रविवार, 28 जुलाई 2013

150. विकास बनाम खुशहाली



       मैं अक्सर सोचता था कि आखिर मैं अपनी "खुशहाली" वाली अवधारणा को कैसे प्रकट करूँ कि यह "विकास" से अलग लगे। इस पर विचार करने के लिए मुझे थोड़ा लम्बा समय चाहिए था और मैं अब तक टाल रहा था।
       भला हो अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला महोदय का, जिन्होंने एक लेख "सुख चाहिए या भोग" लिखकर मुझे ज्यादा विचार करने से बचा लिया।
       लेख थोड़ा जटिल लग सकता है, मगर पढ़ा जा सकता है।
       विकास "खपत" या "उपभोग" पर आधारित है, जबकि खुशहाली में व्यक्ति के भौतिक विकास के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखा जायेगा।
       भूटान ने बिल्कुल इसी रास्ते को चुना है- वहाँ जी.डी.पी. से नहीं, बल्कि जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को मापा जाता है।
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खैर, ई-पेपर में डॉ. झुनझुनवाला का लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक किया जा सकता है:
और जी.एन.एच. की जानकारियों के लिए यहाँ:
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शनिवार, 20 जुलाई 2013

149. थोड़ा कहा...



       इस देश में जो बात मुझे अच्छी लगती है, वह है- "अभिव्यक्ति की आजादी"! वर्ना जिस तरह की बातें मैं इण्टरनेट पर (ब्लॉग या सोशल मीडिया पर) लिखता हूँ, अगर मैं चीन का नागरिक होता, तो अब तक जेल में सड़ रहा होता, या फिर लटका दिया गया होता!
       आशा है, यह आजादी सदा बनी रहेगी।
       इसके अलावे और कोई अच्छी बात, तारीफ करने लायक बात मुझे देश में नजर नहीं आती। क्या राजनीति, क्या अर्थनीति, क्या पुलिस-प्रशासन-न्याय, क्या शिक्षा, क्या स्वास्थ्य, क्या रोजगार... हर तरफ निराशा और हताशा ही नजर आ रही है... कहीं उम्मीद की छोटी-सी चिन्गारी भी नहीं दीखती!
हाँ, एक मिसाइल बनाने वाला विभाग है, और दूसरा कृत्रिम उपग्रह एवं इनका प्रक्षेपक बनाने वाला विभाग है, जो सही काम करते नजर आते हैं- बाकी सबके-सब अपने-आपको तथा देश की जनता को बस उल्लू ही बना रहे हैं!
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       देश की अर्थनीति बहुराष्ट्रीय निगम तथा अमीर देश तय कर रहे हैं। अमीर देश अगर खुले-आम नहीं करते, तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक (WB) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से ऐसा करते हैं। देश की घरेलू नीतियाँ पूँजीपती एवं माफिया-सरगना तय करते हैं। हमारे राजनेताओं की हैसियत इन सबके "दलाल" से ज्यादा नहीं रह गयी है। वैसे, यह सिर्फ भारत का मामला नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आजाद हुए बहुत-से देशों में ऐसी स्थिति है, जहाँ का राजनेता वर्ग अमीर देशों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा माफिया का दलाल बन गया है।
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       कई मायनों में भारत दुनिया के बाकी सभी देशों से अलग है। यह आध्यात्म-ज्योतिष, ज्ञान-विज्ञान से लेकर संगीत और स्थापत्य तक हर क्षेत्र में विश्वगुरू था और आज जबकि दुनिया के ज्यादातर देश उपभोग के घोड़े पर सवार होकर विकास के अन्धे रास्ते पर दौड़ लगा रहे हैं, आने वाले समय में भारत को ही फिर एकबार विश्वगुरू की भूमिका निभानी होगी। (हालाँकि भूटान ने "जीने की सही राह" अपना ली है- वहाँ जी.डी.पी. के बजाय जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को नापा जाता है।)
       वह समय कब आयेगा? मेरा हिसाब कहता है कि चूँकि भारत के पतन की शुरुआत 11वीं सदी से हुई थी इसलिए इसका पुनरुत्थान 21वीं सदी में ही होना चाहिए। 2011 में अन्ना हजारे के लिए और फिर 2012 में दामिनी के लिए जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे थे, उससे लगा था कि परिवर्तनों का दौर शुरु हो गया है, मगर जल्दी ही सब सामान्य हो गया।
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       व्यक्तिगत रुप से मैं "अनशन" का समर्थक नहीं हूँ। अगर मुझे देश में सुव्यवस्था लानी है, तो मैं पहले कुव्यवस्था के नाभिक को काटकर अलग करूँगा और उसके बाद खुद ही सुव्यवस्था कायम करूँगा। मैं इसके लिए याचना का रास्ता तो कभी नहीं चुनूँगा!
       अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव और अरविन्द केजरीवाल ने अनशन करते हुए याचना का रास्ता चुना- यह भी ठीक है- बिना एक सेना बनाये या सेना का नैतिक समर्थन लिये बिना आप बगावत कर भी तो नहीं सकते! मगर मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि तीनों ही मृत्यु से डर गये थे! ...और मृत्यु से डरने वाले भारत-जैसे महान देश के "दिग्दर्शक"- स्टेट्समैन तो नहीं ही हो सकते!
       यह सच है कि मैं नेताजी का भक्त हूँ, मगर मैं यह स्वीकार करता हूँ कि गाँधीजी के अन्दर गजब का नैतिक बल था- वे मृत्यु से नहीं डरते थे! ...प्रसंगवश, मैं यह भी बता दूँ कि गाँधीजी ने कुछ गाँवों का एक समूह बनाकर उन्हें "आत्मनिर्भर" बनाने की जो कल्पना की थी- उसका मैं कायल हूँ!
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       इस देश के बारे में जितना मैं सोच सकता था, जितना लिख सकता था, उतना मैं अपने दो ब्लॉग ("खुशहाल भारत" और "देश दुनिया") में लिख चुका हूँ। अब जो भी लिखूँगा, वह या तो व्याख्या होगी, या दुहराव। इसलिए अब देश के बारे में लिखना या सोचना मैं कम कर रहा हूँ। अब तो प्रतिक्रिया तक देने का मन नहीं करता- चाहे 4 किशोरियों के साथ सामूहिक बलात्कार हो जाये; या स्कूली भोजन खाकर 23 बच्चे काल के गाल में समा जायें!
       अब अगर कुछ बचा है, तो वह है अपनी सोच, अपने विचारों को जमीन पर उतारना। देश की आम जनता, यहाँ तक कि प्रबुद्ध नागरिकों और बुद्धीजीवियों से भी, मैं कोई खास उम्मीद नहीं रखता- सबकी सोच लकीर के फकीर वाली है- अपने महान संविधान और महान लोकतंत्र के दायरे से बाहर जाकर कुछ सोचना उनके लिए पाप है। दूसरी बात, जैसे "सी" ग्रेड की फिल्में होती हैं, वैसे ही सी-ग्रेड की राजनीति भी होती है- ज्यादातर लोगों को यही पसन्द है।
ऐसे में, उम्मीद सिर्फ यही बची है कि अगर भारतीय थलसेना का साथ मिल जाय, तो मैं दस वर्षों के अन्दर ही इस देश की किस्मत सँवार दूँ! अगर नियति ने ऐसा तय नहीं कर रखा है, तो मैं चुपचाप देश को रसातल में जाते हुए देखता रहूँ! बस यही दो विकल्प है मेरे पास। न तो आक्रोश व्यक्त करने से कुछ होगा, न याचना करने से, और न ही रोने से। या तो मैं डिक्टेटर बनकर- (बेशक, एक "चाणक्य सभा" की मदद से)- खुद ही सब ठीक कर डालूँ, या फिर मामूली आदमी बनकर अपने चमन की बर्बादी को देखता रहूँ, जिसे शहीदों ने अपने खून से सींचा है- बीच का रास्ता मेरे पास नहीं है।
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       अन्त में- आज की तारीख में जो लोग यह सोचते हैं कि "1935 के अधिनियम" पर आधारित अपने महान संविधान के तहत कायम महान "लोकतांत्रिक" व्यवस्था, जिसमें हर जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के 80 से 90 प्रतिशत नागरिकों का प्रतिनिधित्व "नहीं" करता है, में इसे हटाकर उसे और फिर, उसे हटाकर इसे सत्ता सौंप देने से सब ठीक हो जायेगा- वे मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं।
       ...सच्चाई यह है कि आज का हर राजनेता दलाल है बहुराष्ट्रीय निगमों का; अमीर देशों का; आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक, डब्ल्यूटीओ का; देशी अरबपतियों का और माफिया-सरगनाओं का, चाहे वह किसी भी दल का हो! इस वक्त हमें चाहिए एक देशभक्त, ईमानदार और साहसी डिक्टेटर, जो "आम" लोगों के लिए तथा "सम्पत्ति" में "फूलों से भी अधिक कोमल" हो, जबकि "खास" लोगों के लिए तथा "विपत्ति" में "वज्र से भी ज्यादा कठोर"!
       जब तक हम "लीक से हटकर" सोचना शुरु नहीं करेंगे- हम अपने मुल्क के पतन को नहीं रोक सकते!
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शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

148. शासक-प्रशासक, जनता, सेना तथा राष्ट्र



       सितम्बर'2012 में मैंने राजनीतिक परिवर्तन के 3 नियमों की खोज करते हुए एक लेख लिखा था- "राजनीतिक परिवर्तन के तीन नियम", जिसका 2रा नियम कहता है:
कोई भी जनविरोधी शासक तब तक राजगद्दी पर आसीन रह सकता है तथा चैन की नीन्द सो सकता है, जब तक कि उसके मन में वर्दीधारी जवानों की स्वामीभक्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न न हो।
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मिश्र के ताजा घटनाक्रम के बाद आज विचार करने पर मैं कुछ और नियमों तक पहुँचा-
नियम-1: किसी भी राष्ट्र की सत्ता की बागडोर "नागरिक" नेताओं के हाथों में होनी चाहिए- सेना को सत्ता से दूर ही रहना चाहिए।
नियम-2: जब नागरिक नेता माफिया एवं पूँजीपति के साथ गठजोड़ करके देश को लूटने लगे और इस लूट की बहती गंगा में प्रशासक भी अपने हाथ धोने लगें, तब नागरिकों का फर्ज बनता है कि वह-
(क)     पहले तो शासकों को चुनाव के माध्यम से बदलकर देखे;
(ख)     अगर चुनाव का अवसर नहीं मिलता है, या चुनाव में नेताओं को बदलकर देखने पर भी देश का भला नहीं होता है, तो "बगावत" करते हुए वह सड़कों पर उतर जाय।
नियम-3: जब भ्रष्टाचार, कुशासन, अराजकता और अनैतिकता के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरे, तब सेना का कर्तव्य बनता है कि वह "देश की भलाई" को ज्यादा महत्व दे, न कि "नमकहलाली" को; जनता का साथ देते हुए भ्रष्ट शासक, प्रशासक, पूँजीपति और माफिया को सत्ता से हटाये; और ईमानदार एवं देशभक्त लोगों की एक कार्यकारी परिषद को अन्तरिम शासन चलाने दे।
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ये नियम कहीं लिखे हुए तो नहीं हैं- मगर ऐसा होना ही चाहिए- अतः ये "शाश्वत" हैं।
मगर सेना से अक्सर कुछ गलतियाँ हो जाती हैं-
       गलती-1: कोई महत्वाकांक्षी सैन्य जेनरल खुद सत्ता की बागडोर थाम लेता है।
       गलती-2: किसी मुख्य न्यायाधीश या विरोधी पक्ष के किसी नेता को सत्ता की बागडोर थमा दिया जाता है।
       अतः फिर दुहरा दिया जाय कि भ्रष्टों को हटाने के बाद देश की सत्ता की बागडोर हमेशा एक "कार्यकारी परिषद" के हाथों में थमायी जानी चाहिए- जिसमें सभी क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हों, जिनका चरित्र अच्छा हो और जिनके खिलाफ जनता को शिकायत न हो।
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       स्पष्टीकरण: जिन देशों के नागरिक शासक अपने ही देश को लूटने-खसोटने का काम नहीं करते; माफिया, और पूँजीपति के साथ गठजोड़ नहीं बनाते; और प्रशासक अपने शासकों के लिए खैनी नहीं मलते, उस देश की सेना की बात यहाँ नहीं हो रही है। यहाँ बात वैसे देशों की हो रही है, जहाँ के "नागरिक शासन के सुधरने की गुंजाइश खत्म हो चुकी हो।"
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       सेना भी कई प्रकार की हो सकती है-
       प्रकार-1: समझदार सेना। मिश्र में 30 वर्षों से बुरी तानाशाही कायम थी, मगर सेना ने अपनी मर्जी से बगावत या तख्ता-पलट नहीं की। जब जनता ने बगावत किया, तब सेना ने तानाशाह शासक का आदेश मानने के बजाय जनता का साथ दिया।
       प्रकार-2: गुलाम सेना। चीन में (1989) थ्येन-आन-मेन चौक की बगावत एक महान नागरिक बगावत थी, मगर वहाँ की सेना ने (दुर्भाग्य से, उस सेना का नाम "जनता की सेना" है!) अपने साम्यवादी शासकों का आदेश माना, जबकि उन्हें भी दीखता है कि ये नेता अब "साम्यवादी" नहीं रहे- ये विशाल महलों में पूरी शानो-शौकत के साथ रहते हैं और दुनिया की नाक में दम करने का काम करते हैं।
       प्रकार-3: चापलूस सेना। इस प्रकार की सेना के सैनिक जवान और छोटे अफसर आमतौर पर अच्छे होते हैं, मगर ऊँचे दरजे के अफसर अक्सर चापलूस होते हैं- शासकों के। रिटायरमेण्ट के बाद गवर्नर वगैरह बनने का ख्वाब देखते हैं, अक्सर घूँस भी खाते हैं और कुछ दूसरे अनैतिक कामों में भी लिप्त होते हैं। देश किस ओर जा रहा है, इसे किधर ले जाना है- यह सब आकलन करने की क्षमता इनमें नहीं होती। ऐसी सेनायें अक्सर "उपनिवेशवादी साम्राज्य" की उपज होती हैं। अगर कभी योग्य व्यक्ति इन सेनाओं का सेनापति बन भी जाता है, तो उसे शासक तुरन्त हटा देते हैं।
       अपवाद: हाँ, बड़े अफसरों के आदेश का इन्तजार किये बिना छोटे अफसर और सैनिक जवान अगर जनता का साथ देने का फैसला ले ले, तो ऐसे देशों में भी बदलाव आ सकता है।  
       टिप्पणी: यहाँ मैं उस देश के नाम का जिक्र नहीं कर रहा हूँ कि इस 3सरे प्रकार की सेना कहाँ पायी जाती है- इसका अनुमान आप चाहें, तो स्वयं लगा सकते हैं।
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पुनश्च: 
बाद में पता चला कि मिश्र की सेना पर अमेरिका का वरदहस्त रहा है, फिर भी, पहली नजर में वह समझदार ही लगती है. 

147. तीन तरह के बदमाश शासक-प्रशासक



                एडवर्ड स्नोडेन प्रकरण सामने आने के बाद मैं बदमाश शासक-प्रशासकों के किस्मों पर विचार कर रहा था।
यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि बदमाश सिर्फ शासक और प्रशासक ही होते हैं- किसी भी देश के आम देशवासी आमतौर पर अच्छे होते हैं- ऐसा मेरा मानना है। व्यक्तिगत रुप से मैं चीन, जापान, कोरिया, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, भारत, पाक, बाँग्ला इत्यादि सभी देशों के "आम देशवासियों" को अच्छा मानता हूँ।
मेरा यह भी मानना है कि अगर "शासक" ईमानदार और सख्त हो जाये, तो "प्रशासक" तुरन्त सुधर जाते हैं, जिससे सारी व्यवस्था भी चाक-चौबन्द हो जाती है; अन्यथा शासन-प्रशासन-व्यवस्था इतना नीचे गिर जाती है कि उसकी व्याख्या के लिए घृणित शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा- जो फिलहाल मैं नहीं करना चाहता।
       खैर, तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ये बदमाश तीन तरह के होते हैं-
1.       खाँटी बदमाश। ये खुले आम बदमाशी करते हैं- जो करते हैं उसे सीना ठोंकर स्वीकार भी करते हैं। लोक-लिहाज की परवाह नहीं करते। चीन और उत्तर कोरिया-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में लाया जा सकता है। व्यवस्था बदलने पर ये आम तौर पर फाँसी ही चढ़ते हैं।  
2.       शरीफ बदमाश। ये बातें अच्छी करते हैं, मगर काम गुप्त रुप से बुरे करते हैं। जैसे, "लोकतंत्र" एवं "मानवाधिकार" की बातें करना और "बदनाम तानाशाहों" की मदद करना और लोगों के "ईमेल की जासूसी" करवाना। अमेरिका और ब्रिटेन-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में लाया जा सकता है। हाँ, पकड़े जाने पर ये आम तौर पर दोष स्वीकार करते हैं, माफी माँगते हैं, इस्तीफा देते हैं और सजा भी स्वीकार करते हैं।
3.       चोरी और सीनाजोरी वाले बदमाश। ये बेशर्म किस्म के बदमाश होते हैं, इनकी चमड़ी गैण्डे से भी ज्यादा मोटी, इनका दिमाग लोमड़ी से भी ज्यादा शातिर और इनकी भूख हाथी से ज्यादा तेज होती है। ये आपके सामने मुर्गे की टाँग भकोसेंगे, मगर कहेंगे यही कि वे शुद्ध शाकाहारी हैं! आप कहेंगे- आप तो मुर्गे की टाँग चेप रहे हैं, वे कहेंगे- यह तो विरोधियों की साजिश है मुझे बदनाम करने की। भारत, पाकिस्तान-जैसे देशों के शासकों-प्रशासकों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसे देश में अगर एक न्यायाधीश की आँखों के सामने कत्ल हो जाय, तो भी उस न्यायाधीश को बीस से तीस साल लग जाते हैं, हत्यारे को सजा देने में। एक डीसी के सामने गिनकर दस शव पड़े होंगे, तो भी वह यही कहेगा कि जाँच बैठायी गयी है, रिपोर्ट आने के बाद ही मृतकों की संख्या बतायी जा सकती है। ऐसे देशों में पुलिस को हफ्ता पहुँचाये बिना कोई भी गैर-कानूनी काम करना असम्भव होता है। जाहिर है कि यहाँ ये न दोष स्वीकार करते हैं और न ही इन्हें सजा मिलती है। मुकदमे तब तक चलते हैं, जबतक कि इनकी टाँगें कब्र में न लटक जायें और फिर स्वास्थ्य कारणों से उन्हें जेल नहीं भेजा जाता।  
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