शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

176. 'कोलोजियम'


       ठीक-ठीक 'कोलोजियम' का अर्थ मैं नहीं जानता, मगर इतना समझता हूँ कि यह एक रहस्यमयी किस्म की संस्था है, जो गोपनीय तरीके से सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के लिए मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है
       मैं यह सुझाव पेश करता हूँ कि हमारे देश में चुनावों पर होने वाला अन्धाधुन्ध खर्च बन्द हो और उसके स्थान पर सारे राजनीतिक दल मिलकर एक रहस्यमयी 'कोलोजियम' की स्थापना कर लें। यह संस्था ही तय करे कि कौन कितने दिनों के लिए प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री/मंत्री वगैरह बनेगा।
विधायकों/सांसदों की जरुरत ही क्या रह गयी है, वे तो तो खरीदे-बेचे जाते हैं! (सुना है कि एक एम.एल.सी. का बाजार भाव अभी 40 करोड़ चल रहा है!)
       चुनावों की जरुरत तब होती है, जब अलग-अलग राजनीतिक दलों की "विचारधारायें" अलग-अलग हों। यहाँ तो क्या वामपन्थी, क्या दक्षिणपन्थी, क्या मध्यमार्गी, क्या समाजवादी, क्या राष्ट्रवादी, क्या हिन्दूवादी, क्या मुस्लिमवादी... सबकी विचारधारा एक समान हो गयी है- बाजारीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण, वगैरह-वगैरह। हर नेता इस देश को चीन, जापान, कोरिया, फ्रान्स, जर्मनी, स्वीजरलैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया बनाने पर तुला हुआ है। वह भी विदेशी, आवारा पूँजी तथा विदेशी तकनीक के बल पर। ऐसे में "कोउ  नृप भये, हमें का हानि?"
       है कोई माई का लाल राजनेता, जो सीना ठोंककर यह आह्वान कर सके कि हम विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या किसी अमीर राष्ट्र से ऋण नहीं लेंगे; हम विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानने से इन्कार करते हैं; हम अमेरिका या किसी भी अमीर राष्ट्र की चौखट पर नाक नहीं रगड़ेंगे; हम भारतीय प्रतिभा- जो कि दुनियाभर में फैली हुई है- के बल पर तथा भारतीय संसाधनों- जो प्रकृति ने दोनों हाथों से हमें दिया है- के बल पर इस देश को फिर से महान बनायेंगे, चाहे इसके लिए हममें से हरेक भारतीय को आधा पेट खाकर ही क्यों न सोना पड़े! कोई नहीं है न ऐसा...
       ...फिर, क्या फर्क पड़ता है कि एक वामपन्थी हमारा प्रधानमंत्री बने, या दक्षिणपन्थी, या मध्यमार्गी? बेकार ही चुनाव में इतना भारी-भरकम खर्च किया जाता है। इस पैसे का उपयोग बेचारे गरीब राजनेता अपना वेतन-भत्ता आदि बढ़ाने में कर सकते हैं!
       सोच कर देखियेगा।
       एक और बात है। हम भारतीय पब्लिक कभी बगावत तो कर नहीं सकते। इस औपनिवेशिक व्यवस्था के सलीब को हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोते रहेंगे- चाहे देश रसातल में चला जाय। उसी प्रकार, हमारी सेना भी कभी बगावत नहीं कर सकती। "पे कमीशन" के साथ उनके वेतन-भत्ते बढ़ ही रहे हैं, देश की क्या चिन्ता?

       ऐसे में, "कोलोजियम" व्यवस्था ही ठीक रहेगी।     

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