रविवार, 3 अगस्त 2014

179. हाइब्रिड बनाम जी.एम. फसलें


       मुझे लगा कि आनुवांशिक इंजीनियरिंग का अ भी बिना जाने, कृषि विज्ञान का क भी बिना जाने या खेतों में काम बिना किये भी- एक आम आदमी के लिहाज से- मैं इस विषय पर अपने विचार प्रकट कर सकता हूँ
       पहले एक पुरानी कहानी।
वर्षों पहले ब्रिटेन में हजारों गायों को मारना पड़ा था, क्योंकि उनके दिमाग में एक संक्रामक बीमारी ने जन्म ले लिया था। ये गायें दूध दुहने के लिए नहीं थीं, इनका इस्तेमाल गोमांस के लिए होता था। तब (हमारे यहाँ की) एक पत्रिका में लेख छपा था, जिसका शीर्षक कुछ यूँ था- क्यों पगलाई गायें? उसमें बताया गया था कि गायों के कत्लखाने में गोमांस के छोटे-छोटे टुकड़े बचते थे, उन्हें चारे में मिलाकर गायों को खिलाया जाने लगा। अब मांस तो सीधा प्रोटीन है। इससे गायें बहुत जल्दी मोटी-ताजी होने लगीं और इस व्यवसाय में लगे लोगों को काफी मुनाफा होने लगा। मगर बाद में ये गायें पागल होने लगीं। मनुष्यों तक यह बीमारी न फैले, इसलिए बड़ी संख्या में ऐसी गायों को मार डाला गया।
       इस घटना से साबित होता है कि प्रकृति के जो मूलभूत नियम होते हैं, उनमें हमें छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए। शुरु में फायदा हो सकता है, मगर अन्तिम रुप से हमें नुक्सान ही उठाना पड़ेगा। गाय को प्रकृति ने शाकाहारी बनाया है, तो उसे शाकाहारी ही रहने दिया जाय- उसे तुरन्त प्रोटीन देने के चक्कर में मांस न खिलाया जाय।
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       अब बात विषय की।
       हाइब्रिड फसलें: फसलों का हाइब्रिड यानि संकर होना उतना ही सहज और स्वाभाविक है, जितना कि मनुष्यों में विवाह की परम्परा का होना। स्त्री युवा होती है एक घर में, मगर उसका विवाह किया जाता है दूसरे घर के युवा के साथ। आम तौर पर यह दूसरा घर या दूसरा युवा "दूर का" होता है, न कि नजदीक का। उम्मीद की जाती है कि इससे अगली पीढ़ी बेहतर होगी और उसमें कुछ नये गुण आयेंगे। फसलों के साथ भी यही बात है। धान की एक नस्ल का दूसरे नस्ल से संयोग कराके एक तीसरे बेहतर नस्ल की उम्मीद की जाती है। धान के तो बीजड़ों को भी एक खेत से उखाड़ कर दूसरे खेत में रोपा जाता है।
जैसे स्त्री का विवाह पुरुष से ही होता है किसी और प्राणी से नहीं, वैसे संकर फसल बनाने के लिए गेहूँ का संयोग गेहूँ से, धान का संयोग धान से, आम का संयोग आम से ही कराया जाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और पुराने समय से चली आ रही है।
       जी.एम. फसलें: जी.एम. फसलें "अस्वाभाविक", "अप्राकृतिक" होती हैं। उदाहरण के लिए- एक विशेषज्ञ (टीवी पर) बता रहे थे कि गेहूँ के जीन में महिला का जीन मिलाकर गेहूँ की एक किस्म विकसित की गयी है, जिसके बारे में दावा किया जा रहा है कि यह "डायरिया-प्रतिरोधक" है! ...तो इसी प्रकार, अप्राकृतिक तरीके से जी.एम. फसलें तैयार की जाती हैं।  
       शुरु में इनसे मुनाफा कमाया भी जा सकता है, जैसा कि ब्रिटेन में गायों को मांसाहारी बनाकर मुनाफा कमाया गया; मगर बाद में इनके क्या दुष्परिणाम होंगे- इसका अनुमान हम अभी नहीं लगा सकते।
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       दूसरी बात।
इस दुनिया में जितनी आबादी है, उसकी जरुरत से ज्यादा अनाज पैदा होता है। वितरण में समानता न होने के दुनिया में भूखमरी तथा कुपोषण है। वितरण व्यवस्था ठीक करने की जरुरत है।
       जी.एम. फसलें तैयार कर कुछ कम्पनियाँ मोटा मुनाफा कमाना चाहती हैं, क्योंकि इनके बीज हम रख नहीं सकते- हम पर मुकदमा ठोंक दिया जायेगा और हो सकता है कि इनके बीज काम ही न आयें। हर बार उन्हीं से बीज खरीदना हमारी बाध्यता होगी।
       भारत चूँकि ऋण चक्र में फँसा हुआ देश है, इसलिए इसने विश्व व्यापार संगठन के समझौतों पर दस्तखत कर रखे हैं और थोड़ी-बहुत ना-नुकुर के बाद आज नहीं तो कल, इसे इस संगठन की हर एक शर्तों को मानना ही होगा!
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