बुधवार, 26 जून 2013

146. देवभूमि: आपदा: राहत: निष्कर्ष

कार्टून: फेसबुक पेज "पवन टून" से साभार
       जैसे महाभारत में सिर्फ कृष्ण ही कृष्ण छाये हुए थे, वैसे ही देवभूमि की त्रासदी में बस भारतीय थलसेना, वायुसेना और भारत-तिब्बत सीमा वाहिनी के जवान ही जवान नजर आ रहे हैं- चारों तरफ- बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को बचाते हुए। कहाँ है मोटी पगार पाने वाला सरकारी अमला? कहाँ हैं, बीडीओ, सीओ, डीसी, डीडीसी तथा उनके स्टाफ वगैरह? कहाँ है आपदा प्रबन्धन वाला सरकारी विभाग?
       मुझे 2008 की कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ याद आ रही है। (उस वक्त मैं पूर्णिया में ही था- जब नेपाल की तराई में वीरनगर बराज का 'कुसहा' बाँध टूटा था और कोसी ने अपना रास्ता बदलते हुए रौद्ररुप धारण कर लिया था।) नीतिश बाबू को गुमान था कि उनके सुशासनी अफसर और कर्मी सब सम्भाल लेंगे। मगर या तो वे अफसर-बाबू मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे, या फिर पॉलीथीन शीट खरीदने के लिए कमीशन तय करने में जुट गये थे। तीन दिनों तक लोग तिल-तिल कर मरते रहे। चौथे दिन जब सेना उतरी, तब जाकर लोगों को सुरक्षित स्थानों तक लाने का अभियान शुरु हुआ।
       आखिर सैनिकों के भरोसे कब तक काम चलेगा?
       आखिर नागरिक अफसर-कर्मी कब अपनी जिम्मेवारी समझेंगे??
       क्या राहत कार्यों के लिए अलग से एक सेना नहीं होनी चाहिए???
       ***
       अगर मन्थन किया जाय, तो दो निष्कर्ष सामने आयेंगे-
       एक- देश के किशोरों-युवाओं के लिए "सैन्य शिक्षा" आवश्यक होनी चाहिए।
       दो- राहत-कार्यों के लिए अलग से एक सेना होनी चाहिए।
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       मैंने बहुत पहले से ही इन विषयों को अपने घोषणापत्र में शामिल कर रखा है-  
28.4 उच्च विद्यालयों में (यानि 7 वीं से 12 वीं कक्षा तक) यूनिफ़ॉर्म और सैन्य शिक्षा को आवश्यक बनाया जाएगा- हालाँकि सैन्य शिक्षा कड़ाई से नही दी जाएगी।
40.1 सैन्य-जीवन एक पेशा तो है हीइसे 'सैन्य-शिक्षाके रूप में भी अपनाया जाएगा और इसके लिए दसवीं पास विद्यार्थियों को 8 वर्षों की सामान्य सेवा तथा 2 वर्षों की आरक्षित सेवा की शर्तों पर सेना में भर्ती किया जाएगा।
40.2 'सेना मुक्त विश्वविद्यालयकी स्थापना की जायेगीजो सैनिकों को उनकी 8 वर्षों की सेवा के दौरान स्नातकोत्तर (एम.ए.स्तर तक की शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
40.3 न्यूनतम 8 वर्षों की 'सैन्य शिक्षा प्राप्तयुवाओं को अन्यान्य सरकारी/निजी नौकरियों में प्राथमिकता एवं वरीयता दी जायेगीया फिर20 प्रतिशत अंकों का ग्रेसउन्हें दिया जाएगा।
39.7  विभिन्न प्रकार की त्रासदियों से निपटने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित एवंसुसज्जित एक 'देवदूत' बल का गठन किया जाएगा। (इनका निवास जिला स्तर पर बनने वाला 'खेल गाँव' (क्रमांक 26.6) होगा- इस प्रकार, आपात्कालीन स्थितियों में राहत कार्य का अपना प्राथमिक कर्तव्य निभाने के अलावे बाकी समय में वे 'खेल गाँव' की देखभाल भी कर सकेंगे।) 
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अन्त में- यह सही है कि भारतीय वायु सेना में रहते हुए मैंने किसी बचाव कार्य में भाग नहीं लिया, मगर मुझे गर्व है कि मुझे अपनी अपनी युवावस्था के 20 साल इस सेना को प्रदान करने का अवसर मिला।    


रविवार, 23 जून 2013

145. देवभूमि में आपदा






देवभूमि में आयी आपदा से मैं दुःखी तो हुआ। पर इसपर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की मेरी इच्छा नहीं हुई। (वैसे, कुछ समय मैं नेट से दूर भी रहा।) 
हर कोई जानता है कि इस क्षेत्र में न पक्की सड़कें बननी चाहिए, न कंक्रीट निर्माण होना चाहिए और न ही मोटर गाड़ियाँ चलनी चहिए। अगर ये तीनों बहुत जरूरी हों, तो इनकी एक सीमा तय होनी चाहिए। 
खासकर, यहाँ नदियों पर बाँध तो यहाँ बनने ही नहीं चाहिए।
मगर ये सारे काम यहाँ अन्धाधुन्ध तरीके से हो रहे हैं।
पता चला कि पहले 20 से 40 वर्षों के अन्दर बादल फटने की घटनायें घटती थीं, मगर पिछ्ले कुछ वर्षों से हर साल ऐसा हो रहा है।
यह भी पता चला कि अँग्रेजों ने इन पहाड़ों पर 'चीड़' बोये, जो न तो मिट्टी को जकड़ते हैं, न ही पानी को सोखते हैं। अँग्रेजों के बाद यहाँ चीड़ के स्थान पर फिर से अखरोट, बुरांश इत्यादि स्थानीय किस्म के के पेड़ बोये जाने चाहिए थे।
यह जानकर मैं तो दंग रह गया कि इस क्षेत्र में छोटे-बड़े लगभग 500 बाँध बनाने की तैयारी चल रही है! ...ज्यादातर पर काम चल भी रहा है! (पिछले साल बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान अलकनन्दा पर बन रहे एक विशाल बाँध का निर्माण कार्य मैंने भी देखा।) यह भी जानकारी मिली कि यहाँ की हर नदी को सुरंग में डालने की योजना है।
लगे हाथ अगर राजनीति की बात की जाय, तो सबको पता होना चाहिए कि "अर्थनीति" और "विकास" से जुड़ी नीतियों के मामले में दोनों राष्ट्रीय दलों की सोच में रत्तीभर भी अन्तर नहीं है। जहाँ तक मेरी जानकारी है- हजारों वर्षों से अविरल बहती गंगा माता को "कुछ घण्टों के लिए रोक देने" का अपयश (टिहरी बाँध के निर्माण के दौरान भगीरथी को 3 या 4 सुरंगों में डाला जा रहा था- तब यह घटना घटी थी- हालाँकि यह 'हाइलाईट' नहीं हुई) अटल जी के सर पर ही आता है। (अँग्रेजों ने भी ऐसी हिमाकत नहीं की थी।)  
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'फेसबुक' पर 50 साल पुरानी केदारनाथधाम की इस तस्वीर को देखकर मुझे एक बात याद आ गयी- इसलिए आज मैं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा हूँ। मेरे घोषणापत्र के 'शुरुआती संस्करण' में पर्यावरण अध्याय के अन्तर्गत एक विन्दु यह था कि हिमालयी पर्यटन एवं तीर्थस्थलों की यात्रा पर 5 से 7 वर्षों का प्रतिबन्ध लगाया जायेगा ताकि वहाँ का पर्यावरण 'प्राकृतिक' रुप फिर से प्राप्त कर सके और इस दौरान पर्यटन से आय प्राप्त करने वाले स्थानीय लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार या नियमित मुआवजे की व्यवस्था की जायेगी। 
बाद में इस विन्दु को मैंने हटा दिया- क्योंकि मुझे लगा कि लोग इसका विरोध कर सकते हैं। 
...आज देखिये.... मैं कितना सही था! प्रकृति ने खुद ही 3-4 वर्षों के प्रतिबन्ध का इन्तजाम कर दिया!!