शनिवार, 9 जून 2012

शोषण, दोहन और उपभोग पर आधारित इस व्यवस्था को ध्वस्त होना ही है...


      ढाई हजार साल पहले ही गौतम बुद्ध ने बता दिया था कि हमारी आवश्यकतायें अनन्त हैं और उन्हें पूरा करने के साधन सीमीत। इन "सीमीत साधनों" से जब हम अपनी "अनन्त आवश्यकताओं" को पूरा नहीं कर पाते, तब हम दुःखी होते हैं।
      यह एक ध्रुव सत्य है। इसके अनुसार, अगर हमें सुखी रहना है, तो हमें दो में से एक रास्ते पर चलना होगा- पहला, अपनी आवश्यकताओं को हम उपलब्ध साधनों / संसाधनों के अनुरुप सीमीत कर लें / ढाल लें; और दूसरा, अपनी आवश्यकताओं के अनुसार साधनों / संसाधनों की मात्रा बढायें।
      18वीं सदी की औद्योगिक क्रान्ति से पहले मानव समाज कमोबेश पहले रास्ते पर चलता था- पर्यावरण के अनुसार खुद को ढालते हुए और प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकतानुसार दोहन करते हुए। मानव तब सुखी था- यह दावा हालाँकि फिर भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि मानव द्वारा मानव का शोषण काफी पहले से इस सभ्यता में मौजूद है।
      औद्योगिक क्रान्ति के बाद मानव ने दूसरे रास्ते पर चलना शुरु किया। "शोषण" के साथ-साथ "दोहन" की बुराई मानव-समाज में प्रवेश कर गयी- प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ डालने की प्रवृत्ति! संसाधन बढ़ाओ, ताकि हमारी हर आवश्यकता पूरी हो सके! यह भूख, यह हवस, यह पागलपन आज भी लगातार बढ़ता जा रहा है! यही हवस "भ्रष्टाचार" एवं "अमीरी" को भी जन्म दे रहा है, जिनसे सारी दुनिया के लोग त्रस्त हैं।
      तीसरी और (सम्भवतः) आखिरी बुराई जुड़ी 20वीं सदी की वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्रान्ति के बाद- "उपभोगवाद"! यह "उपभोगवाद" विशुद्ध रुप से उन पश्चिमी या पाश्चात्य देशों के ज्ञान से पैदा हुआ, जहाँ उपनिवेशों से लूटकर लाये गये धन तथा गुलाम बनायी गयी मानव-शक्ति के बल पर औद्योगिक क्रान्ति या तरक्की हुई थी। "लूट" एवं "शोषण" की नींव पर "आधुनिक" हुई सभ्यता से और किस प्रकार के "ज्ञान" की उम्मीद रख सकते हैं हम?  
      ("भोग" व "उपभोग" में वही अन्तर समझें, जो "पत्नी" एवं "उपपत्नी" में हो सकता है- ज्यादा दार्शनिकता में जाने की जरुरत क्या है?)
      ***
      अभी परसों ही (7/6/12) दैनिक 'प्रभात खबर' में वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा का साक्षात्कार देखा, जिसमें वे स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि-
      "...एक-दो सौ सालों में विशाल नगरीय व्यवस्थायें ऊर्जा एवं पर्यावरण संकट की वजह से खत्म हो जायेंगी। आवागमन की व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ये चीन की दीवार और मिश्र के पिरामिड की तरह खण्डहर बनकर नुमाइश की चीजें बन जायेंगी।"
      उनके अनुसार-
      "...जिस तरह से औद्योगिक विकास हो रहा है, उससे अब किसी परमाणु युद्ध की जरुरत नहीं है। औद्योगीकरण ही विश्व को बर्बाद करने के लिए काफी है। पर्यावरण की जो स्थिति बन रही है, उससे कहीं-न-कहीं हमलोग उस स्थिति की ओर बढ़ते जा रहे हैं।"
      यानि शोषण, दोहन और उपभोगवाद पर आधारित महानगरीय व्यवस्था का विनाश हो जायेगा। फिर क्या होगा? क्या समता, पर्यावरण-मित्र और उपयोगवाद पर आधारित एक नयी व्यवस्था का जन्म होगा?
      ("उपयोगवाद" व "उपभोगवाद" का अन्तर नाम से समझ लें।)
भगत सिंह भी क्या ऐसा ही नहीं सोचते थे-
      "विनाश, रचना के लिए न केवल आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य भी है!"
      अगर एक नयी व्यवस्था का जन्म होना ही है, तो वह भारत से ही क्यों न हो? क्या भारत से उपयुक्त कोई और देश दुनिया में है, जो साधनों के अनुरुप अपनी आवश्यकताओं को सीमीत करके जीने की शैली का उदाहरण प्रस्तुत कर सके?
दूसरी बात- वर्तमान व्यवस्था के पतन की राह तकते हुए दो सौ साल तक इन्तजार क्यों किया जाय? दो साल के अन्दर नयी व्यवस्था की नींव क्यों न रख दी जाय?
दुर्भाग्य यह है कि जिन्हें नयी व्यवस्था की नींव रखनी है, वे ही आठ प्रतिशत और सोलह प्रतिशत का "विकास" दर हासिल करने के लिए उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण की अन्धी गलियों में दौड़ लगा रहे हैं!
तो अब रास्ता क्या बचा?
वर्षों पहले (30 जुलाई 1998 को) 'जनसत्ता' में वयोवृद्ध अर्थशास्त्री डा. अरुण घोष का साक्षात्कार पढ़ने का मौका मिला था इस सवाल के जवाब में कि देश का भविष्य वे कैसा देखते हैं, उनका कहना था-
मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ भविष्य में क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता पर समाज विचलित हो रहा है जनता की नाराजगी बढ़ रही है मेरा मानना है कि संसद वर्तमान स्थिति को रोकने की हालत में नहीं है सभी पार्टियाँ इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं, और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है
मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें, तो शायद कुछ हो

शुक्रवार, 8 जून 2012

'संसद भवन' की बनावट पर एक 'दकियानूसी' विचार


7/6/2012



      आजादी (ईमानदारी से कहा जाय, तो सत्ता-हस्तांतरण) के इतने वर्षों के बाद आज देश को जिस मुकाम पर होना चाहिए, वहाँ यह नहीं पहुँच पाया; जबकि प्राकृतिक संसाधनों से लेकर प्रतिभाशाली एवं मेहनती मानव-शक्ति तक, हर चीज यहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी और आज भी है!
      विश्लेषण करेंगे, तो इसके बहुत-से कारण निकलकर सामने आयेंगे- अक्षम राजनीतिक नेतृत्व से लेकर नागरिकों की लापरवाह मानसिकता तक।
      मगर आज यहाँ मैं कोई तार्किक विश्लेषण न करके इस समस्या को एक "दकियानूसी" नजरिये से देखने की अनुमति चाहूँगा।
      देश को दिशा-निर्देश कहाँ से मिलता है? संसद-भवन से। संसद-भवन का आकार कैसा है? वृताकार। वृताकार बोले तो "शून्य" का आकार! "शून्य" के आकार वाले भवन में बैठकर अगर देश के कर्णधार लोग देश के लिए दिशा-निर्देश जारी करें, तो इनका क्या, कितना एवं कैसा असर देश पर होगा, इसका अन्दाजा कोई भी 'दकियानूस' लगा सकता है।
       मेरी "दकियानूसी" सलाह यह होगी कि संसद-भवन के चारों तरफ- पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं की ओर चार सीधे गलियारे बनवा दिये जायें। ये गलियारे आगे जाकर अपनी-अपनी दाहिनी ओर मुड़ जायेंगे- नब्बे डिग्री पर। थोड़ा-सा आगे बढ़कर ये मुड़े हुए गलियारे फिर अपनी-अपनी बायीं ओर मुड़ जायें- पैंतालीस डिग्री पर। गलियारों के इन अन्तिम भागों की दिशायें होंगी- ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य कोण की तरफ।
      बेशक इन गलियारों के आकार-प्रकार, सजावट इत्यादि मूल भवन के अनुपात में होने चाहिए।
      अब हमारे संसद-भवन का आकार क्या बनेगा? तो "स्वस्तिक" का! "स्वस्तिक", जो कि प्रतीक है सुख-शान्ति-समृद्धि का- एक शब्द में बोलें तो- "खुशहाली" का।
      क्या पता, इस "टोटके" को आजमाने के बाद चमत्कारिक रुप से देश में कुछ बदलाव आ ही जाये? न भी आये, तो हर्ज क्या है? कौन-सा नुकसान होने जा रहा है? क्या हम अपने जीवन में कभी "टोटके" नहीं आजमाते? 

आज का आन्दोलन और 2014 की रणनीति!


3/6/2012


13 दिसम्बर '11 को मैंने अपने एक आलेख "यह इतिहास को दुहराने का वक्तहै" में लिखा था कि जिस प्रकार (1942 में) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और रासबिहारी बोस देश की आजादी के लिए एक-दूसरे के सिपाही बनने के लिए तैयार हो गये थे, उसी प्रकार आज देश को भ्रष्टाचार एवं कालेधन से मुक्त करने के लिए स्वामी रामदेव एवं अन्ना हजारे को एक मंच पर आ जाना चाहिए। खुशी की बात है कि आज (3 जून '12) के आन्दोलन में दोनों जननेता साथ हैं।
फिर 27 मार्च '12 को मैंने एक दूसरे आलेख "एक पत्र अन्ना के नाम" में लिखा था कि चूँकि "याचना" के स्थान पर "रण" की नीति अपना ली गयी है, अतः अगले आन्दोलन की शुरुआत गाँधीजी के आशीर्वाद से नहीं, बल्कि नेताजी सुभाष या भगत सिंह के आशीर्वाद से होनी चाहिए। खुशी की बात है कि आज के आन्दोलन की शुरुआत स्वामी रामदेव ने 'टिकरी कलां' से की, जहाँ (देश छोड़ने से पहले) नेताजी ने अपना अन्तिम भाषण दिया था। मगर मुझे इसमें दो खटके नजर आये- 1. यहाँ से स्वामी रामदेव "राजघाट" जरुर गये, और 2. अन्ना हजारे यहाँ नहीं दीखे। यानि नेताजी के "रास्ते" को स्वामी रामदेव "आधा" सही मानते हैं और अन्ना हजारे "पूरा" गलत! मेरा आकलन कहता है कि ऐसी अस्पष्ट, डाँवाडोल एवं संशय वाली नीति पर चलकर न कोई जंग जीती जा सकती है, और न ही किसी आन्दोलन को सफल बनाया जा सकता है! "हक" व "भीख" दोनों की बात आप साथ-साथ नहीं कर सकते! "रण" व "याचना" दोनों नावों पर एक साथ सवारी करने का अंजाम आप समझ ही सकते हैं!
***
खैर, सुना कि आज ही 2014 के आम चुनाव के मद्दे-नजर रणनीति भी बनायी जायेगी। यह ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है- कम-से-कम मेरे लिए।
जिन दो ऐतिहासिक तथ्यों पर लोगों का ध्यान कम जाता है, वे हैं- 1. 1947 में गाँधीजी द्वारा सत्ता सम्भालने से इन्कार करना और 2. 1975 में जयप्रकाश नारायण द्वारा सत्ता सम्भालने से इन्कार करना। (यहाँ उम्र मायने नहीं रखता- आप "उप"प्रधानमंत्री या "कार्यकारी" प्रधानमंत्री नियुक्त करके भी सत्ता सम्भाल सकते थे!)  
आज इतिहास अपने को "तिहरा" रहा है- जब स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे दोनों ने सत्ता की बागडोर थामने से साफ इन्कार कर दिया है। इसीलिए मेरी दिलचस्पी ज्यादा है कि देखें "मिशन 2014" के लिए वे क्या रणनीति बनाते हैं!
जाहिर है, अगर वे काँग्रेस के स्थान पर भाजपा को चुनने की बात करते हैं, तो जनता उन्हें नकार देगी। क्योंकि यह "नागनाथ" के स्थान पर "साँपनाथ" को चुनने वाली बात होगी। मुझे तो आशंका है कि "आर्थिक" नीतियों पर भाजपा काँग्रेस से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण को वह ज्यादा आक्रामक रुप से अपना सकती है। इसी प्रकार विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अमेरीका की नीतियों को वह ज्यादा जोर-शोर से लागू कर सकती है। इनके फलस्वरुप देश में गरीबी-अमीरी की खाई और ज्यादा चौड़ी हो जायेगी, जो देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करेगी, और कुछ नहीं!
अगर वे चुनाव में "अच्छे" उम्मीदवारों को चुनने की सलाह लोगों को देते हैं, तो सब जानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत अच्छे लोग उम्मीदवार बनते ही नहीं हैं। यह सलाह बेकार साबित होगी- एक "बला टालने" वाली सलाह!
हाँ, अगर वे खुद उम्मीदवार खड़े करने की नीति अपनाते हैं, तो यह एक कारगर उपाय हो सकता है- व्यवस्था परिवर्तन का। यहाँ मुझे सिर्फ दो सन्देह हैं, जो गलत भी साबित हो सकते हैं- 1. चूँकि आम जनता आज भी जात-पाँत आदि देखकर वोट देती है, अतः उससे हम ज्यादा उम्मीद नहीं रख सकते; 2. ई.वी.एम. मशीनों पर- व्यक्तिगत रुप से- मैं भरोसा नहीं करता। अगर मेरी आशंकायें सही साबित हुईं, तो रामदेव-अन्ना के पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और व्यवस्था-परिवर्तन एक सपना ही रह जायेगा!
***
अन्त में, ज्यादा विस्तार में न जाते हुए मैं स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को नेताजी सुभाष का एक कथन याद दिलाना चाहूँगा और अनुरोध करूँगा कि वे ध्यान लगाकर, दिमाग ठण्डा रखकर और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार करें कि नेताजी ने ऐसा कहा था तो क्यों कहा था; और क्या उनका यह कथन आज की तारीख में कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक नहीं हो गया है?-
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद इस भारत में पहले बीस वर्ष के लिये तानाशाही राज्य कायम होनी चाहिये एक तानाशाह ही देश से गद्दारों को निकाल सकता है"
"भारत को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये एक कमाल पाशा की आवश्यकता है
मैं तो इस कथन में ही भारत का पुनरुत्थान देखता हूँ और दस वर्षों की तानाशाही के लिए मैंने बाकायदे एक "घोषणापत्र" भी तैयार कर रखा है- यह तो आप जानते ही हैं! 

"आदर्श विश्व व्यवस्था" की घटना आसन्न है!


25/5/2012

ऐसा नहीं है कि सिर्फ विकासशील एवं गरीब देशों के नागरिक ही पूँजीवादी शोषण से त्रस्त हैं और इससे मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे हैं; बल्कि अमीर एवं विकसित देशों के नागरिक भी इस क्रूर, निर्दय एवं वीभत्स शोषण के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं और अपनी आवाज बुलन्द कर रहे हैं
जाहिर है, जैसे दो दशक पहले अप्रत्याशित रुप से साम्यवाद के छोटे-बड़े सभी गढ़ एक-एक कर ढह गये थे; वैसे ही पूँजीवादी साम्राज्य के छोटे-बड़े सभी किले अब ढहने वाले हैं। इस पतन की शुरुआत भी अप्रत्याशित तरीके से होगी। अगर 2 वर्षों के अन्दर ऐसा हो जाय, तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा!
सच पूछिये तो 'साम्यवाद' व 'पूँजीवाद' दो "ध्रुव" हैं और ध्रुवों पर सहज जीवन बिताना मुश्किल होता है। पृथ्वी को ही देख लीजिये- जीवन कहाँ पनपता और फलता-फूलता है- उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव के मध्य में न? तो हमारा जीवन भी उसी व्यवस्था में सहज रहेगा, जो न तो धुर साम्यवादी हो और न ही धुर पूँजीवादी।
वैसे, यह भी सच है कि किसी भी "वाद" या "व्यवस्था" से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है- "शासक/शासकों की नीयत"! सत्ता की बागडोर जिसके हाथों में है, वह अगर अपने देश एवं देशवासियों का भला चाहता है, तो भला कर सकता है। कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि उस देश में साम्यवाद है, पूँजीवाद है, मिश्रित अर्थव्यवस्था है, तानाशाही है, या राजशाही है। 
मैं यह कहना चाहता हूँ कि पूँजीवाद के पतन के बाद एक "आदर्श विश्व व्यवस्था" का जन्म होगा। इस आदर्श व्यवस्था में भी हालाँकि निम्न, मध्यम एवं उच्च वर्ग होंगे; मगर उनके बीच की खाई को एक सीमा से ज्यादा चौड़ा नहीं होने दिया जायेगा। उदाहरण के लिए तीनों वर्गों के लिए "आय एवं सम्पत्ति" का अनुपात 1:3:6, या 1:5:10, या बहुत हुआ तो 1:7:14 तय कर दिया जायेगा। कहने का तात्पर्य, दुनिया में गरीब व अमीर व्यक्ति के बीच आय एवं सम्पत्ति के बीच का अन्तर 14 गुना से ज्यादा नहीं होने दिया जायेगा! कोई देश 6 गुना या 10 गुना की सीमा को भी अपना सकेगा।
इस आदर्श व्यवस्था में सरकारें आय के अनुपात में लोगों से कर या कोई भी फीस लेगी- जैसे, निम्न वर्ग अगर कर/फीस का 5 प्रतिशत चुकायेगा, तो मध्यम वर्ग 50 प्रतिशत और उच्च वर्ग शत प्रतिशत। तीनों वर्गों के लोग अपनी-अपनी जरुरत की सामग्रियाँ एवं सेवायें आसानी से हासिल कर सकेंगे। सरकारें "जनकल्याणकारी" होंगी, न कि मुनाफाखोर! न शोषण होगा, न युद्ध, और न ही धार्मिक उन्माद।
इस व्यवस्था की शुरुआत भारत से होगी- इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। कैसे होगी और कब होगी, इनका उत्तर देना सम्भव नहीं है; मगर मेरा अनुमान कहता है कि एक "आदर्श" प्रकार की तानाशाही इस देश में अप्रत्याशित तरीके से कायम होगी, जो न केवल इस देश को एवं इसके वासियों को फिर से महान बनायेगी, बल्कि भविष्य के लिए आदर्श "लोकतांत्रिक" व्यवस्था की भी स्थापना करेगी। ऐसा कभी भी हो सकता है- हो सकता 2 वर्ष के अन्दर ही यह चमत्कार हो जाये! फिर एक-एक कर दुनिया के सभी देशों के नागरिक अपनी-अपनी सरकारों को बाध्य कर देंगे- "आदर्श विश्व व्यवस्था" में शामिल होने के लिए।
"नियति" एक "समय-रेखा" है, जिसके आदि और अन्त को तो हम नहीं जान सकते, मगर इतना मान सकते हैं कि इस रेखा पर घटनायें "नियत" रहती हैं। इन भावी घटनाओं को "इच्छाशक्ति" या "विचार-तरंगों" से बदला भी जा सकता है। अगर हम विश्व में घट रही घटनाओं का विश्लेषण करें, तो नियति की समय-रेखा पर दर्ज "आदर्श विश्व व्यवस्था" की भावी घटना को देख सकते हैं- यह ज्यादा दूर नहीं है।
अगर यह घटना नियति की रेखा में दर्ज नहीं है, तो भी कोई बात नहीं; हम अपने विचार-तरंगों के बल पर इस घटना को समय-रेखा पर दर्ज करा सकते हैं.... ।
आईये, हम सब मिलकर "आदर्श विश्व व्यवस्था" की स्थापना के लिए प्रार्थना करें- आमीन... । एवमस्तु... । 

पेट्रो-पदार्थों की खपत को कम करने के लिए पाँच-सूत्री उपाय


24/5/2012

प्रस्तुत है पेट्रो-पदार्थों की खपत को कम/नियंत्रित करने के पाँच उपाय:-
1. "मकड़जाल साइकिल ट्रैक" नगरों-महानगरों में "फ्लाइओवर" साइकिल ट्रैकों का निर्माण किया जाय, जो "छायादार" हो और जिसकी संरचना "मकड़ी के जाले" पर आधारित हो। इस ट्रैक के प्रत्येक "जंक्शन" पर सीढ़ियों तथा पार्किंग की व्यवस्था हो। प्रत्येक पार्किंग में पर्याप्त मात्रा में साइकिलें पहले से उपलब्ध हों। लोग नाममात्र की कीमत पर टिकट कटाकर ट्रैक पर आयें, कोई भी साइकिल उठाकर नगर-महानगर के अन्दर कहीं भी जायें और फिर साइकिल छोड़कर नीचे उतर जायें। बेशक, एक टिकट दिनभर के लिए वैध हो!
2. दूकानों के लिए "सौर-बिजली"। मकड़जाल साइकिल ट्रैक पर (छाया के लिए) जो "शेड" हो, उसपर "सौर-प्लेट" बिछा दिये जायें। (इसे कहेंगे- आम के आम, गुठली के दाम!) जंक्शन के नीचे "बैटरी घर" हों और इन बैटरी घरों से डी.सी. बिजली की सप्लाई दूकानों को दी जाय। बदले में दूकानों से जेनरेटर हटा दिये जायें। बड़े-बड़े भवनों, मॉलों से भी जेनरेटर हटवाये जा सकते हैं- अगर हर भवन को "सोलर ऊर्जा" अपनाने के बाध्य कर दिया जाय! रही बात एयर कण्डीशनर की, तो इनके स्थान पर "खस के पर्दों" या "डेजर्ट कूलर" की व्यवस्था की जा सकती है। हाँ, "लिफ्ट" का विकल्प फिलहाल मुझे नहीं सूझ रहा।
3. गाड़ियों की संख्या पर नियंत्रण। न तो हमारा पर्यावरण, न ही हमारी सड़कें मोटर-गाड़ियों की बेतहाशा बढ़ती संख्या को झेलने की स्थिति में है। बेहतर है कि जो नगर-महानगर "प्रदूषित" घोषित किये जा चुके हों, उनमें मोटर-गाड़ियों के पंजीकरण पर प्रतिबन्ध लगा दिये जायें। गाड़ियों का "स्थानान्तरण" भी वहाँ न होने पायें। ये प्रतिबन्ध तब तक जारी रहने चाहिए, जब तक कि नगर-महानगर "प्रदूषणमुक्त" घोषित न हों!
4. सेनाओं के लिए "सिमुलेटर"। एक लड़ाकू विमान या एक टैंक अपने "दैनिक" एवं "नियमित" "अभ्यास" के दौरान जितनी मात्रा में ईंधन पीता है, उस मात्रा को अगर वायुयानों/टैंकों की कुल संख्या से गुणा करके फिर गुणनफल को 365 से गुणा किया जाय, तो उत्तर देखकर किसी का भी सर चकरा जायेगा! इस बेशकीमती प्राकृतिक संसाधन का यह अन्धाधुन्ध प्रयोग चूँकि "देश की सुरक्षा" के नाम पर हो रहा है, इसलिए कोई उँगली उठाना नहीं चाहता। मगर मैं उँगली उठाता हूँ और कहता हूँ कि सेनाओं में "सिमुलेटरों" की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था की जाय। सेनायें अपना दो-तिहाई अभ्यास सिमुलेटर पर कर सकती हैं। वास्तविक विमानों/टैंकों में एक-तिहाई अभ्यास पर्याप्त होना चाहिए। इस प्रकार पेट्रों-पदार्थों की एक बहुत-बहुत बड़ी मात्रा बचाई जा सकती है!
5. अन्तर्देशीय नौवहन को बढ़ावा। नदियों के रास्ते माल ढुलाई किसी भी अन्य साधन के मुकाबले सस्ती पड़ेगी। अतः नदियों पर बने बाँधों को (मैं "पुल" नहीं, "बाँध" कह रहा हूँ) को तोड़ा जाय; गाद की सफाई कर नदियों की गहराई बढ़ायी जाय; और "घाटों" को पक्का बनाया जाय। माल-ढुलाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा नदियों के रास्ते हो सकता है।
मगर इन उपायों को अपनाने के लिए एक ऐसी "शक्ति" की जरुरत है, जिसे देश की जनता ने पिछले 65 वर्षों में किसी भी सरकार में नहीं देखा है। जी हाँ, मैं "इच्छाशक्ति" की बात कर रहा हूँ।  
***
पुनश्च:
एक छ्ठा उपाय भी है, जिसके बारे में मैंने बाद में लिखा:

113. दो पड़ोसी नगरों के बीच "फ्लाइ-ओवर" "शटल" ट्रेन सेवा- बिना बिजली, बिना डीजल के!

किसी देश की तकदीर को संवारने वाली शक्तियाँ- एक मन्थन


21/5/2012

अगर पूछा जाय कि वे कौन-सी शक्तियाँ या संस्थायें हैं, जो किसी देश की तकदीर को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं, तो जवाब होगा-
1. सत्ता प्रतिष्ठान। मगर जिस सत्ता-प्रतिष्ठान में शासकगण करोड़ों रुपये खर्च करके पहुँचते हों और पहुँचते ही करोड़ों के बदले खरबों वसूल करने में जुट जाते हों; साथ ही, जघन्य अपराधों में संलिप्त लोग भी जहाँ पहुँचते हों और पहुँचकर आन-बान-शान का जीवन बिताते हों, उस सत्ता-प्रतिष्ठान से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
2. न्यायपालिका। मगर जो न्यायपालिका बड़े अपराधों के अभियुक्तों को अति महत्वपूर्ण व्यक्ति का दर्जा देती हो; और उन्हें दोषी या निर्दोष साबित करने के बजाय उनकी जमानत एवं अन्यान्य गौण मुद्दों पर समय बर्बाद करते हुए दशकों तक मामलों को लटकाती हो, उस न्यायपालिका से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
3. सेना। मगर जिस सेना के उच्च अधिकारीगण (टॉप ब्रासेज) अपने वेतन-भत्तों-सुविधाओं का आकलन करते हुए कैसे कुछ ज्यादा हासिल किया जाय- इसी जुगाड़ में दिन गुजारते हों; और जो पदोन्नति पाने के लिए अनैतिक रास्ते भी अपनाते हों, उस सेना से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
4. जननेता। मगर जो जननेता राजनीति को काजल की कोठरी मानकर इसमें प्रवेश करने से डरते हों; और असफल हो जाने की आशंका के चलते सत्ता की बागडोर थामने से साफ इन्कार करते हों, उन जननेताओं से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
5.(क) आम जनता। मगर जो आम जनता इतनी भोली हो कि कोई भी तेज-तर्रार व्यक्ति (अच्छे या बुरे मकसद से) उसे भेड़ों की तरह हाँक सकता हो; और जो अपनी दुर्गति के लिए व्यवस्था के बजाय अपने पूर्वजन्मों के कर्मों को जिम्मेवार मानती हो, उस आम जनता से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
5.(ख) शिक्षित वर्ग। मगर जिस शिक्षित वर्ग का मानसिक स्तर इतना नीचा हो कि खुद को जात-पाँत तक की बेड़ियों से मुक्त न कर पाये; और जो किसी राजनीतिक/सांस्कृतिक/धार्मिक मान्यता का अन्धभक्ति की हद तक समर्थक हो, उससे हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
5.(ग) नयी पीढ़ी। मगर जो नयी पीढ़ी चरित्रहीन सेलिब्रिटियों को अपन आदर्श मानती हो; और जो डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर इत्यादि इसलिए बनना चाहती हो कि ज्यादा-से-ज्यादा दहेज एवं ऊपरी कमाई का जुगाड़ बन सके, उस नयी पीढ़ी से हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते।
उपर्युक्त परिस्थितियाँ दुनिया के जिस किसी देश में पायी जाती है, उस देश के वासियों के प्रति मैं सहानुभूति व्यक्त करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि नियति जल्द-से-जल्द वहाँ एक उद्धारकर्ता को भेजने की कृपा करे।
ईति। आमीन... एवमस्तु... 

एक आदर्श "राज्यसभा" की अवधारणा


27/4/2012

एक महान क्रिकेटर तथा एक महान अभिनेत्री को राज्यसभा की सदस्यता प्रदान करने की कवायद चल रही है। बेशक, दोनों अपने-अपने क्षेत्र के अच्छे फनकार हैं, मगर सांसद बन कर ये दोनों देश के लिए नीति-निर्धारण में कोई योगदान दे पायेंगे, या देश/समाज के प्रति इनका कोई स्पष्ट दृष्टिकोण है- ऐसा तो मुझे नहीं लगता।
वैसे भी, जब से चुनाव हारे हुए राजनेताओं को राज्यसभा में पहुँचाने (ताकि उनकी "लालबत्ती" बनी रहे) तथा कुछ खास लोगों को "उपकृत" करते हुए राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की परम्परा चल पड़ी है, तब से राज्यसभा अपनी गरिमा खो चुकी है।
मैं अपनी समझ से एक आदर्श राज्यसभा की अवधारणा यहाँ प्रस्तुत करता हूँ कि किन्हें इनकी सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए और उनका चयन कैसे होना चाहिए:-
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरे अनुसार, देश में 45 राज्य होने चाहिए, प्रत्येक राज्य में 9 जिले होने चाहिए और प्रत्येक जिला एक संसदीय सीट होनी चाहिए! (एक महानगर एक जिले का समतुल्य होगा।) इस हिसाब से लोकसभा-सदस्यों की संख्या बनती है- 405। इसी हिसाब से, राज्यसभा-सदस्यों की भी कुल संख्या 405 ही होनी चाहिए।
405 में से 225 स्थान विधायकों के लिये होने चाहिएप्रत्येक विधानसभा से 5 विधायक चुनकर राज्यसभा में पहुँचेंगे। चूँकि इनका कार्यकाल 3 वर्षों का होता है, अतः प्रतिवर्ष एक-तिहाई अर्थात् 75 सदस्य बदलने चाहिए
81 स्थान दिये जाने चाहिए- सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यवसायिक संघों के प्रतिनिधियों को। (जिनके लिए नीति बने, उनकी ही भागीदारी अगर नीति बनाने में न हो, तो वह नीति बेकार साबित होगी! कोई शक है क्या?) बेशक, इसके लिए देश के सभी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा व्यवसायिक संघों को संगठित होकर एक-एक महासंघ (या परिसंघ- फेडेरेशन) बनाना पड़ेगा, ताकि वे राज्यसभा में भेजने के लिए अपने प्रतिनिधियों का चयन कर सकें। जाहिर है, तीनों प्रकार के संगठनों के लिये 27-27 सीट होंगे और प्रतिवर्ष एक-तिहाई अर्थात् 27 सदस्य बदलेंगे
राज्यसभा में 81 स्थान सत्तर वर्ष से अधिक आयु वाले राष्ट्रीय स्तर के अनुभवी एवं सक्रिय राजनेताओं के लिए रखे जाने चाहिए। (जाहिर है- 70 वर्ष से अधिक आयु वाले राजनेताओं के लिए "लोकसभा" में कोई स्थान नहीं होना चाहिए! मगर चूँकि देश को इनके अनुभव की आवश्यकता पड़ती है, अतः इन्हें राज्यसभा में रहना चाहिए।) इन सदस्यों को राष्ट्रपति महोदय द्वारा जीवन भर के मनोनीत किया जा सकता है। और अगर ये बुजुर्ग राजनीतिज्ञ अपना संघ बना लें और खुद अपना प्रतिनिधि चुनें, तो फिर मनोनयन की आवश्यकता नहीं रह जायेगी
राज्यसभा में 18 स्थान दुनियाभर में फैले "भारतवंशियों" के प्रतिनिधियों के लिए होने चाहिए। हालाँकि वे चाहें, तो किसी भारतीय को भी अपना (अप्रत्यक्ष) प्रतिनिधि चुन सकें- ऐसी छूट होनी चाहिए! पता नहीं, इस विन्दु पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता! आखिर भारतवंशियों को अपने दिल की बातें भारत के संसद में रखने का अधिकार क्यों न हो?  खैर, भारवंशियों के 9 संघ बनाये जा सकते हैं- 1. यूरोप, 2. उत्तरी अमेरीका, 3. दक्षिणी अमेरीका, 4. अफ्रिका, 5. ऑस्ट्रेलिया, 6. दक्षिण-पूर्वी एवं पूर्वी एशिया, 7. मध्य-पूर्व एवं पश्चिम एशिया, 8. मॉरिशस और 9. अन्य टापू देश प्रत्येक संघ के 2-2 प्रतिनिधि होने चाहिए और 6 सदस्य प्रतिवर्ष बदलने चाहिए
राज्यस्भा की तर्ज पर राज्यों में 81 सदस्यीय विधान परिषद बनाये जा सकते हैं, जिसकी सदस्यता राज्य स्तरीय सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यवसायिक संघों के चुने हुए प्रतिनिधियों तथा बुजुर्ग राजनीतिज्ञों प्रदान की जानी चाहिए
अन्त में- मेरे बहुत-से साथी सोचते होंगे कि मैं हमेशा नक्कारखाने में तूती क्यों बजाता रहता हूँ? दरअसल, मैं इस सिद्धान्त को मानता हूँ कि जब बहुत-से लोग अच्छा "सोचते" हैं, तभी कुछ अच्छा "घटित" होता है! 

"गठबन्धन" माँ है, तो "पिता" कौन है बसु साहब?


22/4/2012

श्री कौशिक बसु (भारत सरकार के मुख्य 'आर्थिक सलाहकार') ने गठबन्धन सरकारों को वर्तमान आर्थिक कुव्यवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराया है। उनके अनुसार, गठबन्धन-धर्म निभाने के चक्कर में सरकार सही एवं कड़े फैसले नहीं ले पाती, जिस कारण नित नये घपले-घोटाले हो रहे हैं। (पहले भी घपले होते थे, "गठबन्ध" दौर में कुछ ज्यादा होने लगे हैं।)
यानि श्री बसु गठबन्धन को आर्थिक-अराजकता की "माँ" मानते हैं। जाहिर है, इसका कोई "पिता" भी होगा। मैं बताता हूँ, इसका "पिता" कौन है। वह है- "आर्थिक उदारीकरण"! और दुर्भाग्य देखिये- इस आर्थिक उदारीकरण को पटरी पर लाने तथा गति देने उद्देश्य से ही श्री बसु चाहते हैं कि 2014 में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने!
देश की जनता को समय रहते आगाह कर देना चाहूँगा कि ये नेता-नौकरशाह हमें "अन्धा" समझते हैं। वे चाहते हैं कि चाय में पड़ी बड़ी-सी गन्दी मक्खी हमें न दीखे और हम उसे चाय के साथ निगल जायें!
यकीन कीजिये- यह "आर्थिक उदारीकरण" ही हमारी आर्थिक-अराजकता का "पिता" है। इसने और "गठबन्धन" ने, दोनों ने मिलकर तमाम घपलों-घोटालों को जन्म दिया है; महँगाई को सुरसा का मुँह बनाया है; अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को कई गुणा चौड़ा किया है; और- देश की अर्थव्यवस्था की 70 प्रतिशत पूँजी को कुल जमा 8,000 लोगों की मुट्ठी में पहुँचाया है!
...और श्री बसु चाहते हैं कि 2014 में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने, जो बेरोक-टोक "आर्थिक-सुधारों" के अगले चरणों को लागू कर सके! मैं आज लिख रहा हूँ- कल यह सच साबित होगा कि श्री बसु 'अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष' और 'विश्व बैंक' की भाषा बोल रहे हैं और सरकार ने उन्हें अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार बना ही इसलिए रखा है कि गुप्त रुप से वे इन दोनों संस्थाओं के "एजेण्ट" हैं!
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आज हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि 2014 के आम चुनाव में काँग्रेस को न पूर्ण बहुमत मिलेगा, न ही उसकी अगुआई में कोई गठबन्धन सरकार बनेगी। पूर्ण बहुमत या तो भाजपा को मिलेगा, या उसी के नेतृत्व में एक गठबन्धन सरकार बनेगी। अब बड़ा सवाल- क्या भाजपा आर्थिक-सुधारों के पहिये को उल्टा घुमाने का साहस दिखा पायेगी? जवाब है- नहीं। (जाने-अनजाने में ज्यादातर देशभक्त 2014 में भाजपा को सत्ता सौंपने की वकालत करने लगे हैं, उनके लिए यह एक चेतावनी है।) भाजपा किसी कीमत पर घरेलू उद्योग-धन्धों को "संरक्षण" देने की नीति नहीं अपनायेगी; "शून्य-तकनीक" वाली उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण/उत्पादन की जिम्मेवारी बड़े/मँझोले व्यवसायिक घरानों से छीनकर उन्हें लघु/कुटीर उद्योगों को नहीं सौंपेगी; देश में जड़ें जमा चुकी विदेशी/बहुराष्ट्रीय निगमों को देश से निकाल-बाहर नहीं करेगी; विश्व-व्यापार को सन्तुलन में रखने के लिए जोर नहीं डालेगी; और सूई से लेकर टैंक तक के निर्माण में "स्वदेशीकरण" को नहीं अपनायेगी। यकीन न हो, तो भाजपा के नीति-निर्धारकों से जाकर पूछ लिया जाय!
सत्ता पाकर भाजपा जो करेगी, वह है- "भूमण्डलीकरण", "उदारीकरण", "निजीकरण" और "विनिवेश" को ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ावा देना। (जैसा कि श्री बसु चाहते हैं, और जैसा भाजपा पहले कर भी चुकी है।)
कुछ देशभक्त साथियों की सारी उम्मीदें स्वामी रामदेव या/और अन्ना हजारे के भावी आन्दोलन पर टिकी हैं। उनसे कहना चाहूँगा- किसी देश में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए सत्ता की बागडोर को थामना जरुरी होता है, और स्वामीजी या अन्नाजी- दोनों ही सत्ता की बागडोर थामने से चूँकि मना कर चुके हैं, अतः इनसे ज्यादा उम्मीदें हम नहीं रख सकते। 1947 में गाँधीजी ने तथा तीस साल बाद 1977 में जयप्रकाश नारायण ने भी (अप्रत्यक्ष रुप से ही सही) सत्ता की बागडोर नहीं थामी थी, जिसका नतीजा हम देख ही रहे हैं।
अन्त में, मैं अपनी पुरानी बात दुहराना चाहूँगा- "गठबन्धन की मजबूरियों" तथा "भूमण्डलीकरण एवं आर्थिक उदारीकरण की बाध्यताओं" से मुक्ति पाते हुए "खुशहाल-स्वावलम्बी-शक्तिशाली" भारत के निर्माण का रास्ता "दस वर्षों की चन्द्रगुप्तशाही" से होकर गुजरता है, कहीं और से नहीं! कृपया इसे मान लीजिये...  

कौन कहता है, भारत में "प्रत्यक्ष प्रजातंत्र" असम्भव है?


10 अप्रैल 2012 

      हमें 'नागरिक शास्त्र' में पढ़ाया गया है- "प्रत्यक्ष प्रजातंत्र" सिर्फ 'बहुत छोटे' देशों में ही सम्भ्व है- भारत-जैसे विशाल देश में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती! ...और इसलिए यहाँ नागरिकों द्वारा "जनप्रतिनिधि" चुनने की प्रक्रिया अपनायी गयी। नीयत अच्छी थी, मगर आज की तारीख में सारी कुव्यवस्था, सारे भ्रष्टाचार, सारे घोटालों की जननी यह "जनप्रतिनिधि प्रणाली" ही बन गयी है। एक तो जनप्रतिनिधि पाँच वर्षों के लिए "लाट साहब" बनकर नागरिकों से दूर हो जाता है; दूसरे, चुनाव में खर्च किये गये करोड़ों रुपये का कईगुना वसूलने के चक्कर में वह कदाचार में लिप्त हो जाता है।
      मैं (10 वर्षों के लिए) जिस "चन्द्रगुप्तशाही" की बात कर रहा हूँ, उसमें "प्रत्यक्ष प्रजातंत्र" का प्रावधान है। वह भी दो स्तरों पर- राष्ट्रीय व प्रखण्ड (या नगर/उपमहानगर) स्तर पर। जी हाँ, "प्रत्यक्ष प्रजातंत्र"- इसी भारत-जैसे विशाल देश में!
      पहले राष्ट्रीय स्तर के प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की बात-
चन्द्रगुप्त के सभा-भवन के दो तरफ जो गैलरियाँ होंगी, उनमें एक तरफ सरकारी विभागों के प्रतिनिधि बैठेंगे, तो दूसरी तरफ आम नागरिक। नागरिकों वाली गैलरी में प्रत्येक आसन देश के एक-एक जिले के लिए चिह्नित रहेगा। प्रत्येक आसन उस चिह्नित जिले के एक नागरिक को 3 दिनों के लिए आबण्टित किया जायेगा।
इस सभा में प्रत्येक सत्र 21 दिनों का होगा और साल में कुल 6 सत्र आयोजित होंगे, अतः आप हिसाब लगाकर देख लें- देश के प्रत्येक जिले से प्रतिवर्ष 42 नगरिकों को इस सभा में अपनी बात रखने का मौका मिलेगा।
आप कहेंगे, जिले की जनसंख्या के हिसाब से यह संख्या तो कम है, तो इसके दो जवाब हैं-
एक- जिन नागरिकों के पास इस सभा में उठाने के लिए कोई "मुद्दा" होगा, उन्हें ही सभा में आना चाहिए (सिर्फ सभा "देखने" नहीं आना चाहिए किसी को)। इसके लिए जिला स्तर पर नागरिकों को खुद ही एक व्यवस्था कायम कर लेनी चाहिए कि किस "मुद्दे" को सभा में उठाने के लिए "कौन" जायेगा- कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुद्दा व्यक्तिगत है, या स्थानीय, या राष्ट्रीय, या अन्तर्राष्ट्रीय- बस वह महत्वपूर्ण होना चाहिए। अगर जिला स्तर पर कोई नागरिक खुद की कोई व्यवस्था नहीं बनाते, तो जाहिर है, चन्द्रगुप्त के सभाध्यक्ष ऐसी व्यवस्था बनायेंगे।
दो- प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर स्तर पर भी प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की व्यवस्था होगी- नागरिकों के ज्यादातर मसले वहीं सुलझ जायेंगे। वहाँ निराश होने के बाद ही कोई "राष्ट्रीय" सभा में आना चाहेगा।
नागरिकों द्वारा उठाये गये मुद्दों पर सरकारी विभागों के प्रतिनिधियों या मंत्रालयों के सचिवों को बाकायदे जवाब देना पड़ेगा। इस दौरान चाणक्य सभा "जन-भावना" का आकलन करेगी और उसी हिसाब से चन्द्रगुप्त को दिशा-निर्देश देगी।
दूसरे शब्दों में इस व्यवस्था के बारे में यही कहा जा सकता है कि जहाँ आज नागरिक 5 वर्षों के लिए 1 जनप्रतिनिधि चुनते हैं, वहीं इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ष 42 प्रतिनिधियों को वे चुनेंगे।
अब बात प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर स्तर पर प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की-
हर दूसरे महीने प्रखण्ड न्यायाधीशों की अध्यक्षता में सप्ताह भर का प्रखण्ड जनसंसद का अधिवेशन बुलाया जायेगा, जिसमें प्रखण्ड के जागरुक आम नागरिक, सभी सरकारी अधिकारी तथा सभी पंचायतों के पंच भाग लेंगे (प्रखण्ड स्तर पर न्यायालय स्थापित किये जायेंगे) चूँकि महानगरों तथा नगरों को क्रमशः जिला तथा प्रखण्ड के समतुल्य माना जायेगा, अतः नगरों/ उपमहानगरों में भी ऐसे जनसंसद होंगे, जहाँ जागरुक नागरिक, सभी सरकारी अधिकारी, सभी सभासद एवं पार्षद भाग लेंगे
इन जनसंसदों में अधिकारी तथा जनप्रतिनिधिगण अपने पिछले कार्यों तथा खर्चों के ब्यौरे पेश करेंगे और अगले कार्यों तथा खर्चों के लिये इस संसद द्वारा पारित प्रस्तावों से दिशा-निर्देश प्राप्त करेंगेनागरिकों द्वारा उठाये गये सवालों/शिकायतों का जवाब भी यहाँ सम्बन्धित अधिकारी/प्रतिनिधि देंगे और इस दौरान किसी भी सूचना को गोपनीयता के नाम पर नहीं छुपाया जायेगा
अधिवेशन के अध्यक्ष, यानि प्रखण्ड न्यायाधीशों को इतना (विवेक) अधिकार प्राप्त होगा कि जनसंसद के अधिवेशन को गम्भीरता से न लेने वाले तथा आम जनता की जरुरतों को पूरा करने में लापरवाह अधिकारी/प्रतिनिधि को वे छह महीनों तक के लिये निलम्बित कर सकेंगे
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर के सर्वांगीण विकास के लिये स्थानीय नागरिक स्वयं योजनाएँ बनायेंगे, कार्यपालिका/ग्राम पंचायत/नगर परिषद/महानगर परिषद के माध्यम से उन्हें लागू करवायेंगे और यह सब कुछ न्यायपालिका के संरक्षण में होगा
...अब बताईये कि आपको क्या कहना है इस बारे में!
राष्ट्रीय सरकार सभी प्रखण्डों को बराबर-बराबर विकास धनराशि मुहैया करायेगी, जबकि राज्य सरकारें जनसंसदों द्वारा पारित विकास योजनाओं के आधार पर धन मुहैया करवायेगी (इन प्रस्तावों को स्थानीय विधायक राज्य सरकार के समक्ष पेश करेंगे

"चन्द्रगुप्तशाही": दो शंकाओं का समाधान


8 अप्रैल 2012

जब मैं दस वर्षों के लिए सभी माननीयों को छुट्टी पर भेजते हुए एक "चाणक्य सभा" के दिशा-निर्देशन में दस वर्षों की एक "चन्द्रगुप्तशाही" कायम करने की अपनी विचारधारा प्रस्तुत करता हूँ, तो बहुतों को अटपटा लगता है कि इस देश में भला "चौदह व्यक्तियों" के मार्गदर्शन में "एक व्यक्ति" के शासन (दस वर्षों के लिए ही सही) की बात कैसे सोची जा सकती है? यहाँ तो दुनिया का सबसे बड़ा "लोकतंत्र" कायम है, जिसकी जड़ें भी बहुत गहरी हैं!
ऐसे साथियों के लिए मैं कुछ विचारणीय विन्दु प्रस्तुत करता हूँ- कृपया गहराई से इन पर विचार-मन्थन करें:
मान लीजिये कि हमारी संसद में 500 सांसद हैं, तो क्या सभी "500 सांसद" मिलजुल कर देश के लिए नीतियाँ बनाते हैं? जवाब होगा- नहीं। नीतियाँ सिर्फ "सत्ता पक्ष" बनाता है (विपक्ष आमतौर पर इन नीतियों के खिलाफ "बहिर्गमन" करता है, या "शोरगुल" करता है और सभाध्यक्ष इसी बीच विधेयक को "पारित" घोषित कर देते हैं!)। अर्थात् 500 में से लगभग 250 सांसदों की कोई भूमिका नहीं होती है- देश के लिए नीतियाँ बनाने में।
दूसरा सवाल- क्या सत्ता-पक्ष के सभी "250 सांसद" मिलकर नीतियाँ बनाते हैं? यहाँ भी जवाब है- नहीं। नीतियाँ "कैबिनेट" बनाती है, यानि मंत्रीमण्डल। अर्थात् यहाँ सत्ता-पक्ष के भी लगभग 200 सांसद बाहर हो गये- लगभग "50 सांसद" तय करते हैं कि देश किस नीति पर चलेगा।
तीसरा सवाल- क्या कैबिनेट के सभी "50 सांसदों" की भूमिका होती है नीति-निर्धारण में? हो सकता है, कुछ साथी 'हाँ' में उत्तर दें। पर मैं ऐसा नहीं मानता। मेरे अनुसार मंत्रीमण्डल में प्रायः आधा दर्जन मंत्री अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं, जिनकी चलती है, बाकी सहमति जताने भर के लिए बैठकों में शामिल होते हैं। अर्थात् यहाँ 50 में से 44 बाहर हो गये- लगभग "6 सांसद" देश की नियति तय करते हैं।
चौथा सवाल- क्या ये "6 सांसद" वाकई इतने शक्तिशाली होते हैं कि किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी अलग राय पर कायम रह सकें? जवाब होगा- नहीं। हर हाल में ये किसी "1 सांसद" की इच्छा के सामने नतमस्तक रहने के लिए बाध्य होते हैं। अब वह प्रभावशाली "1 सांसद" प्रधानमंत्री हो सकता है, पार्टी-अध्यक्ष हो सकता है, या फिर, हो सकता है कि दोनों ही पद उसी के पास हों।
अब बताईये कि क्या निष्कर्ष निकला? क्या हमारे देश में "1 व्यक्ति" का शासन पहले से ही कायम नहीं है?
चूँकि वे "कम्बल ओढ़कर" तानाशाही चला रहे हैं, इसलिए वे सही हैं, और मैं खुलकर दस वर्षों की तानाशाही (मैंने इसे "चन्द्रगुप्तशाही" का नाम दिया है, क्योंकि यह "चाणक्य सभा" के मार्गदर्शन में शासन करेगा) की बात कर रहा हूँ तो मैं बुरा हो गया? जबकि मेरी तानाशाही का उद्देश्य एक आदर्श "लोकतंत्र" की स्थापना ही है- कुछ और नहीं!
***
एक दूसरी शंका जाहिर की गयी है- क्या "चाणक्य सभा" वाकई चाणक्य की भूमिका निभा पायेगी? इस सभा के लिए "दूध के धुले" लोग कहाँ मिलेंगे? इसके सदस्यों को अपना 'उत्तराधिकारी' एवं 'सहयोगी' चुनने देने के पीछे क्या तुक है?


यहाँ मैं यह जानकारी देना चाहूँगा कि 1998 में जब मैंने "चाणक्य सभा" की अवधारणा सोची थी, तब मैंने इसके 14 सदस्यों की बाकायदे सूची भी बनायी थी, जो निम्न प्रकार से है-

1. श्री प्रभाष जोशी (पत्रकार)
2. बाबा आम्टे (समाजसेवी),
3. श्री सुन्दरलाल बहुगुणा  (पर्यावरणविद्),
4. डॉ. अरूण घोष (अर्थशास्त्री),
5. डॉ. सुभाष कश्यप (संविधानविद्),
6. जेनरल (अवकाशप्राप्त) वी .एन. शर्मा (रक्षा विशेषज्ञ),
7. श्री ए.पी. वेंकटेश्वरन (विदेश नीति विशेषज्ञ),
8. सुश्री मधु किश्वर महिलानेत्री),
9. प्रो. यशपाल (शिक्षाविद्),
10. श्री  गिरीश कर्नाड (संस्कृतिकर्मी),
11. श्री मिल्खा सिंह (खिलाड़ी),
12. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (वैज्ञानिक),
13. प्रो. नंजुदास्वामी (किसान नेता) और
14. श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी  (मजदूर नेता) 

आज की तारीख में प्रभाष जोशी, बाबा आम्टे, डॉ. अरूण घोष और दत्तोपन्त ठेंगड़ी हमारे बीच नहीं रहे। (इस स्थिति को भाँपकर ही मैंने लिखा था कि "चाणक्य" अपने 'उत्तराधिकारी' चुनने के लिए स्वतंत्र होंगे। अब इनके स्थान पर हमें ही दूसरे नामों पर विचार करना होगा। देखिये कि वरिष्ठ पत्रकार का नाम तय करना कितना मुश्किल हो गया है- आज ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकार किसी-न-किसी राजनीतिक दल के वेतनभोगी कर्मचारी-जैसा व्यवहार करते हैं!) कलाम साहब इस बीच राष्ट्रपति भी बन गये। ए.पी. वेंकटेश्वरन, जेन. वी.एन. शर्मा, नंजुदास्वामी का कोई साक्षात्कार या उनका कोई आलेख वर्षों से मैंने नहीं पढ़ा है- मीडिया ने भुला दिया है उन्हें।
खैर, मुझे ऐसा नहीं लगता कि इस सूची में कोई नाम ऐसा है, जिसपर उँगली उठायी जा सके। वैसे, इस मामले में आपके सुझाव भी मैं जानना चाहूँगा।
ईति।