गुरुवार, 31 जुलाई 2014

178. "सी-सैट" (के बहाने)


जैसा कि मुझे (थोड़ा-बहुत भी) जानने वाले जानते ही होंगे, मैं "सुधारों" में नहीं, बल्कि "आमूल परिवर्तन" में विश्वास करता हूँ मेरा समय अभी आया नहीं है, मुझसे लोग अभी सहमत भी नहीं हो रहे हैं (इसलिए मैंने कुछ समय से राजनीतिक टीका-टिप्पणी छोड़ भी रखी है)
फिर भी, जब "सी-सैट" (सिविल सर्विसेज एप्टीच्यूड टेस्ट) के मुद्दे पर "सुधार" की बात हमारी सरकार कर ही रही है, तो सोचा इस मामले में अपना विचार बता दूँ
दरअसल हमारा देश "अधिकारियों" के चयन के मामले में आज तक "ब्रिटिश हैंग-ओवर" से उबर नहीं पाया है
मेरे हिसाब से, देश के प्रशासनिक अधिकारियों के रुप में उन्हीं युवाओं का चयन होना चाहिए, जो स्नातक (चाहे प्राप्तांक कितना भी हो) तो हों ही, साथ ही-
1. जिन्होंने "सामाजिक" कार्य किये हों इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह बेसहारों के लिए आश्रम बनाये और यहाँ "स्वयंसेवक" के रुप में एक या दो साल सेवा करने वालों को ही आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठने की अनुमति दे;
2. जिन्होंने "सांस्कृतिक" गतिविधियों में सक्रिय हिस्सा लिया हो इसके लिए सरकार हर साल बसन्त एवं शरत काल में हफ्तेभर का "भारतीय सभ्यता-संस्कृति उत्सव" का आयोजन करवा सकती है इसमें सक्रिय हिस्सेदारी करने वाले युवा ही आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठे
3. जिन्होंने "साहसिक" अभियानों में हिस्सा लिया हो इसके लिए सरकार प्रतिवर्ष "भारत भ्रमण साइकिल यात्रा" का आयोजन करवा सकती है यह यात्रा "हाइ-वे" के बजाय मामूली सड़कों के माध्यसे से होनी चाहिए शायद साल भर में यह यात्रा पूरी हो सकती है इसमें सफल रहने वालों को ही आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठने दिया जाय
4. परीक्षा बहुत ही साधारण होनी चाहिए, जिससे की "कोचिंग इंस्टीच्यूटों" की जरुरत समाप्त हो जाय। परीक्षा का माध्यम वे सभी भारतीय भाषायें होनी चाहिए, जिनकी अपनी सुगठित लिपियाँ हों। अँग्रेजी का एक पत्र हो- क्योंकि यह एक प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है तथा इसका साहित्य उत्कृष्ट है- यह परीक्षा का माध्यम नहीं होना चाहिए।
5. जिस किसी युवा ने किसी भी क्षेत्र या विधा में देश का नाम दुनियाभर में रौशन किया है, या जिसने "ओलिम्पिक" खेलों में भाग लिया है, उसका सीधा चयन हो- प्रशासनिक अधिकारी के रुप में
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आज हमारे प्रशासनिक अधिकारियों पर "संवेदनाशून्य" का आरोप लगता है मुझे लगता है, यह सच भी है आज आई.ए.एस बनने के लिए युवा 18-20 घण्टे बन्द कमरे में पढ़ाई करते हैं दोस्त-यार-समाज तो दूर, परिजनों से भी कटे रहकर!

ऐसे युवकों में "आई.क्यू." का स्तर तो ऊँचा होता है, मगर उनमें "ई.क्यू." (इमोशनल क्वोशेण्ट) का स्तर बहुत ही नीचा होता है- शून्य के करीब इनसे हम "मानवीय संवेदना" की उम्मीद भी कैसे रख सकते हैं???

रविवार, 13 जुलाई 2014

177. रेल को रेल ही रहने दो


       रेल को रेल ही रहने दिया जाय- इसे हवाई जहाज न ही बनाया जाय, तो बेहतर। जिन्हें कहीं पहुँचने की बहुत जल्दी हो, वे हवाई जहाज पकड़ लें और जिन्होंने बुलेट ट्रेन में बैठने की कसम खा ली है, वे चीन या जापान की नागरिकता ले लें!
       हम तो इतना ही चाहेंगे कि हमारी रेलगाड़ी- पैसेन्जर तथा एक्सप्रेस दोनों- ज्यादा लेट न हो, किराया भी ज्यादा न हो, सुरक्षा एवं संरक्षा थोड़ी चाक-चौबन्द हो, बस और क्या? स्टेशन के बाथरूम वगैरह साफ-सुथरे हों- ये 'पे एण्ड यूज' वाली व्यवस्था अटपटी लगती है।
       मान लीजिये, बुलेट ट्रेनों का जमाना आ ही गया, तो क्या होगा? सहयात्रियों से बातचीत नहीं के बराबर होगी, मूँगफली वाले या दूसरे हॉकर नहीं होंगे, खिड़की से हाथ निकाल कर किसी स्टेशन पर कुछ खरीद नहीं सकेंगे... और सबसे बड़ी बात ऐसी फिल्में नहीं बन पायेंगी, जिसमें कोई शाहरुख खान प्लेटफार्म से खिसकती ट्रेन के दरवाजे से हाथ बढ़ाकर किसी काजोल या दीपिका को ट्रेन में चढ़ा सके! तो यह एक नीरस रेल होगी। है कि नहीं? हम भी जापानियों के तरह ट्रेन में बैठते ही पुस्तक/पत्रिका या डिक्शनरी निकाल कर बैठ जायेंगे। वैसे, यह पुरानी बात है- आज के दौर में वे लैपटॉप लेकर बैठते होंगे। यही हम भी किया करेंगे। यात्रा का कोई आनन्द ही नहीं रह जायेगा।
       मैं एक पैसेन्जर ट्रेन की एक बोगी के अन्दर का फोटो पेश कर रहा हूँ। इसमें एक महिला एक बकरी को पीपल के पत्ते खिला रही है। फोटो में पता नहीं चल रहा है- आगे बाथरुम के पास साइकिल भी रखी थी। वैसे, कायदे से, साइकिल को पैडल के सहारे खिड़की के सरिया से लटकाना चाहिए था। आप कुछ भी कहें, मुझे तो ऐसे ही सफर में आनन्द आता है!
       स्टेशन अगर हवाई अड्डे-जैसे बन गये, तो न बेघर वहाँ रात बिता पायेंगे और न ही बुजुर्ग प्लेटफार्म के किसी किनारे की बेंचों पर शाम बिता पायेंगे।
       इसलिए हम तो यही कहेंगे भाई, कि रेल को रेल ही रहने दो, रेलवे स्टेशन को स्टेशन ही रहने दो, इन्हें हवाई जहाज और हवाई अड्डा न बनाओ...  

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

176. 'कोलोजियम'


       ठीक-ठीक 'कोलोजियम' का अर्थ मैं नहीं जानता, मगर इतना समझता हूँ कि यह एक रहस्यमयी किस्म की संस्था है, जो गोपनीय तरीके से सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के लिए मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है
       मैं यह सुझाव पेश करता हूँ कि हमारे देश में चुनावों पर होने वाला अन्धाधुन्ध खर्च बन्द हो और उसके स्थान पर सारे राजनीतिक दल मिलकर एक रहस्यमयी 'कोलोजियम' की स्थापना कर लें। यह संस्था ही तय करे कि कौन कितने दिनों के लिए प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री/मंत्री वगैरह बनेगा।
विधायकों/सांसदों की जरुरत ही क्या रह गयी है, वे तो तो खरीदे-बेचे जाते हैं! (सुना है कि एक एम.एल.सी. का बाजार भाव अभी 40 करोड़ चल रहा है!)
       चुनावों की जरुरत तब होती है, जब अलग-अलग राजनीतिक दलों की "विचारधारायें" अलग-अलग हों। यहाँ तो क्या वामपन्थी, क्या दक्षिणपन्थी, क्या मध्यमार्गी, क्या समाजवादी, क्या राष्ट्रवादी, क्या हिन्दूवादी, क्या मुस्लिमवादी... सबकी विचारधारा एक समान हो गयी है- बाजारीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण, वगैरह-वगैरह। हर नेता इस देश को चीन, जापान, कोरिया, फ्रान्स, जर्मनी, स्वीजरलैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया बनाने पर तुला हुआ है। वह भी विदेशी, आवारा पूँजी तथा विदेशी तकनीक के बल पर। ऐसे में "कोउ  नृप भये, हमें का हानि?"
       है कोई माई का लाल राजनेता, जो सीना ठोंककर यह आह्वान कर सके कि हम विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या किसी अमीर राष्ट्र से ऋण नहीं लेंगे; हम विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानने से इन्कार करते हैं; हम अमेरिका या किसी भी अमीर राष्ट्र की चौखट पर नाक नहीं रगड़ेंगे; हम भारतीय प्रतिभा- जो कि दुनियाभर में फैली हुई है- के बल पर तथा भारतीय संसाधनों- जो प्रकृति ने दोनों हाथों से हमें दिया है- के बल पर इस देश को फिर से महान बनायेंगे, चाहे इसके लिए हममें से हरेक भारतीय को आधा पेट खाकर ही क्यों न सोना पड़े! कोई नहीं है न ऐसा...
       ...फिर, क्या फर्क पड़ता है कि एक वामपन्थी हमारा प्रधानमंत्री बने, या दक्षिणपन्थी, या मध्यमार्गी? बेकार ही चुनाव में इतना भारी-भरकम खर्च किया जाता है। इस पैसे का उपयोग बेचारे गरीब राजनेता अपना वेतन-भत्ता आदि बढ़ाने में कर सकते हैं!
       सोच कर देखियेगा।
       एक और बात है। हम भारतीय पब्लिक कभी बगावत तो कर नहीं सकते। इस औपनिवेशिक व्यवस्था के सलीब को हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोते रहेंगे- चाहे देश रसातल में चला जाय। उसी प्रकार, हमारी सेना भी कभी बगावत नहीं कर सकती। "पे कमीशन" के साथ उनके वेतन-भत्ते बढ़ ही रहे हैं, देश की क्या चिन्ता?

       ऐसे में, "कोलोजियम" व्यवस्था ही ठीक रहेगी।