मंगलवार, 21 अगस्त 2012

टावर पर चढ़ा जवान और सेना का ब्रिटिश हैंग-ओवर



      हमारी मीडिया मे भारतीय थलसेना के जवानों की जो आदर्श छवि प्रस्तुत की जाती है, वह तस्वीर का एक पहलू है- चाँद का उजला पक्ष। हमें दीखता तो नहीं है, पर हम जानते हैं कि चाँद का एक काला पक्ष भी है। तो भारतीय थलसेना के उसी काले पक्ष को सबको सामने लाने के लिए थलसेना का एक जवान साहस दिखाते हुए 80 फीट ऊँचे मोबाइल टावर पर चढ़कर बैठ गया है। एक समाचार चैनल ने भी उस जवान की बातों को बिना काट-छाँट किये दिखाने का साहस किया। (टावर पर जाकर जवान का साक्षात्कार लेने वाले संवाददाता तथा कैमरामैन वाकई बधाई के पात्र हैं!) वर्ना सेना के काले पक्ष से जुड़ी बातों को आमतौर पर मीडिया नजरअन्दाज कर देती है और जवानों की घुटन अन्धेरे में ही रह जाती है।
      एक बहुत-बहुत गन्दी प्रथा हमारी थलसेना में अँग्रेजों के जमाने से कायम है और वह है- बटमैन की प्रथा। टावर पर चढ़ा जवान बोल रहा था- अफसरों को सेवादार रखने के लिए पैसे मिलते हैं, सेवादार वे रखते भी हैं; फिर भी, हम जवानों को उनके घर पर नौकरों का काम करना पड़ता है। क्या उनका और और उनकी बीवी के जूते पालिश करने के लिए हम फौज में भर्ती हुए हैं? चौंकिये मत, यह सच्चाई है- जवानों की पूरी एक टीम अफसरों के घर पर नौकरों के तरह रहती है। नौकरों वाले सारे काम ये जवान करते हैं। इन्हें बटमैन कहा जाता है और अफसरों की धाक का पता बटमैनों की संख्या से ही चलता है। मैंने खुद यह सब देखा तो नहीं है, पर वायुसेना में रहते हुए जब कभी जवानों से मिलना-जुलना हुआ, यह जानकारी मुझे मिली थी। मैं आश्चर्य चकित हूँ कि जेनरल वी.के. सिंह-जैसे महान सेनापति के समय में भी अँग्रेजों के जमाने से चली आ रही इस घृणित प्रथा पर रोक कैसे नहीं लगी!
      उस जवान ने एक और बात कही, पिता के मृत्यु हुई- मैंने तीन दिनों की छुट्टी माँगी, मगर एक दिन की छुट्टी मिली- क्या करता? घर जाकर छुट्टी बढ़वानी पड़ी। वायु सेना में वायुसैनिकों के लिए 60 दिनों की वार्षिक तथा 30 दिनों की आकस्मिक छुट्टी का प्रावधान है- थलसेना में भी इतनी ही होगी। अँग्रेज जानते थे कि जवानों के लिए छुट्टी का क्या महत्व है, इसलिए वे इतनी छुट्टी की व्यवस्था कर के गये हैं, मगर भारतीय अफसर जवानों के लिए छुट्टी का महत्व नहीं समझते। उनका बस चले, तो वे इन्हें घटाकर 30 और 15 दिन कर दें! (अनधिकृत रुप से ऐसा किया भी जा चुका है शायद।)
      आप सोचते होंगे, रविवार को जवान भी छुट्टी मनाते होंगे- हमारी-आपकी तरह। जी नहीं, उस दिन सबको दलों में बाँट कर अफसरों के क्वार्टर पर खासतौर पर काम करने के लिए भेजा जाता है। हाँ, दल बनाते समय तकिया कलाम की तरह यह बार-बार दुहराया जरुर जाता है कि- आज छुट्टी का दिन है, खुशी का दिन है
      एक बात और सामने आयी- यह बात तो खैर, सेना के अलावे भी सारे सरकारी तंत्र पर लागू होती है- टावर पर चढ़े जवान ने चार महीने पहले राष्ट्रपति, रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष को रजिस्टर्ड डाक से चिट्ठी भेजी रखी है (रसीद उसके जेब में थी- उसने बताया), मगर किसी का जवाब उसे नहीं मिला है। कम-से-कम रक्षा मंत्रालय का जवाब मिलना चाहिए था- यह एक नागरिक संस्था है!
      मैं नहीं जानता अब उस जवान का क्या होगा। मगर मेरा अनुमान है कि उसे मानसिक रुप से विक्षिप्त घोषित किया जायेगा, सेना के अस्पताल में इलाज के नाम पर बिजली के शॉक दे-देकर उसे वास्तव में विक्षिप्त बनाया जायेगा और शायद बिना पेन्शन, बिना कोई लाभ दिये उसे सेना से निकाल दिया जायेगा... इसके बाद वह एक पागल की मौत मरेगा या अदालतों की दहलीज पर तलवे घिसते हुए बुढ़ा होकर मरेगा... सेना का यह अन्धेरा पक्ष अन्धेरे में ही रह जायेगा... कोई और कभी नहीं जान पायेगा!
      मैं कोई ऐसे ही नेताजी सुभाष का भक्त नहीं बना हूँ- वे आजाद हिन्द फौज में सभी प्रान्तों, सभी धर्मों, सभी जातियों के जवानों को एक साथ रखते थे और खुद वही भोजन ग्रहण करते थे, जो एक जवान को मिलता था। आपको अगर मैं सेना में एक जवान तथा एक अफसर के भोजन के मीनू तथा इसकी व्यवस्था की बात बताना शुरु करूँ, तो आपकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जायेंगी। जाहिर है, गोरे अफसरों तथा काले जवानों वाली बहुत-सी बातें आज भी भारतीय सेनाओं में बनी हुई हैं... जबकि आजादी के बाद यह सब खत्म होना था!       

रविवार, 19 अगस्त 2012

गृहयुद्ध की स्थिति पैदा की जा रही है...


कल जब मैंने ‘जेनरल आप चूक गये...’ लिखते वक्त यह लिखा था कि कुछ शक्तिशाली लोग देश को गृहयुद्ध की आग में झोंक रहे हैं, तब मैं खुद सोच रहा था कि क्या यह आकलन सही है? क्या सचमुच कुछ शक्तिसम्पन्न लोग देश में गृहयुद्ध-जैसी स्थिति पैदा करना चाहते है?
      संयोग देखिये, आज ही उत्तर मिल गया। आज के प्रभात खबर में राजेन्द्र तिवारी अपने स्तम्भ में लिखते हैं-
      आज सब लोग इस बात का श्रेय लेने की होड़ में लगे हैं कि तुमने नहीं हमने उदारीकरण को तेजी से लागू किया था। अब सब सामने है। आज न देश की सरकार पर देशवासियों का भरोसा है, और न विपक्ष पर। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यदि कोई हस्तक्षेप हुआ तो वह विपक्ष या तीसरे मोर्चे की तरफ से नहीं बल्कि अन्ना-केजरीवाल और बाबा रामदेव ने किया। यह मुद्दा राजनीति के केन्द्र में आ ही रहा था कि देश में साम्प्रदायिक माहौल बनाये जाने लगा है। अन्ना और बाबा रामदेव के धरने के दौरान ही तमाम तरह के फोटो इंटरनेट व मेल पर चलने लगे। क्या कोई बता सकता है कि इनकी शुरुआत किसने की? कोई नहीं बतायेगा क्योंकि जो यह पता करने की ताकत रखते हैं, उनको इसमें फायदा नजर आ रहा है। लेकिन राजनीतिक दलों को सतरों के बीच इबारत पढ़नी चाहिए। देश में हर जगह खदबदाहट है। लोग राजनीति-लूटबाजी से निराश हैं। इतनी निराशा तो शायद इमरजेंसी के समय भी नहीं थी क्योंकि विकल्प दिखायी दे रहा था। यह अच्छा संकेत नहीं है। शायद आजादी के बाद का यह सबसे ज्यादा निराशा का दौर है।  
      यानि मेरा आकलन सही है कि कुछ शक्तिशाली लोग जानबूझ कर देश को गृहयुद्ध की ओर ले जा रहे हैं... ताकि भ्रष्टाचार-कालाधन का मुद्दा राजनीति के केन्द्र में न आने पाये...  

शनिवार, 18 अगस्त 2012

18 अगस्त पर कुछ चुभते सवाल



(आज 18 अगस्त है। मैं मूर्ख सुबह इस तारीख को भूल गया था। दोपहर घर आने पर पता चला, बिजली सुबह से ही नदारद है और मेरे साहबजादे ने इन्वर्टर का काफी देर सदुपयोग करते हुए कम्प्यूटर चला लिया है। फिर भी, कुछ मिनटों के लिए कम्यूटर चला और जैसी कि मुझे उम्मीद थी- शिवम मिश्रा ने नेताजी के अन्तर्धान रहस्य से जुड़ी सामग्री नेट पर डाल दी थी। वास्तव में, शिवम जी किसी भी ऐसी तारीख को नहीं भूलते, जिसका सम्बन्ध देशभक्ति से हो। मैं उनके इस जज्बे का प्रशंसक रहा हूँ- जब से उन्हें जान रहा हूँ। अभी रात प्रायः दस बजे बिजली आने पर मैंने टायपिंग शुरु की है।)
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      इस बार 18 अगस्त को मैं कुछ सवाल उठाकर अपने मन का बोझ हलका करना चाहता हूँ। ये सवाल बहुत दिनों से मुझे मथ रहे हैं, मगर बहुतों को ये सवाल (खासकर, पहला सवाल) चुभेगा- यह सोचकर मैं इन्हें नहीं उठाता था।
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      तो पहला सवाल कुछ यूँ है कि प्रधानमंत्री रहते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने और गृहमंत्री रहते हुए श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने मुखर्जी आयोग को उसके द्वारा माँगे गये सरकारी दस्तावेज क्यों नहीं मुहैया करवाये थे?
      अब आप पद एवं गोपनीयता की शपथ की दलील देकर उनका बचाव न करें, तो बेहतर। यह कोई निजी आयोग नहीं था। कोलकाता उच्च न्यायालय के आदेश पर इसका गठन हुआ था और न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) मनोज कुमार मुखर्जी की आयोग के अध्यक्ष के रुप में नियुक्ति स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। ऐसे में, सरकार अगर मुखर्जी आयोग द्वारा माँगे गये सभी दस्तावेज उसे उपलब्ध करा देती, तो सरकार के फैसले को न्यायपालिका में असंवैधानिक ठहराये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता! दूसरी बात, मामला नेताजी से जुड़ा था- कौन माई का लाल सरकार के इस निर्णय पर उंगली उठाता, जरा उसका नाम तो बताकर देखिये!
इतना ही नहीं, इसी बहाने कुख्यात सत्ता-हस्तांतरण के दस्तावेज भी सार्वजनिक किये जा सकते थे कि इसमें भारत ने नेताजी को बीस वर्षों तक ब्रिटिश राजमुकुट का शत्रु माना गया ह या नहीं! (वैसे, सुना है कि ब्रिटेन में यह दस्तावेज सार्वजनिक हो चुका है और यह पुस्तक के रुप में उपलब्ध है- ब्रिटेन में गोपनीय दस्तावेजों को 30 वर्षों के बाद सार्वजनिक किये जा सकने का बाकायदे कानून है। पता नहीं, भारत को ऐसे कानून से क्या एलर्जी है। और न्यायपालिका को भी तह मामला क्यों नहीं दीखता!)
अगर अटल-आडवाणी चाहते, तो नेताजी के साथ-साथ लालबहादूर शास्त्री और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की रहस्यमयी मृत्यु से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों को भी सार्वजनिक किया जा सकता था!
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      दूसरा सवाल। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति की, ताकि पिछले दो आयोगों (शाहनवाज तथा खोसला आयोग) जैसा हश्र इस आयोग का न हो; (पिछले दोनों आयोगों के अध्यक्ष की नियुक्ति सरकारों ने की थी।) मगर इसकी मॉनिटरिंग सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों नहीं की? जब सरकार द्वारा आयोग के साथ असहयोग की खबरें अखबारों में आ रही थी, तब इनका संज्ञान क्यों नहीं लिया गया? क्यों नहीं सरकार को आयोग के साथ सहयोग करने का निर्देश दिया गया?
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      आज सूचना आयोग ने सरकार को नेताजी से जुड़े दस्तावेजों को सार्जनिक करने का आदेश दे रखा है, मगर सरकार का कहना है कि ऐसा करने से सोवियत संघ के साथ उसके सम्बन्धों पर बुरा असर पड़ेगा। अब सरकार को कौन बताये कि सोवियत संघ के टूटे जमाना हो गया है। अब मास्को, ओम्स्क और याकुत्स्क तीनों शहर रूस में हैं (जहाँ नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज रखे हैं) और रूस को कोई आपत्ति नहीं है इन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में।  मुखर्जी आयोग के समय में ही तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत सरकार के आधिकारिक अनुरोध पर वे इन आलमारियों को खोलने के लिए तैयार हैं! (जिस भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने ही आलमारियों को नहीं खोलने दिया हो, वह भला रूस से ऐसा अनुरोध कैसे करेगा?)
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      क्या यह मान लिया जाय, कि सभी राजनेता- चाहे वे काँग्रेस के हों, भाजपा के, या किसी भी दल के- एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं और अगर हमें नेताजी के अन्तर्धान-रहस्य पर से पर्दा उठाना है, तो सारे राजनेताओं को हटाकर एक नयी शासन-प्रणाली (थोड़े समय के लिए) कायम करनी होगी?
      क्या यह मान लिया जाय कि हमारी न्यायपालिका भी इस रहस्य पर से पर्दा हटाना नहीं चाहती और इसलिए (थोड़े समय के लिए) एक नयी शासन-प्रणाली कायम करने के रास्ते में अगर न्यायपालिका आड़े आती है, तो उसके भी खिलाफ हमें जाना पड़ेगा?

आप चूक गये जेनरल...



आज जबकि ऐसा महसूस हो रहा है कि कुछ शक्तिशाली लोग बहुत ही खरतनाक चालें चलते हुए देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल रहे हैं... इसे आर्थिक दिवालियेपन की ओर ले जा रहे हैं... इसके सारे संसाधनों को चूसकर निचोड़ डालना चाह रहे हैं... और जब चूसने लायक कुछ न बचे तो यहाँ से भागने की फूलप्रूफ योजना भी बना रहे हैं...
तब मुझे एक ही बात याद आती है... मैंने ‘फेसबुक’ तथा ‘जनोक्ति’ पर इसका जिक्र किया भी था...
मैंने लिखा था कि 31 मई 2012 के दिन जेनरल वी.के. सिंह को थल सेनाध्यक्ष का पद छोड़ने से इन्कार कर देना चाहिए... क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने ईशारों-ईशारों में कह दिया है कि- भ्रष्टाचार के रावण के खात्मे के लिए सीता का लक्ष्मण रेखा लाँघना जरुरी है...
(यह और बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रति मेरे मन में सिर्फ ‘शिष्टाचार वाला सम्मान’ है, ‘हार्दिक श्रद्धा’ नहीं है; मगर फिर भी, उसकी इस टिप्पणी को मैं एक महत्वपूर्ण ईशारा मानता हूँ और जैसा कि आप जानते हैं- मैं इस वक्त देश में परिवर्तन लाने के लिए लीक से हटकर रास्ता अपनाये जाने का कट्टर समर्थक हूँ- घिसी-पिटी लकीरों पर चलकर, यानि अनशन-सत्याग्रह करके, या नाग के स्थान पर साँप को मौका देकर, या नयी पार्टी बनाकर चुनाव लड़के, हम कोई परिवर्तन नहीं ला सकते देश में!)
खैर, आज पूर्व जेनरल संविधान के नीति-निदेश तत्वों की याद दिला रहे हैं और अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के भ्रष्टाचार-कालाधन विरोधी मुहिम को समर्थन दे रहे हैं... मगर इनसे क्या होगा? जब आप दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना के जेनरल थे, तब आपको देश को बचाने के लिए लक्ष्मण रेखा लाँघने तथा लीक से हटकर कदम उठाने के बारे में फैसला लेना चाहिए था! अगर आपने 31 मई को अवकाश ग्रहण करने से इन्कार कर दिया होता, तो धीरे-धीरे देश की 70 से 80 प्रतिशत जनता आपके समर्थन में उठ खड़ी होती (कुछ चवन्नी दाढ़ी वाले बुद्धीजीवियों, भ्रष्टों-बेईमानों, राजनीतिज्ञों तथा इन सबके नाते-रिश्तेदारों को छोड़कर) और यकीन कीजिये, तब देश को गृहयुद्ध की आग में झोंकने तथा इसे आर्थिक दीवालियेपन की ओर धकेलने से पहले ये गद्दार एक हजार बार सोचते- एक हजार बार! आज ये निडर हो गये हैं....
अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ती, तो आप एक आदेश देते- लुटियन बँगलों को खाली करवाया जाय... और फिर अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव को परामर्शदाता बनाते हुए विभिन्न विषयों के जानकारों की एक कार्यकारी परिषद  बनाकर सत्ता उसे सौंप देते... निर्देश स्पष्ट होता- संविधान के नीति-निदेश तत्वों की भावनाओं के अनुसार शासन किया जाय... खास लोगों की बजाय आम लोगों की भावनाओं के अनुसार नीतियाँ बनायी जाय...
मगर आपने ऐसा कुछ नहीं किया... मैंने व्यक्तिगत रुप से भी आप तक सन्देश पहुँचाने की कोशिश की थी... पहली बार सन्देश रक्षा मंत्रालय पहुँच गया शायद... दूसरी बार अप्रत्यक्ष रुप से आपतक सन्देश पहुँचाया था... आपको मिला भी था... मगर शायद आपने नजर अन्दाज कर दिया...
न इस देश की जनता कभी लामबन्द होगी और न ही लीक से हटकर चलना चाहेगी... एक सेना से ही उम्मीद थी, वह भी टूट गयी...
अब चलिये, या तो बैठ-बैठकर देश की बर्बादी का तमाशा देखते हैं... या फिर खुद बर्बादी का शिकार बनते हैं... 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

खिलाड़ी और उसका पुरस्कार



समाचार के अनुसार, ओलिम्पिक में पच्चीस मीटर रैपिड पिस्टल फायर स्पर्द्धा के रजत पदक विजेता सूबेदार विजय कुमार को अगली प्रोन्नति देते हुए उन्हें सूबेदार मेजर बनाया गया है
      ध्यान रहे कि पदक जीतने के बाद विजय कुमार ने यह बताया था कि पदोन्नति में हो रही लेट-लतीफी के कारण वे सेना छोड़ने का मन बना रहे हैं। पदक जीतने के बाद ‘पुरस्कार स्वरुप’ जो पदोन्नति उन्हें अभी दी गयी, इसके लिए वे पिछले साल से ही हकदार थे। अतः इस पदोन्नति को ‘पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। हालाँकि थल सेनाध्यक्ष ने यह अश्वासन दिया है कि विजय कुमार अधिकारी बनने के योग्य हैं और उन्हें सेना में अधिकारी बनाने के लिए राष्ट्रपति को आवेदन दिया जायेगा। देखा जाय, हमारी कुख्यात लालफीताशाही इस प्रक्रिया को पूरा करने में कितना समय लेती है और हमारी सेना ‘वास्तव में’ एक जे.सी.ओ. को अधिकारी बनाना चाहती है या नहीं!
      जो साथी थल सेना के ‘रैंक एवं फाईल’ के बारे में नहीं जानते, उन्हें बता दूँ कि सेना में जवान, नायक तथा हवलदार ‘नन-कमीशंड’ अधिकारी (एन.सी.ओ.) होते हैं; नायब-सूबेदार, सूबेदार तथा सूबेदार-मेजर ‘जूनियर कमीशंड’ अधिकारी (जे.सी.ओ.) होते हैं; और लेफ्टिनेण्ट, कैप्टन, मेजर, कर्नल, ब्रिगेडियर, जेनरल ‘कमीशंड’ अधिकारी होते हैं, जिन्हें सांकेतिक रुप से देश के राष्ट्रपति ओहदा प्रदान करते हैं
      यहाँ जो मैं कहना चाहता हूँ, वह यह है कि देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों को सम्मानित करने के लिए एक अलग ही व्यवस्था होनी चाहिए- लालफीताशाही से अछूती! खिलाड़ी स्वदेश लौटा और दूसरे या तीसरे दिन उसे उसका सम्मान प्रदान कर दिया गया- कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। अभी आप देखते जाईये- विजय कुमार को सेना में कमीशन देने की अनुशंसा वाली फाईल कितने महीनों तक इधर-उधर भटकती है! साल-दो साल भी लग जाय, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
दूसरी बात, सेना में ‘कमीशंड’ अधिकारियों की जो ‘मानसिकता’ होती है, वह एन.सी.ओ. या जे.सी.ओ. के प्रति कुछ वैसी ही होती है, जैसी कि ‘ब्रिटिश’ अधिकारियों की ‘इण्डियन’ जवानों के प्रति हुआ करती थी। जो एन.सी.ओ. या जे.सी.ओ. सेना में अपनी योग्यता के बल पर अधिकारी बनते हैं, उन्हें अधिकारियों के मेस में या आवास में दूसरे दर्जे के अधिकारी के रुप में व्यवहार प्राप्त होता है। बेशक, विजय कुमार यह जानते होंगे और निकट भविष्य में एक छोटी-सी खबर आये कि उन्होंने सेना छोड़ दी है, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। (काश, आजादी के बाद ‘आजाद हिन्द फौज’ के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल करते हुए इसका भारतीयकरण कर दिया गया होता!)
इस सम्बन्ध में मुझे याद आ रहा है कि 1988 में जब मैंने पहली बार भारतीय वायु सेना के ‘एक्वेटिक्स चैम्पियनशिप’ (तैराकी, वाटर-पोलो, डाइविंग प्रतियोगितायें, जो वायु सेना अकादमी, हैदराबाद में होती है) में भाग लिया था, तब एक लम्बे-तगड़े, साँवले तैराक की ओर ईशारा करके मुझे बताया गया था- ये वायु सेना के बेहतरीन तैराक हैं- कॉर्पोरल साहू। वायु सेना का ‘कॉर्पोरल’ रैंक थल सेना के ‘नायक’ के समतुल्य है। उन दिनों वे भी अगली पदोन्नति यानि सार्जेण्ट (थलसेना का हवलदार) नहीं बन पा रहे थे। दूसरे या तीसरे साल इसी चैम्पियनशिप में मुझे बताया गया- अब ये ‘पायलट अफसर’ साहू हैं! उन्हें ‘सार्क’ खेलों में दो सौ मीटर बटरफ्लाई स्ट्रोक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद ‘कमीशन’ दे दिया गया था। जहाँ तक मुझे याद है- इसमें लेट-लतीफी नहीं हुई थी।
कहने का तात्पर्य, पुरस्कार के लिए बाकायदे अलग नियम होने चाहिए और यह तुरन्त मिलना चाहिए- जैसे कि ओलिम्पिक में प्रतियोगिता समाप्त होने के घण्टे भर के अन्दर पदक दे दिये जाते हैं। कहा भी गया है- मजदूर को उसका पसीना सूखने से पहले मजदूरी दे देनी चाहिए!
व्यक्तिगत रुप से मैं ओलिम्पिक के लिए क्वालिफाय करने वाले सभी खिलाड़ियों को आई.ए.एस. अधिकारियों का वेतनमान दिये जाने का हिमायती हूँ और अपने ‘घोषणापत्र’ में मैंने इसका जिक्र किया भी है।
एक युवक आई.ए.एस. बनने के लिए जितना मानसिक श्रम करता है, क्या ओलिम्पियन बनने के लिए इससे कम शारीरिक श्रम की जरुरत होती है?       

सोमवार, 13 अगस्त 2012

हे भगवान!



आज सुबह-सुबह टीवी पर एक समाचार देखकर मन बड़ा विचलित हुआ। 1999 से, यानि विगत 14 वर्षों से, पाकिस्तान से आया एक सिक्ख परिवार भारत की नागरिकता पाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहा है, मगर उसे अब तक नागरिकता नहीं मिली है। इतना ही नहीं, जैसा कि परिवार के मुखिया सरदारजी बता रहे थे- सरकारी दफ्तर में उन्हें ‘ऐ पाकिस्तानी इधर आओ’ ‘ऐ पाकिस्तानी उधर जाओ’ कहकर अपमानित किया जाता है!
      इण्टरनेट पर जानकारी हासिल करने पर पता चला- विगत 14 वर्षों से ही अमृतसर में रह रहीं नरनजीत कौर को हर पाँचवे साल में डरते-डरते पाकिस्तान जाना पड़ता है- पासपोर्ट के नवीणीकरण के लिए; जबकि पेशावर का इलाका महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है। उन्हें हर दूसरे साल दिल्ली भी जाना पड़ता है- भारत में रहने की अनुमति बढ़वाने के लिए!
      इस खबर को जानने के बाद मेरा ध्यान गया कि ‘फेसबुक’ पर बहुत दिनों से एक जानकारी तैर रही है कि कनाडा वासिनी ब्लू फिल्मों की अभिनेत्री सनी लिओन को दो घण्टों के अन्दर भारत की नागरिकता प्रदान कर दी गयी है! (इस अभिनेत्री को यहाँ के फिल्मकारों ने बुलाया है- हालाँकि यह एक गलत परम्परा की शुरुआत है) बेशक, दो घण्टों में नागरिकता वाली यह खबर सही ही होगी।
      मैं सोच में पड़ गया हूँ- विश्व के किसी भी कोने में अगर कोई हिन्दू प्रताड़ित होगा, तो वह भारत के सिवा भला और कहाँ का रुख करेगा? और इस देश में ऐसे शरण माँगने वालों को तत्काल नागरिकता देने की कोई व्यवस्था ही नहीं है? अगर ऐसे मामलों में कुछ अड़चने हैं, जिसके कारण समय लगता है, तो दो घण्टों में नंगी फिल्मों की एक नायिका को कैसे नागरिकता दे दी गयी? कैसे करोड़ों अवैध बाँग्लादेशी घुसपैठियों को चन्द दिनों के अन्दर राशन कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेन्स इत्यादि मुहैया करा दिये जाते हैं?
      इस देश की वर्तमान अवस्था पर कहने को तो बहुत कुछ मन करता है, मगर फिलहाल मैं ऊपरवाले से यही पूछता हूँ कि और कितने दिनों का दुर्दिन हमें देखना पड़ेगा भगवान? और कितना पतन लिख रखा है तुमने इस देश के नसीब में? कोई ‘रखवाला’ भी तय किया है तुमने, या इस देश को मिटा देने पर ही तुल गये हो? 

शनिवार, 4 अगस्त 2012

आम चुनाव’ 2014: विकल्प क्या है?


आम चुनाव’ 2014: विकल्प क्या है?


सच्चाईयाँ  

2014 के आम-चुनाव के मद्दे-नजर विकल्पों की चर्चा करने से पहले कुछ कड़वी सच्चाईयों को दुहरा लिया जाय-
      1. देश की (बल्कि दुनिया की) परिस्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है- चाहे बात गरीबी की हो, अर्थव्यवस्था की हो, पर्यावरण की हो, जनसंख्या की हो, या अन्धाधुन्ध विकास की;
      2. देश को आमूल-चूल (Upside down) परिवर्तनों की जरुरत है; (जरुरत तो दुनिया को है, मगर शुरुआत भारत से होनी चाहिए। हालाँकि यह भी खबर है कि दक्षिण-अमेरीकी देश वेनेजुएला में राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के नेतृत्व में आदर्श परिवर्तनों का दौर शुरु हो चुका है। भारतीय मीडिया इसकी खबर नहीं देता, क्योंकि यह परिवर्तन उदारीकरण तथा अमेरीकी-नीतियों के खिलाफ जा रहा है!)
      3. मेरा मानना है कि जब तक एक देशभक्त, ईमानदार और साहसी नेता के हाथों में देश की सत्ता नहीं आती, हम बड़े बदलावों की आशा नहीं रख सकते; (नीचे से आप छोटे-मोटे बदलाव ला सकते हैं देश में, पर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े बदलाव लाने के लिए आपको सत्ता थामकर ऊपर से ही कोशिश करनी होगी!)
      4. यह सही है कि नगरों के आम नागरिक, कस्बों के आम कस्बाई और गाँवों के आम ग्रामीण ईच्छा-अनिच्छा से भ्रष्ट आचरण में लिप्त हैं, मगर देश का हर आम आदमी इस भ्रष्टाचार से त्रस्त है और इससे मुक्ति पाना चाहता है- यह भी सही है!

विकल्प  

      आईये, अब उन विकल्पों की सूची बनायें, जो चुनाव’2014 में हमारे सामने होंगे-
      1. ज्यादातर देशवासी अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव को ‘तारणहार’ के रुप में देखते हैं;
      2. देशवासियों का एक बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी को देश के भावी नायक के रुप में देखता है;
      3. कुछ रीढ़विहीन, मस्तिष्कविहीन अभागे भारतीय ऐसे भी हैं, जो एक युवराज का राज्याभिषेक देखना चाहते हैं।
      4. क्षेत्रीय, साम्यवादी तथा (‘तथाकथित’) समाजवादी दलों का एक गठबन्धन, यानि तीसरा मोर्चा ऐन चुनाव से पहले उभर सकता है;
      5. देशभक्त, ईमानदार एवं साहसी लोगों लेकर एक नये राजनीतिक दल के गठन की योजना जमीनी रुप ले सकती है।  
      अगर 5वाँ विकल्प तैयार हो जाता है, तो ज्यादा सम्भावना इस बात की है कि अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव इसी को अपना समर्थन दे देंगे- और इस प्रकार, कुल विकल्प चार ही रहेंगे।

विवेचना  

      अब हम चारों-पाँचों विकल्पों की नीर-क्षीर विवेचना करते हैं:

1. अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव

अन्ना हजारे एवं स्वामी रामदेव पिछले साल से भ्रष्टाचार एवं कालेधन के खिलाफ आन्दोलन चला रहे हैं। भ्रष्टाचार, महँगाई और गरीबी से त्रस्त जनता उन्हें ‘तारणहार’ के रुप में देखती है। उनके आन्दोलन को लगभग सारा देश समर्थन देता है- मैं भी समर्थन करता हूँ। मगर शुरु से ही मेरा मानना है कि हम आज के अपने राजनेताओं को भ्रष्टाचार एवं कालेधन के खिलाफ कार्रवाई करने या चुनाव-प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। वे बहुत घाघ होते हैं- उनपर ‘अनशन-सत्याग्रह’ का कोई असर नहीं पड़ने वाला। वे खुद ही भ्रष्ट आचरण में लिप्त हैं तथा भ्रष्टों को प्रश्रय देते हैं; वे खुद ही काला धन पैदा एवं जमा कर रहे हैं तथा ऐसे लोगों को बचाते हैं; और एक गन्दी चुनाव-व्यवस्था उनके लिए वरदान है। मेरी अवधारणा है कि अगर आपको बदलाव लाना है, तो आपको सत्ता की बागडोर थामनी ही होगी- ऐसा मैं शुरु से ही सोशल मीडिया पर लिखता आ रहा था।
      अभी-अभी अन्ना हजारे ने इस अवधारणा को स्वीकार किया है। (हालाँकि स्वीकार करने के पीछे जो कारण है, वह गर्व करने योग्य नहीं है। अरविन्द केजरीवाल तथा साथियों ने जोश में आकर आमरण अनशन का व्रत ले लिया था, जबकि शहीद होने की हिम्मत उनके अन्दर नहीं थी। जब सरकार ने उनके साथ बातचीत नहीं की, तो अनशन तोड़ने के लिए उन्हें एक सम्मानजनक बहाने की तलाश थी। अतः जल्दीबाजी में, बिना व्यापक विचार-मन्थन के, देश को राजनीतिक विकल्प देने की बात कही जा रही है। विचार-मन्थन अब शायद हो।) जो भी हो, मैं देखना चाहूँगा कि स्वामी रामदेव इस अवधारणा से कब तक सहमत होते हैं।
      वैसे, मुझे नहीं लगता कि अन्ना हजारे या स्वामी रामदेव के पास देश के पुनर्निर्माण का कोई खाका, कोई रोडमैप, या कोई ब्लूप्रिण्ट है; या उन्होंने मन की आँखों से देश की कोई छवि देख रखी है। जबकि मेरे अनुसार, अगर आपके पास सुस्पष्ट खाका नहीं है देश के पुनर्निर्माण का, तो आपके द्वारा सफलतापूर्वक चलाया गया बड़े-से-बड़ा आन्दोलन भी कोई बदलाव नहीं ला पायेगा! एक अच्छी फिल्म तभी बनती है, जब मेहनत करके उसकी पटकथा तैयार की गयी हो (‘पटकथा’ में बारीक-से-बारीक बातों का भी जिक्र होता है) और निर्देशक के पास बनने से पहले ही मन की आँखों से उस फिल्म को देख लेने की क्षमता हो! हाँ, अगले कुछ महीनों में अगर खाका तैयार हो जाय और भावी भारत की तस्वीर खींच ली जाय, तो अलग बात है।
      मगर यहाँ दो दुर्भाग्य भी हैं-
1. न तो अन्ना हजारे और न ही स्वामी रामदेव देश का प्रधानमंत्री बनना चाहेंगे; और
2. अन्ना हजारे एवं स्वामी रामदेव एक संयुक्त मोर्चा बनायेंगे- इसकी कोई झलक नहीं दीख रही (कोई अप्रत्याशित घटना घट जाय, तो अलग बात है)।
ऐसे में, राजनीतिक विकल्प देने की कोशिश विफल हो जाय; या सफल होने के बाद जे.पी. आन्दोलनएवं जनता पार्टी राज की पुनरावृत्ति हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं।

2. भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी

2014 में भाजपा को सत्ता सौंपने तथा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की इच्छा रखने वालों की संख्या भी काफी बड़ी है देश में। ऐसा हो भी सकता है। मगर मैं यहाँ साफ-साफ घोषणा कर रहा हूँ कि सत्ता पाने के बाद भाजपा दूसरी काँग्रेस साबित होगी; वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण को और भी आक्रामक तरीके से लागू करेगी, जिसके फलस्वरुप बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तथा देशी उद्योगपति एवं पूँजीपति और भी अमीर होते जायेंगे तथा गरीब और भी गरीब होते जायेंगे। जो कोई भी मुझसे सहमत नहीं हैं, वे भाजपा मुख्यालय को पत्र लिखकर (या सूचना के अधिकार के तहत माँग करके) उनकी आर्थिक नीतियों की जानकारी ले सकते हैं- वे खुलकर स्वीकार करेंगे कि उदारीकरण के अगले चरणों को वे जोर-शोर से लागू करेंगे! जबकि सबको दीख रहा है कि पिछले बीस वर्षों में इस उदारीकरण ने अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को और चौड़ा किया है तथा घपलों-घोटालों की बारम्बारता को तेज किया है।
2014 में अगर भाजपा की (या भाजपा के नेतृत्व में) सरकार बनती है, तो यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि संसद में भाजपा सत्ता पक्ष की ओर से खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजीनिवेश (एफ.डी.आई.) के समर्थन में प्रस्ताव ला रही है और विपक्षी दल के रुप में काँग्रेस इसका विरोध कर रही है!  
नरेन्द्र मोदी जी की नीतियाँ भाजपा से कोई अलग नहीं हो सकतीं। वे भी अमीरों को नाराज करने का खतरा नहीं मोल लेंगे। (ध्यान रहे- देशभर के अमीर अगर अभी से उनका गुणगान कर रहे हैं, तो इसके पीछे ‘कुछ’ तो है!) जबकि अमीरों की तरक्की को कुछ समय के लिए रोककर गरीबों को कुछ आगे लाने की जरुरत है- इसे कुछ इस तरह से समझा जाय कि अगर मैं अपने तीन बेटों के साथ सड़क पर चल रहा हूँ, और मेरा बड़ा बेटा कुछ ज्यादा ही आगे-आगे चल रहा है, तो मैं उसे रुकने के लिए कहूँगा, मँझले बेटे को धीमे चलने कहूँगा, ताकि मेरा छोटा बेटा, जो दुर्भाग्य से लकवाग्रस्त भी है, काफी पीछे न छूट जाय!- यह भी मेरी एक अवधारणा है!
हाँ, इतना है कि भाजपा, या नरेन्द्र मोदी जी कुछ भावनात्मक किस्म के निर्णय लेकर अपने समर्थकों को सुखानुभूति की दशा में बनाये रखने में जरुर सफल होंगे।

3. काँग्रेस तथा राहुल गाँधी

      कई बार देश की आम जनता ने जागरुक मतदाता की भूमिका निभायी है, मगर ज्यादातर समय वह भावनात्मक लहरों पर सवार होकर ही मतदान करती है। ऐसे में, ठीक चुनाव से पहले एस.आर.पी. (सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिकड़ी) अगर एक लहर पैदा करने में सफल हो जाती है, तो अरबों-खरबों के घपलों-घोटालों के बावजूद काँग्रेस इस देश में फिर जीत जायेगी और राहुल गाँधी (या प्रियंका बढेरा) प्रधानमंत्री बन जायेंगे। बहुतों को यह असम्भव लग रहा होगा, पर ऐसा होने पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा! यह विचित्र देश है।
      अगर ऐसा होता है, तो भारत कुछ दशक और पीछे चला जायेगा और तब इसके पुनर्निमाण या पुनरुत्थान के लिए और ज्यादा कोशिश करनी पड़ेगी।

4. तीसरा मोर्चा

      फिलहाल तीसरा मोर्चा बनने के आसार नहीं दीख रहे- सभी क्षत्रप अपने-अपने राज्य की राजनीति के कीच-स्नान में मस्त नजर आ रहे हैं। फिर भी, चुनावी बुखार शुरु होते ही यह मोर्चा बन सकता है। मगर इसे सत्ता हासिल नहीं हो सकती। हुई भी तो चार-छह महीनों में ही सर-फुटौव्वल शुरु हो जायेगा, जिसकी परिणति काँग्रेस या भाजपा के परोक्ष सत्ता-अधिग्रहण से होगी।

 5. नया राजनीतिक दल

      मुझे लगा था- पहले एक नया राजनीतिक बनेगा और तब उसे अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव का समर्थन मिलेगा। मगर अन्ना ने पहले ही राजनीतिक दल बनाने की घोषणा करके मेरे आकलन को गड़बड़ा दिया है। दल का क्या नाम होगा, किन-किन बड़े लोगों का समर्थन इसे हासिल होगा, इसका घोषणापत्र कैसा होगा- यह सब सामने आना अभी बाकी है।
फिर भी, मैं जो देख रहा हूँ, वह इस प्रकार है-
1. इस देश के आम मतदाताओं को पिछले 60-65 वर्षों से साजिशन अशिक्षित एवं गरीब बनाये रखा गया है और उन्हें भावनात्मक मुद्दों में बहकर मतदान करने तथा अपने मत को बेचने का बाकायदे प्रशिक्षण दिया गया है। इन्हें समझाने के लिए नये दल को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी।
2. मध्य वर्ग आम तौर पर अपना फायदा देखकर मतदान करता है। अगर घोषणापत्र में आपने इस वर्ग को ज्यादा नहीं लुभाया, तो यह आपको वोट नहीं भी दे सकता है।
3. अमीरों की बात ही जुदा है। वे मानते हैं कि वे हर किसी को खरीद सकते हैं, हर दल को भ्रष्ट बना सकते हैं!
कुल-मिलाकर, नये राजनीतिक दल की राह मुझे तो कठिन नजर आ रही है। हो सकता है कि चुनाव में सफल होने के लिए इसे भी किसी लहर का ही सहारा लेना पड़े!

उपसंहार

      2014 में चाहे जो भी हो, मगर मुझे लगता है कि 2017 तक इस देश की जनता की सारी उम्मीदें एक-एक कर टूट जायेंगी... न अन्ना हजारे और न स्वामी रामदेव देश के ‘तारणहार’ बन पायेंगे... न नरेन्द्र मोदी देश के ‘उद्धारकर्ता’ साबित होंगे... राहुल गाँधी को चाहनेवालों को तो मैंने खैर, पहले ही रीढ़विहीन, मस्तिष्कविहीन कह दिया है... क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप कभी ‘राष्ट्रीय’ एवं ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ सोच रख ही नहीं सकते... किसी नये युवा में इतना मसाला नजर नहीं आ रहा कि वर्तमान कठिन राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में वह देश के स्टेट्समैन की भूमिका निभा सके...

कुल-मिलाकर, यह एक राजनीतिक निर्वात्  की स्थिति होगी।
और हम जानते हैं कि निर्वात् के बाद आँधी आती है...
हमारे देश की राजनीति में भी तब आयेगी परिवर्तनों की आँधी... बनी-बनायी सारी मान्यतायें सर के बल खड़ी नजर आयेंगी... देश की (तथाकथित) आजादी के इतिहास के कई अध्याय फिर से लिखे जायेंगे... 1935 के अधिनियम पर आधारित वर्तमान शासन-प्रशासन के स्थान पर एक नयी व्यवस्था कायम होगी, जो जन-भावना के अनुरुप कार्य करेगी... भारत एक बार फिर से सारी दुनिया को राह दिखायेगा...