क्रीमिया के मुद्दे पर भारत के आधिकारिक
रुख का पता अखबारों से नहीं चला, मगर फेसबुक के कुछ पोस्टों से पता चलता है कि
भारत ने अमेरिका तथा यूरोपीय देशों का साथ देने के बजाय रूस का साथ देने का फैसला
किया है। उम्मीद है, भारत अपने इस रूख पर कायम रहेगा- बेपेन्दी के
लोटे-जैसा व्यवहार नहीं करेगा कि अमेरिका ने इधर बाँहें मरोड़ी और उधर भारत ने पाला
बदल लिया!
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मैं जनमत संग्रह की
बात नहीं करता। सीधी-सी दो बातें हैं-
1. क्रीमिया कोई यूक्रेन का अभिन्न हिस्सा नहीं
है। 1954 में ख्रुश्चेव ने इसे तोहफे के रुप में यूक्रेन को दिया था। तब रूस और
यूक्रेन दोनों सोवियत संघ के अंग थे, इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ा था।
2. काला सागर में क्रीमिया की जो भौगोलिक
स्थिति है, उस लिहाज से इस पर रूस का प्रभावशाली नियंत्रण रहना ही चाहिए।
यह कुछ वैसा ही मामला है कि काश्मीर की विशिष्ट
भौगोलिक स्थिति के कारण इसपर भारत का प्रभावशाली नियंत्रण होना ही चाहिए।
अब कूटनीति का तकाजा तो यही है- भले हमारी महान
गाँधीनीति चाहे जो कहे।
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खबरों के अनुसार जापान ने न केवल अमेरिका-यूरोप
का साथ दिया है, बल्कि रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध भी लगा दिया है। हालाँकि यूरोपीय
देशों ने ऐसा कोई कठोर कदम अब तक नहीं उठाया है। जापान के इस निर्णय को जल्दीबाजी
कहा जाना चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात, उसे अमेरिकी प्रभाव से मुक्त होना चाहिए-
आखिर दूसरे विश्वयुद्ध को समाप्त हुए सत्तर साल बीत चुके हैं भाई!
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मैं तो एक "थ्योरी" पर ही पहुँच गया
हूँ- इस मुद्दे पर विचार करते हुए, जो निम्न प्रकार है:
"अगर भविष्य में (निकट या सुदूर) इस
दुनिया में कोई आदर्श विश्व-व्यवस्था कायम होनी है, तो वह भारतीय विचार (विचार, जो
हृदय से आता है), जापानी प्रतिभा (प्रतिभा, जो मस्तिष्क से आती है) और रूसी ताकत (ताकत,
जो भुजाओं एवं जंघाओं से आती है) के संयोजन से आयेगी। बेहतर है ये तीनों देश अपनी
विदेश नीति निर्धारण के वक्त इस बात को ध्यान में रखें!"
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