आम चुनाव’ 2014: विकल्प क्या है?
सच्चाईयाँ
2014 के आम-चुनाव के मद्दे-नजर विकल्पों की चर्चा करने
से पहले कुछ कड़वी सच्चाईयों को दुहरा लिया जाय-
1. देश की (बल्कि दुनिया की) परिस्थिति
बद-से-बदतर होती जा रही है- चाहे बात गरीबी की हो, अर्थव्यवस्था की हो, पर्यावरण
की हो, जनसंख्या की हो, या अन्धाधुन्ध विकास की;
2. देश को आमूल-चूल (Upside
down) परिवर्तनों की जरुरत है;
(जरुरत तो दुनिया को है, मगर शुरुआत भारत से होनी चाहिए। हालाँकि यह भी खबर है कि दक्षिण-अमेरीकी देश वेनेजुएला
में राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के नेतृत्व में “आदर्श” परिवर्तनों का
दौर शुरु हो चुका है। भारतीय मीडिया इसकी खबर नहीं देता, क्योंकि यह परिवर्तन
उदारीकरण तथा अमेरीकी-नीतियों के खिलाफ जा रहा है!)
3. मेरा मानना है कि जब तक एक “देशभक्त”, “ईमानदार” और “साहसी” नेता के
हाथों में देश की सत्ता नहीं आती, हम बड़े बदलावों की आशा नहीं रख सकते; (“नीचे से” आप छोटे-मोटे बदलाव ला सकते हैं देश में, पर
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े बदलाव लाने के लिए आपको सत्ता थामकर “ऊपर से” ही कोशिश करनी
होगी!)
4. यह सही है कि नगरों के आम नागरिक, कस्बों
के आम कस्बाई और गाँवों के आम ग्रामीण ईच्छा-अनिच्छा से “भ्रष्ट आचरण” में लिप्त हैं,
मगर देश का हर “आम आदमी” इस भ्रष्टाचार से त्रस्त है और इससे मुक्ति पाना चाहता है-
यह भी सही है!
विकल्प
आईये, अब उन विकल्पों की सूची बनायें, जो
चुनाव’2014 में हमारे सामने होंगे-
1. ज्यादातर देशवासी अन्ना हजारे और स्वामी
रामदेव को ‘तारणहार’ के रुप में देखते हैं;
2. देशवासियों का एक बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी
को देश के भावी नायक के रुप में देखता है;
3. कुछ रीढ़विहीन, मस्तिष्कविहीन अभागे
भारतीय ऐसे भी हैं, जो एक “युवराज” का “राज्याभिषेक” देखना चाहते हैं।
4. क्षेत्रीय, साम्यवादी तथा (‘तथाकथित’)
समाजवादी दलों का एक गठबन्धन, यानि “तीसरा मोर्चा” ऐन चुनाव से पहले उभर सकता है;
5. देशभक्त, ईमानदार एवं साहसी लोगों लेकर
एक नये राजनीतिक दल के गठन की योजना जमीनी रुप ले सकती है।
अगर 5वाँ विकल्प तैयार हो जाता है, तो ज्यादा
सम्भावना इस बात की है कि अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव इसी को अपना समर्थन दे
देंगे- और इस प्रकार, कुल विकल्प चार ही रहेंगे।
विवेचना
अब हम चारों-पाँचों विकल्पों की नीर-क्षीर
विवेचना करते हैं:
1.
अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव
अन्ना हजारे एवं स्वामी रामदेव पिछले साल से भ्रष्टाचार एवं
कालेधन के खिलाफ आन्दोलन चला रहे हैं। भ्रष्टाचार, महँगाई और गरीबी से त्रस्त जनता
उन्हें ‘तारणहार’ के रुप में देखती है। उनके आन्दोलन को लगभग सारा देश समर्थन देता
है- मैं भी समर्थन करता हूँ। मगर शुरु से ही मेरा मानना है कि हम आज के अपने
राजनेताओं को भ्रष्टाचार एवं कालेधन के खिलाफ कार्रवाई करने या चुनाव-प्रक्रिया
में सुधार लाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। वे बहुत घाघ होते हैं- उनपर
‘अनशन-सत्याग्रह’ का कोई असर नहीं पड़ने वाला। वे खुद ही भ्रष्ट आचरण में लिप्त हैं
तथा भ्रष्टों को प्रश्रय देते हैं; वे खुद ही काला धन पैदा एवं जमा कर रहे हैं तथा
ऐसे लोगों को बचाते हैं; और एक गन्दी चुनाव-व्यवस्था उनके लिए वरदान है। मेरी
अवधारणा है कि अगर आपको बदलाव लाना है, तो आपको “सत्ता की
बागडोर” थामनी ही होगी- ऐसा मैं शुरु से ही सोशल मीडिया पर लिखता आ
रहा था।
अभी-अभी अन्ना हजारे ने इस अवधारणा को
स्वीकार किया है। (हालाँकि स्वीकार करने के पीछे जो कारण है, वह गर्व करने योग्य
नहीं है। अरविन्द केजरीवाल तथा साथियों ने जोश में आकर “आमरण” अनशन का व्रत ले
लिया था, जबकि “शहीद” होने की हिम्मत उनके अन्दर नहीं थी। जब सरकार ने उनके साथ
बातचीत नहीं की, तो अनशन तोड़ने के लिए उन्हें एक सम्मानजनक बहाने की तलाश थी। अतः जल्दीबाजी में, बिना व्यापक विचार-मन्थन के, देश को “राजनीतिक विकल्प” देने की बात कही जा रही है। विचार-मन्थन अब शायद हो।) जो भी हो, मैं देखना चाहूँगा कि
स्वामी रामदेव इस अवधारणा से कब तक सहमत होते हैं।
वैसे, मुझे नहीं लगता कि अन्ना हजारे या
स्वामी रामदेव के पास देश के पुनर्निर्माण का कोई खाका, कोई रोडमैप, या कोई
ब्लूप्रिण्ट है; या उन्होंने मन की आँखों से देश की कोई छवि देख रखी है। जबकि मेरे
अनुसार, अगर आपके पास सुस्पष्ट “खाका” नहीं है देश के पुनर्निर्माण का, तो आपके द्वारा सफलतापूर्वक
चलाया गया बड़े-से-बड़ा आन्दोलन भी कोई बदलाव नहीं ला पायेगा! एक अच्छी फिल्म तभी बनती है, जब मेहनत करके उसकी “पटकथा” तैयार की गयी हो
(‘पटकथा’ में बारीक-से-बारीक बातों का भी जिक्र होता है) और निर्देशक के पास बनने
से पहले ही “मन की आँखों से” उस फिल्म को देख लेने की क्षमता हो! हाँ, अगले कुछ महीनों
में अगर खाका तैयार हो जाय और भावी भारत की तस्वीर खींच ली जाय, तो अलग बात है।
मगर यहाँ दो दुर्भाग्य भी हैं-
1. न तो अन्ना हजारे और न ही स्वामी रामदेव देश का “प्रधानमंत्री” बनना चाहेंगे;
और
2. अन्ना हजारे एवं स्वामी रामदेव एक “संयुक्त मोर्चा” बनायेंगे- इसकी
कोई झलक नहीं दीख रही (कोई अप्रत्याशित घटना घट जाय, तो अलग बात है)।
ऐसे में, “राजनीतिक विकल्प” देने की कोशिश विफल हो जाय; या सफल होने के बाद “जे.पी. आन्दोलन” एवं “जनता पार्टी राज” की पुनरावृत्ति
हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं।
2.
भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी
2014 में भाजपा को सत्ता सौंपने तथा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री
बनाने की इच्छा रखने वालों की संख्या भी काफी बड़ी है देश में। ऐसा हो भी सकता है।
मगर मैं यहाँ साफ-साफ घोषणा कर रहा हूँ कि सत्ता पाने के बाद भाजपा “दूसरी काँग्रेस” साबित होगी;
वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण को और भी आक्रामक तरीके से लागू करेगी, जिसके
फलस्वरुप बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तथा देशी उद्योगपति एवं पूँजीपति और भी अमीर होते
जायेंगे तथा गरीब और भी गरीब होते जायेंगे। जो कोई भी मुझसे सहमत नहीं हैं, वे
भाजपा मुख्यालय को पत्र लिखकर (या सूचना के अधिकार के तहत माँग करके) उनकी “आर्थिक नीतियों” की जानकारी ले
सकते हैं- वे खुलकर स्वीकार करेंगे कि “उदारीकरण के अगले चरणों” को वे जोर-शोर
से लागू करेंगे! जबकि सबको दीख रहा है कि पिछले बीस वर्षों में इस उदारीकरण ने
अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को और चौड़ा किया है तथा घपलों-घोटालों की बारम्बारता को
तेज किया है।
2014 में अगर भाजपा की (या भाजपा के नेतृत्व में) सरकार बनती
है, तो यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि संसद में भाजपा सत्ता पक्ष की ओर से खुदरा
बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजीनिवेश (एफ.डी.आई.) के समर्थन में प्रस्ताव ला रही
है और विपक्षी दल के रुप में काँग्रेस इसका विरोध कर रही है!
नरेन्द्र मोदी जी की नीतियाँ भाजपा से कोई अलग नहीं हो
सकतीं। वे भी “अमीरों को नाराज” करने का खतरा नहीं मोल लेंगे। (ध्यान रहे- देशभर के अमीर अगर
अभी से उनका गुणगान कर रहे हैं, तो इसके पीछे ‘कुछ’ तो है!) जबकि “अमीरों” की तरक्की
को कुछ समय के लिए रोककर गरीबों को कुछ आगे लाने की जरुरत है- इसे कुछ इस तरह से
समझा जाय कि अगर मैं अपने तीन बेटों के साथ सड़क पर चल रहा हूँ, और मेरा बड़ा बेटा
कुछ ज्यादा ही आगे-आगे चल रहा है, तो मैं उसे रुकने के लिए कहूँगा, मँझले बेटे को
धीमे चलने कहूँगा, ताकि मेरा छोटा बेटा, जो दुर्भाग्य से लकवाग्रस्त भी है, काफी
पीछे न छूट जाय!- यह भी
मेरी एक अवधारणा है!
हाँ, इतना है कि भाजपा, या नरेन्द्र मोदी जी कुछ भावनात्मक
किस्म के निर्णय लेकर अपने समर्थकों को “सुखानुभूति” की दशा में बनाये रखने में जरुर सफल होंगे।
3. काँग्रेस तथा राहुल गाँधी
कई बार देश की आम जनता ने “जागरुक मतदाता” की भूमिका
निभायी है, मगर ज्यादातर समय वह भावनात्मक लहरों पर सवार होकर ही मतदान करती है।
ऐसे में, ठीक चुनाव से पहले एस.आर.पी. (सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिकड़ी) अगर एक
लहर पैदा करने में सफल हो जाती है, तो अरबों-खरबों के घपलों-घोटालों के बावजूद
काँग्रेस इस देश में फिर जीत जायेगी और राहुल गाँधी (या प्रियंका बढेरा)
प्रधानमंत्री बन जायेंगे। बहुतों को यह असम्भव लग रहा होगा, पर ऐसा होने पर मुझे
कोई आश्चर्य नहीं होगा! यह विचित्र देश है।
अगर ऐसा होता है, तो भारत कुछ दशक और पीछे
चला जायेगा और तब इसके पुनर्निमाण या पुनरुत्थान के लिए और ज्यादा कोशिश करनी
पड़ेगी।
4.
“तीसरा मोर्चा”
फिलहाल “तीसरा मोर्चा” बनने के आसार
नहीं दीख रहे- सभी क्षत्रप अपने-अपने राज्य की राजनीति के कीच-स्नान में मस्त नजर
आ रहे हैं। फिर भी, चुनावी बुखार शुरु होते ही यह मोर्चा बन सकता है। मगर इसे
सत्ता हासिल नहीं हो सकती। हुई भी तो चार-छह महीनों में ही सर-फुटौव्वल शुरु हो
जायेगा, जिसकी परिणति काँग्रेस या भाजपा के “परोक्ष” सत्ता-अधिग्रहण
से होगी।
5.
नया राजनीतिक दल
मुझे लगा था- पहले एक नया राजनीतिक बनेगा और
तब उसे अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव का समर्थन मिलेगा। मगर अन्ना ने पहले ही
राजनीतिक दल बनाने की घोषणा करके मेरे आकलन को गड़बड़ा दिया है। दल का क्या नाम
होगा, किन-किन बड़े लोगों का समर्थन इसे हासिल होगा, इसका घोषणापत्र कैसा होगा- यह
सब सामने आना अभी बाकी है।
फिर भी, मैं जो देख रहा हूँ, वह इस प्रकार है-
1. इस देश के आम मतदाताओं को पिछले 60-65 वर्षों से साजिशन “अशिक्षित” एवं “गरीब” बनाये रखा गया
है और उन्हें “भावनात्मक” मुद्दों में बहकर मतदान करने तथा अपने मत को “बेचने” का बाकायदे
प्रशिक्षण दिया गया है। इन्हें समझाने के लिए नये दल को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी।
2. मध्य वर्ग आम तौर पर अपना “फायदा” देखकर मतदान
करता है। अगर घोषणापत्र में आपने इस वर्ग को ज्यादा नहीं लुभाया, तो यह आपको वोट
नहीं भी दे सकता है।
3. अमीरों की बात ही जुदा है। वे मानते हैं कि वे हर किसी
को खरीद सकते हैं, हर दल को भ्रष्ट बना सकते हैं!
कुल-मिलाकर, नये राजनीतिक दल की राह मुझे तो कठिन नजर आ रही
है। हो सकता है कि चुनाव में सफल होने के लिए इसे भी किसी “लहर” का ही सहारा
लेना पड़े!
उपसंहार
2014 में चाहे जो भी हो, मगर मुझे लगता है
कि 2017 तक इस देश की जनता की सारी उम्मीदें एक-एक कर टूट जायेंगी... न अन्ना
हजारे और न स्वामी रामदेव देश के ‘तारणहार’ बन पायेंगे... न नरेन्द्र मोदी देश के
‘उद्धारकर्ता’ साबित होंगे... राहुल गाँधी को चाहनेवालों को तो मैंने खैर, पहले ही
रीढ़विहीन, मस्तिष्कविहीन कह दिया है... क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप कभी ‘राष्ट्रीय’
एवं ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ सोच रख ही नहीं सकते... किसी नये “युवा” में इतना “मसाला” नजर नहीं आ रहा
कि वर्तमान कठिन राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में वह देश के “स्टेट्समैन” की भूमिका निभा
सके...
कुल-मिलाकर, यह एक “राजनीतिक निर्वात्” की स्थिति होगी।
और हम जानते हैं कि “निर्वात्” के बाद आँधी आती
है...
हमारे देश की राजनीति में भी तब आयेगी परिवर्तनों
की आँधी... बनी-बनायी सारी मान्यतायें सर के बल खड़ी नजर आयेंगी... देश की (तथाकथित)
आजादी के इतिहास के कई अध्याय फिर से लिखे जायेंगे... 1935 के अधिनियम पर आधारित वर्तमान शासन-प्रशासन के स्थान पर एक नयी
व्यवस्था कायम होगी, जो जन-भावना के अनुरुप कार्य करेगी... भारत एक बार फिर से
सारी दुनिया को राह दिखायेगा...