रविवार, 28 अक्तूबर 2012

असम्भव लक्ष्य रखने के पाँच कारण



      मैं न केवल अपने भारत देश को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाना चाहता हूँ, बल्कि भारत के नेतृत्व में दुनिया में आदर्श विश्व-व्यवस्था कायम करना चाहता हूँ। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसा असम्भव लक्ष्य लेकर मैं क्यों चल रहा हूँ?
      इसके पाँच कारण हैं-
      पहला- पहला कारण ‘व्यवहारिक’ है। हो सकता है कि कुछ समय के बाद- यानि सौ-पचास वर्षों के बाद- लोगों को मेरे घोषणापत्र का महत्व समझ में आये और तब लोग इसके अनुसार देश को चलाने की कोशिश करें!
      दूसरा- दूसरा कारण ‘दार्शनिक’ है। हालाँकि विचारों के ‘तरंग’ होते हैं और इन तरंगों में ‘ऊर्जा’ होती है- यह अब तक वैज्ञानिक रुप से साबित नहीं हुआ है; न ही ‘नियति’ या ‘समय’ की रेखा का अस्तित्व साबित हुआ है, जिसमें भूत-वर्तमान-भविष्य की हर घटना दर्ज (नियत) हो। फिर भी, मेरा मानना है कि 1. नियति की रेखा में हर घटना दर्ज होती है; 2. भविष्य की घटनाओं को ‘विचार-तरंगों’ के माध्यम से प्रभावित किया जा सकता है। अर्थात्, अगर बहुत-से लोग ऐसा सोचेंगे, तो ऐसा जरूर घटित होगा!
      तीसरा- तीसरा कारण ‘आत्मबल’ से जुड़ा है। अगर मैंने अपने जीवन में एक सम्भव लक्ष्य बनाया, तो फिर मैंने क्या लक्ष्य बनाया? सम्भव कार्य तो कोई भी कर सकता है! मैं क्यों न ऐसा कार्य हाथ में लूँ, जिसके बारे में लोग मानें कि यह तो असम्भव है और मैं उसे पूरा करके दिखाऊँ!
      चौथा- ‘नैतिक शिक्षा’ क्या कहती है- 1. जीवन में एक लक्ष्य, एक सपना होना ही चाहिए; 2. यह लक्ष्य या सपना ‘महान’ होना चाहिए; 3. हम अपने जीवन में अपना लक्ष्य पा सकें या नहीं, हमारा सपना पूरा हो या नहीं- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता- हमें बस अपनी क्षमता के अनुसार कोशिश करते रहना है; और 4. लक्ष्य को पाने या सपना पूरा होने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि हमने कितने बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए, कितने बड़े सपने को साकार करने के लिए इस मानव-जीवन को जीया!
      पाँचवाँ- पाँचवाँ कारण ‘आध्यात्मिक’ है- 1. मुझे ऊपरवाले पर भरोसा है; 2. मैं जानता हूँ कि वह मेरे साथ है; 3. मैं यह भी जानता हूँ कि उसकी इच्छा ही मेरी इच्छा है और मेरी इच्छा ही उसकी इच्छा है!     

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

आर्थिक-नीतियों के मामले में काँग्रेस-भाजपा एक है...



वर्षों पहले, जब इण्टरनेट का जमाना नहीं था, तब मैं जनसत्ता में और बाद में अमर उजाला में खूब पत्र लिखा करता था और एक समय ऐसा भी आ गया था, जब मैं निश्चिन्त रहता था कि मेरा पत्र छपेगा ही!
      ऐसे ही एक पत्र में एकबार मैंने लिखा था कि ब्रजेश मिश्र, जसवन्त सिंह और यशवन्त सिन्हा को भविष्य में अपराधी के रुप में आधुनिक भारत के इतिहास में दर्ज किया जायेगा
      आज मुझे इस बात की याद इसलिए आयी कि आज ‘प्रभात खबर’ में मैं यशवन्त सिन्हा जी का व्याख्यान सुधारों को आम लोगों से जोड़ना होगा पढ़ रहा था। एक स्थान पर वे कहते हैं कि भविष्यनिधि पर ब्याज घटाकर उन्होंने मुद्रास्फीति में कमी लायी, मगर फिर भी, विरोधी उन्हें अपराधी के रुप में पेश करने में सफल रहे।
सिन्हा जी, सरकारी फिजूलखर्ची में कमी लाकर आपने अगर मुद्रास्फीति में कमी लायी होती, तो भाजपा न तो 2004 में चुनाव हारती और न ही 2009 में। मगर आपने पी.एफ. पर मिलने वाले ब्याज को घटाया। आपने किरासन का दाम बढ़ाया, आपने अन्यान्य जरूरी जिन्सों का दाम बढ़ाया। क्यों? क्योंकि आपने सांसदों का वेतन जो तीनगुना बढ़ा दिया था.... याद है? इस तीनगुना बढ़े वेतन के लिए पैसा जुगाड़ करने के लिए ही तो आपने मुनाफा कमाने वाले सरकारी उपक्रमों का विनिवेश यानि निजीकरण शुरु किया था! कुछ याद है कि आपने सरकारी नौकरियों में 33 प्रतिशत कटौती का सख्त आदेश जारी किया था- 3 रिटायर होने वाले के बदले 1 ही भर्ती की जानी थी!
      ***
      मैंने कई बार यह लिखा है कि सत्ता पाने के बाद आर्थिक नीतियों के मामले में भाजपा न केवल दूसरी काँग्रेस, बल्कि काँग्रेस से भी बीस साबित होगी। मैं जानता हूँ कि इस आभासी दुनिया के मेरे बहुत-से साथियों को मेरा यह विचार तल्ख लगेगा। मगर मेरा मन कहता है कि मैं सही हूँ। 2014 में अगर भाजपा की (या भाजपा के नेतृत्व में) सरकार बनती है, तो आर्थिक उदारीकरण को बहुत ही आक्रामक तरीके से लागू किया जायेगा। चुनाव से पहले जारी होने वाले घोषणापत्र में इस सम्बन्ध में गोलमोल घोषणायें की जायेंगी। अगर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं, तो वे भी पार्टी-लाईन के खिलाफ नहीं जायेंगे और उदारीकरण को जोर-शोर से लागू करेंगे, जो इस देश में तथा सारी दुनिया में सिर्फ और सिर्फ आर्थिक विषमता बढ़ा रहा है, और कुछ नहीं।
      मेरी बात पर यकीन नहीं है, तो मैं यशवन्त सिन्हा के उपर्युक्त व्याख्यान से तीन पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर देता हूँ:-
      लेकिन क्या ऐसे अनुभव (2004 की हार) सुधारों के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को कम कर देंगे? हरगिज नहीं। चुनावी फायदों से ज्यादा महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित हैं। अगर मुझे दुबारा मौका मिले, तो इन सुधारों को और भी जोश-खरोश से लागू करूँगा।
      कृपया सिन्हा जी के इस विचार को भाजपा की पार्टी लाईन ही समझें- भले चुनाव से पहले उनके नेता मुँह से कुछ भी बोलें।
      ***
      साथियों मेरी बात मानिये- 1. काँग्रेस देश का बेड़ा गर्क कर रही है; 2. भाजपा दूसरी काँग्रेस बन चुकी है; 3. अन्ना-रामदेव इत्यादि आदर्शवादी बातें करते हैं, मगर सत्ता की बागडोर थामने से कतराते हैं; 4. केजरीवाल वगैरह सबकी पोल तो खोल रहे हैं, मगर उनके पास न कोई आर्थिक नीति है देश के लिए और न ही कोई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय नीति।
      इन सबके बदले में आपलोग दस वर्षों की तानाशाही की मेरी अवधारणा का समर्थक बनिये... इसी में देश का भला है!
      (अगर आपने इस तानाशाही का घोषणापत्र अब तक नहीं देखा है, तो एकबार देख सकते हैं- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

कृपया डॉ. सुनीलम का समर्थन करें





शुक्रवार, 19 अक्तूबर को डॉ. सुनीलम को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी
      मामला 12 जनवरी, 1998 का है, जब मुलतई (मध्य प्रदेश) के परेड ग्राउण्ड में किसान धरना दे रहे थे। पुलिस ने इन पर गोली चला दी थी। 24 किसान मारे गये थे और 150 घायल हुए थे। दो सरकारी कर्मी- एक टी.आई. तथा फायर ब्रिगेड का एक चालक- भी इस हिंसा में मारे गये थे। तब दिग्विजय सिंह (जी हाँ, यही दिग्विजय सिंह) मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।
      जो 24 किसान मारे गये और 150 घायल हुए, उसके लिए कोई दोषी नहीं पाया गया; मगर जो पुलिसकर्मी तथा फायर ब्रिगेडकर्मी मारे गये, उसके लिए आन्दोलन के नेता डॉ. सुनीलम तथा अन्य दो लोगों को 14 साल बाद वृहस्पतिवार, 18 अक्तूबर को दोषी ठहराया गया और अगले रोज उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।
      ***
      कल के ‘प्रभात खबर’ में राजेन्द्र तिवारी के कॉलम में इस न्याय की जानकारी पाकर मैं चौंक गया था। 24 किसानों की मौत के लिए कोई जिम्मेवार नहीं? कॉलम लेखक ने दो और मुद्दे उठाये हैं- 
     पहला, इन दिनों डॉ. सुनीलम केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ (जो एक उद्योगपति भी हैं) के गृह जिले छिन्दवाड़ा में अडानी समूह के पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ आन्दोलन चला रहे थे; और 
      दूसरा, सभी सामाजिक संगठनों ने इस सजा पर चुप्पी साध रखी है।
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      आज मैंने इण्टरनेट पर खोज करके डॉ. सुनीलम के बारे में थोड़ी और जानकारी बढ़ाई। आप सब से मेरा विनम्र अनुरोध है कि कृपया इस समाचार को ज्यादा-से-ज्यादा फैलायें और सोशल साईट्स पर विभिन्न तरीकों से डॉ. सुनीलम के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करें।   
    


रविवार, 21 अक्तूबर 2012

देश की स्थिति और मेरा सपना


मैं नहीं जानता कि मेरे विचार हरिवंश जी (राँची से प्रकाशित दैनिक ‘प्रभात खबर’ के सम्पादक महोदय) से हु-ब-हु क्यों मेल खाते हैं? हाँ, चूँकि वे एक पत्रकार हैं, जिनका दायित्व होता है- समाज एवं राष्ट्र को आईना दिखाना, इसलिए वे परिस्थितियों की भयावहता को सामने रखकर छोड़ देते हैं; जबकि मैं खुद को एक ‘विचारक’ के साथ-साथ देश का भावी ‘स्टेट्समैन’ भी मानता हूँ और सपना देखता हूँ कि मेरे दिशा-निर्देशों पर चलकर यह देश न केवल एक दिन खुशहाल, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली बनेगा, बल्कि इस देश के नेतृत्व में एक दिन आदर्श विश्व व्यवस्था भी कायम होगी
      खैर, आज के अपने रविवासरीय स्तम्भ ‘समय से संवाद’ (15-16 साल पहले जब मैं अपने घोषणापत्र पर काम कर रहा था, तब मैं दैनिक ‘जनसत्ता’ के रविवासरीय सम्पादकीय स्तम्भ ‘कागद कारे’ से प्रेरणा लिया करता था। इसे स्वर्गीय प्रभाष जोशी जी लिखा करते थे। राजेन्द्र माथुर जी पहले ही दिवंगत हो चुके थे, फिर भी, उनकी रचनाओं से भी मैंने प्रेरणा ग्रहण की थी। इन दोनों पत्रकारों के अलावे व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी के चुटीले व्यंग्यों ने भी मेरे चिन्तन-मनन को धार दिया था।) में आज उन्होंने जो लिखा है (नयी जाति की पहचान), उसे पढ़कर मैं निम्न विन्दुओं को नोट करता हूँ:-
1.   अरविन्द केजरीवाल को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उनके प्रयासों से कमोबेश सभी राजनीतिक दलों के राजनेता एक ही जमीन या मंच पर खड़े नजर आ रहे हैं।
2.  देश में एक प्रकार की राजशाही चल रही है- राजा का बेटा ही राजा बन रहा है, चाहे वह योग्य हो, या न हो।
3.  सत्ता अमीरों के हाथ में चली गयी है, तो कैसे उम्मीद की जाय कि ये लोग गरीबोन्मुख या आम जनता के हितों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनायेंगे?
4.  यूँ तो आर्थिक-विषमता सारे विश्व में बढ़ रही है, मगर भारत में यह विषमता तेजी से बढ़ रही है। शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री रघुराम राजन को डर है कि क्या भारत एक विषम कुलीनतंत्र या बदतर (Unequal Oligarchy or Worse) स्थिति की ओर बढ़ रहा है?
5.  प्रायः सभी दलों में तानाशाही कायम है, भले इसे तानाशाही न कहकर आला-कमान कहा जा रहा है। जेपी और आचार्य कृपलानी कहा करते थे- जिन दलों के अन्दर लोकतंत्र नहीं है, वे लोकतंत्र के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? दल के अन्दर तानाशाही और देश के लोकतंत्र की बागडोर के सूत्रधार!
6.  पहले दलों की घरेलू नीति, विदेशनीति, अर्थनीति घोषित तथा सार्वजनिक होती थी, अब सरकार में शामिल होकर या सरकार से बाहर आकर अचानक नयी नीतियाँ घोषित की जाती हैं।
7.  अगर हम एक-एक कर सभी राजनेताओं की पोल खोल दें, मगर विकल्प (दुहरा दूँ, विकल्प, यह बेहद महत्वपूर्ण है और देश की राजनीति में आज सबसे ज्यादा उपेक्षित है। मैंने अप्रत्यक्ष तरीके से एकबार इसी मुद्दे पर केजरीवाल साहब को चेताया था कि वे दिल्ली से बाहर निकलें, पंचायत से लेकर राजधानी तक दल की कार्यकारिणी बनायें, घोषणापत्र बनायें, दिग्गजों का समर्थन हासिल करें, न कि सड़कों पर घेराव-प्रदर्शन; बशर्ते कि देश की राजनीति का विकल्प प्रस्तुत करने की इच्छा हो!) न प्रस्तुत करें, तो क्या होगा? बेशक, देश की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल जायेगी।
8.  अन्त में, हरिवंश जी ने चर्चिल के विश्वविख्यात कथन को याद किया है- 50 साल गुजर जाने दीजिये, आजादी के बड़े नेताओं को दुनिया से विदा होने दीजिये, फिर देखिये भारत का हाल, कि कैसे-कैसे गन्दे, अराजक, देशतोड़क, अयोग्य, भ्रष्ट तथा आपराधिक रुझान वाले नेता देश को चलाते हैं और कैसे इस देश को तिनकों की तरह बिखेर देते हैं!
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अपनी ओर से मैं यही कहूँगा कि लोहा ही लोहा को काटता है। देश में एक प्रकार की बुरी तानाशाही कायम है, और इसे एक अच्छी तानाशाही से ही समाप्त किया जा सकता है। इस देश को महान बनाने का और दुनिया में आदर्श व्यवस्था कायम करने का पूरा खाका मेरे दिमाग में मौजूद है, मैं इस कार्य के लिए योग्य हूँ और शायद मेरा जन्म इसी कार्य के लिए हुआ है। अगर देशवासी मेरी बातों को और मेरे घोषणापत्र (http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/) को समय रहते समझ लें, तो बहुत अच्छा, वर्ना मेरा क्या, मैं तो एक कलाकार भी हूँ- चित्रकारी करते हुए दिन गुजार लूँगा...