिट्री का यह कर्तव्य होता है, कि वह सत्ता में हस्तक्षेप करे।"

       भारत के सन्दर्भ में "मिलिटरी का हस्तक्षेप" कुछ इस प्रकार का होना चाहिए-

1.     वह अगले नागरिक आन्दोलन को समर्थन दे,

2.     नागरिक आन्दोलनकारियों पर बलप्रयोग करने से पुलिस/अर्द्धसैन्य बलों को मना कर दे,

3.     फिर भी, अगर पुलिस/अर्द्धसैन्य बलों के जवान राजनेताओं के प्रति अपनी स्वामीभक्ति दिखाते हुए आन्दोलन को कुचलने की कोशिश करे, तो सेना अपनी कुछ बटालियनों को नागरिकों की रक्षा के लिए बैरकों से बाहर सड़कों पर निकाल दे,

4.     नागरिक अगर 'लुटियन बंगलों' को खाली कराकर वरिष्ठ नागरिकों की एक 'कार्यकारी परिषद' को सत्ता सौंपना चाहे, तो ऐसा होने दे,

5.     उस 'कार्यकारी परिषद' में वारिष्ठ नागरिकों (जो अलग-अलग विषयों के जानकार होंगे) के साथ-साथ न्यायपालिका तथा सेना को भी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए,

6.     अब इस कार्यकारी परिषद को (क) देश की व्यवस्था में जरूरी बदलाव लाना चाहिए (जिन्हें पहले "सत्ता-हस्तांतरण" की शर्तों के कारण और अब विश्व बैंक वगैरह के दवाब कारण नहीं लाया जा रहा है), (ख) चुनाव-प्रणाली में बदलाव लाकर एक "आदर्श" चुनाव आयोजित कराना चाहिए और फिर (ग) देश की राजसत्ता नयी लोकतांत्रिक सरकार को सौंप देनी चाहिए।

मुझे नहीं लगता कि इसके अलावे कोई और रास्ता बचा है इस देश में बदलाव लाने का।

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ऊपर शावेज को समर्पित 'प्रभात खबर' के एक पन्ने का एक लिंक दिया गया है. इसके अलावे सम्पादकीय में भी शावेज पर कुछ लिखा है. संक्षिप्त होने के कारण उसे साभार यहाँ उद्धृत करता हूँ: 

शावेज जिंदा हैं, संघर्ष जारी है!
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वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज नहीं रहे. इतिहास के अंत की घोषणाओं और दुनियाभर में नव-उदारवाद के प्रसार के दिनों में लैटिन अमेरिकी समाजवाद के इस अभूतपूर्व योद्घा ने दुनिया के अर्थतंत्र पर अमेरिका की बादशाहत को पूरे चौदह सालों तक अपने ठेंगे पर रखा और अपने देश वेनेजुएला सहित पेरू, चिली, अर्जेंटीना और इक्वाडोर में समाजवाद का अलख जगाया. इस पूरे इलाके के लोगों को भरोसा दिलाया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राज से छुटकारा संभव है और बेहतर दुनिया के लिए ‘साझी मानवता का साझा स्वप्न’ धरती पर साकार किया जा सकता है. अमेरिका और यूरोपीय देश कहते रहे कि वेनेजुएला में न तो मानवाधिकारों का सम्मान है, न लोकतांत्रिक आजादी, पर शावेज लोगों के चहेते बन कर लगातार चुनाव जीतते रहे. उनके राष्ट्रपति रहते वेनेजुएला में लोक कल्याणकारी कामों पर सरकारी खर्च पहले की तुलना में 61 फीसदी बढ़ा. शावेज के शासन काल में देश की गरीबी 51 फीसदी से घट कर 21 फीसदी रह गयी. वेनेजुएला कभी अपने खाद्यात्र की जरूरत का 90 फीसदी आयात करता था. शावेज के शासन के वर्षों में यही आयात महज 30 फीसदी रह गया. अस्पताल और डॉक्टर बढे., चिकित्सा नि:शुल्क हुई. पेंशन पानेवाले बुजुगरें की तादाद सात गुना बढ.ी, बच्चों में कुपोषण घटा. आज वेनेजुएला में तकरीबन सारी आबादी को साफ पेयजल और विश्‍वविद्यालय स्तर की शिक्षा मुफ्त हासिल है. यह सब हुआ वेनेजुएला के उस तेल के पैसे से जिनके व्यापार पर कभी अमेरिकी कंपनियों का राज था और जिसकी कमाई का बहुत सारा हिस्सा वेनेजुएला के चंद चयनित हड.प ले जाते थे. तेल कंपनियों के राष्ट्रीयकरण के बूते शावेज ने पूरे लैटिन अमेरिका में एक नया अर्थतंत्र खड.ा करने की कोशिश की. वे पूरे लैटिन अमेरिका को एक इकाई मानते थे और उसी हिसाब से तेल या फिर इसके व्यापार से हासिल रकम इन देशों की सरकारों को लोक-कल्याण के लिए देते थे. ठीक इसी कारण, आज जब शावेज नहीं हैं, तो पूरे लैटिन अमेरिका में शोक की लहर है. इस शोक की लहर के बीच अज्रेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना फर्नांडीज ने सारी राजकीय गतिविधियां बंद कर दी हैं. ब्राजील की राष्ट्रपति डिल्मा रॉसेफ ने अपनी अर्जेंटीना यात्रा रद्द कर दी है और उनकी मौत को कभी न भरी जा सकनेवाली क्षति बताया है. बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोराल्स कास्त्रो बंधुओं से मिलने क्यूबा के लिए रवाना हो रहे हैं और वेनेजुएला में लोग गा रहे हैं- ‘शावेज जिंदा हैं, और संघर्ष जारी है.’
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पुनश्च: 
11 मार्च को साहित्यकार रविभूषण जी ने भी प्रभात खबर में शावेज पर एक लेख लिखा, जिसका लिंक है- 
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=10&queryed=9&eddate=3%2F11%2F2013 

13 मार्च को तारिक अली के लेख को प्रभात खबर ने गार्जियन से साभार उद्धृत किया, उसका लिंक-
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=8&queryed=9&eddate=3/13/2013%2012:00:00%20AM