कल आलोक पुराणिक साहब ने एक (अखबारी) व्यंग्य रचना में क़तील
शफाई के इस शे'र का जिक्र किया है:
बड़ा मुंसिफ है अमरीका उसे अल्लाह खुश रखे ,
ब-जोमे-शेख वो सबको बराबर प्यार देता है।
किसी को हमला करने के लिए देता है मिसाइल
किसी को उससे बचने के लिए राडार देता है।
***
चाहे इस देश का एक-एक नागरिक अमेरिका को पलकों पर बिठा ले, मगर
मैं अपने विचार (जो मेरे दिमाग से कम और अन्तरात्मा से ज्यादा आते हैं) पर कायम
हूँ कि अमेरिका भारत का सगा कभी नहीं हो सकता!
सगा तो चीन भी नहीं हो सकता,
मगर वह अपनी भावनाओं का
कम-से-कम इजहार तो कर देता है। अमेरिका शातिर है, मक्कार
है. उसकी नीति है- अपनी हथियार लॉबी तथा एम.एन.सी. लॉबी को ज्यादा-से-ज्यादा फायदा
पहुँचाना। किसी देश की भलाई वह कभी नहीं चाहता।
खासकर, भारत के बारे में उसे पता है कि जिस दिन कोई
सच्चा देशभक्त, ईमानदार और साहसी आदमी यहाँ का नायक बना... उसी दिन से इसके
दिन फिरने शुरु हो जायेंगे और अमेरिका-चीन-यूरोप का पतन शुरु हो जायेगा। (यह गणना जरा विस्तृत
है, कभी कहीं और जिक्र होगा।)
शुरु में अमेरिका को 'थोड़ा-सा' सन्देह था कि कहीं ये ही वह नायक तो नहीं? इसलिए
उसने इनकी राह में रोड़े अटकाये... मगर जैसे ही उसे संकेत मिला कि इनका शासन वास्तव
में "यू.पी.ए.- 3" का ही शासन होगा- कहीं कोई क्रान्तिकारी बदलाव नहीं
होगा- उल्टे बाजारीकरण वगैरह को और भी आक्रामक तरीके से लागू किया जायेगा, अमेरिका
ने अपनी नीति बदल ली।
मैं अब भी अपने विचार पर कायम हूँ कि इस देश में अगर बदलाव
आयेगा, तो वह भारतीय संसाधनों,
भारतीय प्रतिभा तथा भारतीय
पूँजी के बल पर आयेगा। बस, जरुरत इस बात की है कि देश का नेतृत्व सही
हाथों में आ जाये।
रही बात दोस्ती करने की,
तो इसके लिए रूस, जापान, जर्मनी
तथा ब्राजील-जैसे देश मौजूद हैं दुनिया में।
***
किसी जमाने में कविता (जैसा ही कुछ) लिखा करता था- अब नहीं। पता नहीं, ये
पंक्तियाँ पिछले दो-तीन दिनों से मन में क्यों घुमड़ रही थीं! बचपन की कोई याद आ
गयी, या कुछ और हुआ-?
मदारी
जमूरे
तमाशबीन।
शब्दों की बाजीगरी
जमूरों की तुकबन्दी
तमाशबीनों की मंत्रमुग्धता।
रस्सी के साँप बनने की उम्मीद
तालियों पर तालियाँ
(इसी बीच) गण्डे-ताबीजों की बिक्री।
...
अब (ए) और क्या?
खेल खतम
पैसा हजम!
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