बुधवार, 31 दिसंबर 2014

189. नये साल की (अ)शुभकामना


       साथियों, जय हिन्द। जैसा कि मैंने तय किया है, 2014 के बाद देश-दुनिया-समाज के बारे में सोच-विचार करना नहीं है। करना भी है, तो उसे अभिव्यक्ति नहीं देनी है। यानि मेरे इस ब्लॉग "देश-दुनिया" में अब लिखना बन्द। निम्नलिखित (कविता जैसी) पंक्तियों को इस ब्लॉग का अन्तिम पोस्ट माना जा सकता है।
       हालाँकि अपने, अपनों तथा अपने आस-पास के बारे में कभी-कभार मैं लिखता रहूँगा- अपने दूसरे ब्लॉग "कभी-कभार" में। और हाँ, खुद को अनुवाद के काम में व्यस्त रखूँगा।
       इति, जय हिन्द।

भगवान करे
नया साल बहुत ही अशुभ
बहुत ही अमंगलमय साबित हो
इस देश के लिए

बैंक, रेलवे, पोस्ट ऑफिस से लेकर
सेना, पुलिस, न्यायपालिका तक का
निजीकरण हो जाय।
हरेक सरकारी विभाग
सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ
"मुनाफे" के लिए काम करे।

दुनिया के लिए यह देश
सिर्फ एक "बाजार" बनकर रह जाय
और भारत सरकार बन जाय-
गवर्नमेण्ट ऑव इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड!
जिसमें पूँजी लगी हो
अम्बानी-अडाणी से लेकर
पेप्सी और कोका कोला तक की।

देश की निन्यानबे प्रतिशत पूँजी एवं संसाधनों पर
कब्जा हो जाय एक प्रतिशत ताकतवर लोगों का
और दाने-दाने को मोहताज हो जायें आम लोग।

इससे भी ज्यादा भयानक हो
इसका अगला साल
और फिर उससे भी भयानक हो
उसका अगला साल।
ऐसे ही चलता ही रहे
तब तक...

...जब तक कि इस देश के लोग
इस देश के आम नागरिक
और बेशक, सेनाओं के आम सैनिक
शोषण-दोहन-उपभोग पर आधारित
सड़ी-गली बदबू मारती इस औपनिवेशिक व्यवस्था को
दफनाकर या जलाकर
इसके स्थान पर
सुभाष-भगत के पदचिह्नों पर चलकर
समता-पर्यावरणमित्रता-उपयोग पर आधारित
एक नयी व्यवस्था को अपनाने के लिए
राजी नहीं हो जाते


आमीन... एवमस्तु... 

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

188. रुपये के मूल्य के बहाने

1 सितम्बर'13 को मैंने एक आलेख लिखकर एक स्थानीय साप्ताहिक के पास भेजा था. शायद लेख छपा नहीं था। आज फेसबुक पर 'रुपये के अवमूल्यन' पर एक आलेख पढ़ने के बाद उसकी याद आयी। मेल बॉक्स (Sent Mail) से खोजकर उसे निकाला। उसे अब अपने इस ब्लॉग  में तो पोस्ट कर रहा हूँ:

रुपये के मूल्य के बहाने भारत की अर्थव्यवस्था पर कुछ विचार
 
1917 में 1 अमेरिकी डॉलर का मूल्य 7.5 पैसे (दुहरा दिया जाय- साढ़े सात पैसे!) हुआ करता था। अँग्रेजों ने जैसे-जैसे भारतीय उद्योगों को तहस-नहस करना तथा विश्व-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी को घटाना शुरु किया, वैसे-वैसे रुपये का मूल्य गिरने लगाय फिर भी, 1925 में 10 पैसे में 1 डॉलर खरीदा जा सकता था! अर्थात् अमेरिकियों को 1 भारतीय रुपया खरीदने के लिए अपने खजाने से 10 डॉलर खर्च करने पड़ते थे।
                अँग्रेजों की लूट जारी रही, उसी अनुपात में रुपये का अवमूल्यन भी होता रहा और 1947 में डॉलर और रुपया बराबर हो गये। यानि 1 डॉलर 1 रुपये में मिलने लगा।
                ***
                आजादी के बाद नेहरूजी को दो काम करने थे- 1. देश के लोगों से आह्वान कि हम चाहे आधा पेट भी खाकर रहेंगे, मगर उपलब्ध संसाधनों, प्रतिभा एवं श्रमशक्ति के बल पर ही फिर से भारत को महान बनायेंगे; 2. एक मजबूत ‘‘नींव’’ की तैयारी- यानि तकनीकी एवं सामान्य शिक्षा की व्यवस्था करना तथा खेती एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना। गाँधीजी यही चाहते भी थे।
मगर नेहरूजी बिना ‘‘नींव’’  बनाये सीधे ‘‘गुम्बद’’ के निर्माण में जुट गये। बड़े-बड़े बाँध, बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे। जब इनके लिए पैसों की जरुरत पड़ी, तो ‘‘कर्ज लेकर घी पीने’’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए 1952 में विश्व बैंक की शरण में चले गये। विश्व बैंक ने कहा- रुपये का अवमूल्यन करो, तब कर्ज मिलेगा! यह बैंक कोई ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ’’ का अंग थोड़े है- यह तो कुछ अमीर देशों की एक मुनाफाखोर संस्था है, जिसका छुपा उद्देश्य है- सैन्य शक्ति के स्थान पर ‘‘अर्थशक्ति’’ के बल पर साम्राज्य कायम करना!
तब से हम ‘‘ऋण-चक्र’’ में फँसते जा रहे हैं और रुपये का अवमूल्यन किये जा रहे हैं।
***
1991 के बाद ‘‘बाजारीकरण’’ की शुरुआत हुई, भ्रष्ट आचरण गर्व की बात हो गयी, प्राकृतिक संसाधनों की लूट वैधानिक हो गयी, स्विस बैंकों में काला धन जमा करना और फिर मॉरिशस के रास्ते उसी धन को भारत में लगाना ‘‘पूँजी निवेश’’ बन गया। ऐसे में रुपये के मूल्य को ज्यादा-से-ज्यादा गिराना सत्ताधारियों का स्वभाव बन गया।
मान लीजिये कि 1995 में किसी भ्रष्ट ने 1 करोड़ रुपये के कालेधन को डॉलर में बदला था, तो उसे 3 लाख, 12 हजार, 500 डॉलर मिले होंगे। इस धन को वह स्विस बैंक में जमा कर देता है। आज अगर वह इस धन को निकालकर मॉरिशस के रास्ते- जहाँ से धन आने पर सरकार यह नहीं पूछती है कि इस धन का स्रोत क्या है या इसका असली मालिक कौन है- भारत में लाना चाहे, तो उसे 2 करोड़, 03 लाख, 12 हजार, 500 रुपये मिलेंगे। ऐसे में, वह तो चाहेगा ही कि रुपये का मूल्य गिरकर प्रति डॉलर 100 रुपये पर पहुँच जाय! यही अगर उल्टा हो गया- 1 डॉलर 10 रुपये में मिलने लगा, तो उसे (1 करोड़ के कालेधन के बदले) मात्र 31 लाख, 25 हजार रुपये मिलेंगे। तो स्विस बैंकों में पैसा रखने वाले भला रुपये की मजबूती क्योंकर चाहने लगे? ...और वही तो आज देश चला रहे हैं- चाहे वे उद्योगपति हों, पूँजीपति हों, माफिया हों, बड़े-बड़े अफसर हों, या फिर राजनेता हों!
उन्हीं भ्रष्टों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकार के शीर्ष पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों की चौकड़ी ने ‘‘ज्यादा जोगी मठ उजाड़’’ कहावत को चरितार्थ करते हुए रुपये के मूल्य को रसातल तक पहुँचाने का मानो बीड़ा उठा लिया है- कम-से-कम समय के अन्दर इसे ज्यादा-से-ज्यादा नीचे गिराना है! क्या पता- कल को किसी चमत्कार के तहत ‘‘क्रान्तिकारी’’ किस्म की कोई सरकार बन गयी तो?
***
जबकि रुपये के मूल्य को ऊँचा उठाना असम्भव नहीं है। हाँ, तब है कि ‘‘क्रान्तिकारी’’ किस्म की कोई सरकार ही ऐसे फैसले ले सकती है। मसलन-
1. निर्यात को सरकारी प्रोत्साहन एवं संरक्षण न देकर तथा आर्थिक विशेषज्ञों से सलाह लेकर रुपये के मूल्यको 1980 या 1960 के स्तर पर (हो सका, तो 1940 के स्तर पर) पहुँचाने की कोशिश की जा सकती है।
2. रुपये का मूल्य बढ़ाने के लिए अगर ‘‘स्वर्ण भण्डार’’ में बढ़ोतरी की जरुरत पड़ती है, तो उसके लिए दो उपाय अपनाये जा सकते हैं-
क) देश भर में विशेष अभियान चलाकर लॉकरों तथा घरों से कालेधन के रुप में जमा सोने को जब्त कर उसे सरकारी स्वर्णभण्डार तक पहुँचाया जा सकता है (‘‘लॉकर’’ की व्यवस्था या इनकी ‘‘गोपनीयता’’ समाप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है);
ख) समृद्ध मन्दिरों एवं ट्रस्टों से अनुरोध किया जा सकता है कि वे अपने स्वर्णभण्डार का 33 प्रतिशत अंश देश के नाम कर दें (इस अंश को स्थानान्तरित नहीं किया जाय, बल्कि मन्दिर/ट्रस्ट के ही भण्डार में अलग कक्ष या ट्रंक में रखवा दिया जाय)।
इनके अलावे, भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस तरह के बदलाव की जरुरत है, उसका भी जिक्र कर ही दिया जाय, क्योंकि ‘‘रुपये का मूल्य’’ तो एक छोटा-सा हिस्सा है समूची अर्थव्यवस्था काः
3. विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन को सं.रा.संघ के अधीन लाने और इनकी नीतियों को गरीब एवं विकासशील देशों के अनुकूल बनाने की माँग की जाय, अन्यथा भारत इनके दिशा-निर्देशों को मानने से इन्कार कर दे।
4. इन संस्थाओं से लिये गये ऋण को चुकाने से भारत मना कर दे- 200 वर्षों तक यूरोपीय देशों ने- खासकर, ब्रिटेन ने- इस देश का शोषण किया है, उसका ‘‘मुआवजा’’ कौन देगा? या फिर, उन्हीं यूरोपीय देशों के लुटेरे बैंकों में जमा भारतीयों के कालेधन को जब्त कर उसी से इन कर्जों को चुकाया जाय। (यह एक आसान काम है- वैसे भी, अपने डूबते कर्ज को वापस लेने के लिए अमीर देश खुद ही उन बैंकों की नकेल कसेंगे।)
5. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को 1:1 की स्थिति पर लाया जाय- खासकर, अमीर देशों के मामले में- अगर आप हमसे 1 रुपये का सामान खरीदेंगे, तो हम भी आप से 1 ही रुपये का सामान खरीदेंगे। इससे भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। उल्टे ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ कहावत के तहत भारत में भी ‘‘हाइ-टेक’’ वस्तुओं का निर्माण शुरु हो जायेगा!
6. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में ‘‘स्वतंत्र’’ रुप से व्यवसाय न करने दिया जाय। उनसे कहा जाय कि अगर उन्हें भारत में व्यापार करना है, तो किसी भारतीय कम्पनी में 33 प्रतिशत निवेश करो और मुनाफे का 33 प्रतिशत ही भारत से बाहर ले जाओ- अन्यथा भारत अपने संकल्प को उनसे दुहरा दे- ‘‘चाहे हमें आधा पेट खाकर ही क्यों न रहना पड़े, हम देश के अन्दर ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों, प्रतिभा तथा मानव शक्ति के बल पर देश को फिर से महान बना सकते हैं!’’
अन्त में- ध्यान रहे, तकनीकी रुप से भारत भले एक ‘‘देश’’ है, मगर वास्तव में यह एक ‘‘महादेश’’ है- कोई यह न कहे कि इन नीतियों को अपनाने से भारत दुनिया से अलग-थलग पड़ जायेगा... भारत अपने-आप में एक ‘‘दुनिया’’ है... 
***

(यूँ तो बातें और भी हैं, मगर फिलहाल इतना काफी है।)

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

187. 786 का रहस्य (?)


       भूमिका
कल 16 दिसम्बर को पाकिस्तान के पेशावर शहर में आर्मी स्कूल में घुसकर आतंकवादियों ने सौ से ज्यादा बच्चों को मार डाला। उसी की प्रतिक्रिया स्वरुप यह आलेख मैं लिख रहा हूँ, वर्ना जिन विषयों का धर्म से, खासकर- इस्लाम से कोई सम्बन्ध हो, उनपर लिखने से मैं बचता ही हूँ।
स्पष्ट कर दूँ कि हमेशा की तरह मेरा यह आलेख भी मेरी "अन्तरात्मा की आवाज" पर आधारित है, न कि किसी अध्ययन, शोध या आँकड़ों पर।  
मेरे बहुत-से मित्र मुसलमान हैं, बहुतों के साथ अपनापन है, उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी इसपर मैं नहीं जानता, मगर इतना है कि कहीं से कोई आपत्ति आने पर इस आलेख को मैं ब्लॉग से हटा लूँगा।
शिया समुदाय
सबसे पहले मैं शिया समुदाय के मुसलमानों को आतंकवाद, दहशतगर्दी से अलग करना चाहूँगा। मुझे विश्वास है कि 1. शिया आतंकवादी नहीं होते; 2. वे दुनिया के किसी भी हिस्से के बासिन्दे हों, हिन्दुस्तान के प्रति मुहब्बत और इज्जत का भाव रखते हैं। मैं ऐसा क्यों मानता हूँ, मैं नहीं जानता- मैंने कहा न, कि मैं अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर यह लिख रहा हूँ।
तब है कि कुछ सबूत मिल जाते हैं। जैसे, शिया मस्जिद पर हमले, शिया बहुल इलाके में विस्फोट, बस से उतारकर शियाओं की हत्या की खबरें तो दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आती है, मगर इसकी उल्टी खबर कभी नहीं आती। यानि, अगर शिया हथियार उठाते भी हैं, तो "आत्मरक्षा" के लिए, न कि "आक्रमण" के लिए- ऐसा मेरा मानना है।
दूसरी बात, दुनिया में मुस्लिम देश तो बहुत सारे हैं, मगर एक ईरान ही है, जो "हर हाल में" भारत के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है। अमेरिकी दवाब में भारत भले ईरान के खिलाफ हो गया हो, मगर ईरान कभी भारत की शिकायत नहीं करता। पिछले दिनों ISIS के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की जो सभा हुई, वह भी ईरान में ही आयोजित हुई। कहने की जरुरत नहीं कि ईरान एक शिया-बहुल देश है।
"सॉफ्ट-कॉर्नर"
रह गये सुन्नी मुसलमान। माना जा सकता है कि इनमें से 10 प्रतिशत के हाथों में हथियार है, यानि 10 प्रतिशत आतंकवादी होंगे। 20 प्रतिशत ऐसे होंगे, जो बिना हथियार हाथ में लिये इनका साथ देते होंगे, यानि 20 प्रतिशत कट्टरपंथी होंगे। अब बच गये 70 प्रतिशत। इनमें से 50 प्रतिशत ऐसे होंगे, जो आतंकवादियों / कट्टरपंथियों के प्रति "सॉफ्ट कॉर्नर" रखते होंगे। भले मुँह से वे स्वीकार न करें, मगर आधुनिक तरीके से जाँच होने पर पता चलेगा कि अपने "अवचेतन" मन या मस्तिष्क में ये ऐसा सॉफ्ट कॉर्नर रखते हैं। यही सबसे बड़ा खतरा है- इस्लाम पर, जो आगे चलकर इस धर्म के अस्तित्व को ही खतरे में डाल देगा!
अब जो 20 पतिशत बच गये, उन्हें सच्चा मुसलमान कहा जा सकता है, ईमानदार, खुदा से डरने वाले, सही को सही, गलत को गलत कहने वाले, अपने मुल्क, अपने वतन से मुहब्बत करने वाले, अपने वतन की तहजीब, संस्कृति, कल्चर पर गर्व करने वाले और किसी भी धर्म को बराबर सम्मान देने वाले। ये 20 प्रतिशत वे हैं, जो तथाकथित "मुस्लिम ब्रदरहुड" की अवधारणा को दरकिनार करते हुए "वतनपरस्ती" को अपने मजहब से ऊँचा स्थान देते हैं!
अन्तिम परिणति
किसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए बेशक, हर रास्ते को आजमाया जा सकता है, मगर फिर भी, कुछ रास्ते हैं, जिनपर कभी नहीं चलना चाहिए। वे रास्ते क्या हैं, इन्हें उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। पंजाब में अकाली दल के प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए इन्दिरा जी ने भिण्डरावाले से हाथ मिलाया था; अपने सलाहकारों की बातों में आकर राजीव जी ने प्रभाकरण से हाथ मिलाया था; और अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ ओसामा बिन लादेन से हाथ मिलाया था। प्रारम्भिक सफलताओं के बाद "अन्तिम परिणति" क्या हुई- यह हम सब जानते हैं।
पाकिस्तानी सेना तालिबानियों को पालती-पोसती है, संसाधन, प्रशिक्षण, सुरक्षा देती है। दशकों तक भारत को त्रस्त करने में वह सफल रही, मगर "अन्तिम परिणति" का छोटा-सा नमूना कल पेशावर में दिख गया।
अब जो मुसलमान अपने चेतन/अवचेतन मन/मस्तिष्क में आतंकवादियों/कट्टरपंथियों के प्रति "सॉफ्ट कॉर्नर" रखते हैं, वे भी चाहें, तो "अन्तिम परिणति" का अनुमान लगा सकते हैं...
शक्तिशाली देश
       दुनिया के जो तीन शक्तिशाली देश हैं- अमेरिका, रूस और चीन- ये "डबल गेम" खेलते हैं। एक तरफ आतंकवादियों को हथियार, विस्फोटक, गोला-बारूद बेचते हैं, तो दूसरी तरफ आतंकवाद से लड़ते भी हैं। दोनों ही कामों में "मुनाफा" है- हथियारों की बिक्री बढ़ती है, विकास दर ऊँचा उठता है, वगैरह-वगैरह। इनके भी कुछ नागरिक यदा-कदा आतंकवाद की भेंट चढ़ जाते हैं, मगर उस "मुनाफे" की "लालच" के सामने यह कहीं नहीं ठहरता। या फिर, वे हथियार बाजार से बाहर नहीं होना चाहते। या फिर, वे अपनी हथियार लॉबियों के सामने घुटने टेक देते हैं।
जो भी हो, मगर इस "डबल गेम" की जो "अन्तिम परिणति" होगी, वह भी बड़ी भयानक होगी। मैं देख रहा हूँ कि आतंकवादियों के हाथों बड़े (परमाण्विक या रासायनिक) हथियार लग गये हैं और इनका इस्तेमाल वे इन तीन देशों पर ही कर रहे हैं!
786
यह इस्लाम का पवित्र नम्बर है- बिस्मिल्लाह। ज्यादा मैं नहीं जानता, मगर इतना है कि मैं उन नोटों को सहेजकर रखता हूँ, जिनके नम्बर 786 से समाप्त होते हैं। ऐसे नोटों को मैं नेक या शुभ काम में, या फिर आकस्मिक परिस्थितियों में ही खर्च करता हूँ, अन्यथा नहीं।
मेरे एक दोस्त ने इस नम्बर के सम्बन्ध में विचित्र बात मुझे बतायी थी। मैंने पूछा था, कहाँ से मिली यह जानकारी, तो उसका कहना था कि एक मुसलमान शिक्षक ने ही यह जानकारी दी है। इस विचित्र गणना के अनुसार 786 का जो 7 है, वह सातवीं सदी का द्योतक है; 7 में अगला अंक 8 जोड़ने पर 15 बनता है, जो 15वीं सदी का द्योतक है; और फिर 15 में अन्तिम संख्या 6 जोड़ने पर 21 बनता है, जो 21वीं सदी का द्योतक है। 7वीं सदी इस्लाम के जन्म की सदी हुई, 15वीं सदी उसके उत्थान के चरम की थी और 21वीं सदी उसके पतन की सदी होगी!
इस गणना को तुक्का कहकर उड़ाया जा सकता है, मगर मुझे ऐसा लगता है कि अगर दुनिया के मुसलमान अपने शरीर के एक सड़े हुए अंग को काटकर अलग करने के लिए राजी न हुए, उस सड़ चुके अंग के प्रति अपनी मोह-माया, "सॉफ्ट कॉर्नर" का त्याग न कर सके, तो वाकई हो सकता है कि अगली सदी आते-आते (अभी 86 साल बचे हुए हैं...) इस धरती के एक प्रमुख धर्म के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगे, क्योंकि उस सड़े हुए अंग का जो जहर है, वह धीरे-ध्रीरे सारे शरीर में फैल रहा है...

***** 

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

186. अमेरिका


कल आलोक पुराणिक साहब ने एक (अखबारी) व्यंग्य रचना में क़तील शफाई के इस शे'र का जिक्र किया है:

बड़ा मुंसिफ है अमरीका उसे अल्लाह खुश रखे ,
ब-जोमे-शेख वो सबको बराबर प्यार देता है
किसी को हमला करने के लिए देता है मिसाइल
किसी को उससे बचने के लिए राडार देता है
***
चाहे इस देश का एक-एक नागरिक अमेरिका को पलकों पर बिठा ले, मगर मैं अपने विचार (जो मेरे दिमाग से कम और अन्तरात्मा से ज्यादा आते हैं) पर कायम हूँ कि अमेरिका भारत का सगा कभी नहीं हो सकता!
सगा तो चीन भी नहीं हो सकता, मगर वह अपनी भावनाओं का कम-से-कम इजहार तो कर देता है अमेरिका शातिर है, मक्कार है. उसकी नीति है- अपनी हथियार लॉबी तथा एम.एन.सी. लॉबी को ज्यादा-से-ज्यादा फायदा पहुँचाना किसी देश की भलाई वह कभी नहीं चाहता
खासकर, भारत के बारे में उसे पता है कि जिस दिन कोई सच्चा देशभक्त, ईमानदार और साहसी आदमी यहाँ का नायक बना... उसी दिन से इसके दिन फिरने शुरु हो जायेंगे और अमेरिका-चीन-यूरोप का पतन शुरु हो जायेगा (यह गणना जरा विस्तृत है, कभी कहीं और जिक्र होगा)
शुरु में अमेरिका को 'थोड़ा-सा' सन्देह था कि कहीं ये ही वह नायक तो नहीं? इसलिए उसने इनकी राह में रोड़े अटकाये... मगर जैसे ही उसे संकेत मिला कि इनका शासन वास्तव में "यू.पी.ए.- 3" का ही शासन होगा- कहीं कोई क्रान्तिकारी बदलाव नहीं होगा- उल्टे बाजारीकरण वगैरह को और भी आक्रामक तरीके से लागू किया जायेगा, अमेरिका ने अपनी नीति बदल ली
मैं अब भी अपने विचार पर कायम हूँ कि इस देश में अगर बदलाव आयेगा, तो वह भारतीय संसाधनों, भारतीय प्रतिभा तथा भारतीय पूँजी के बल पर आयेगा बस, जरुरत इस बात की है कि देश का नेतृत्व सही हाथों में आ जाये
रही बात दोस्ती करने की, तो इसके लिए रूस, जापान, जर्मनी तथा ब्राजील-जैसे देश मौजूद हैं दुनिया में
***
किसी जमाने में कविता (जैसा ही कुछ) लिखा करता था- अब नहीं पता नहीं, ये पंक्तियाँ पिछले दो-तीन दिनों से मन में क्यों घुमड़ रही थीं! बचपन की कोई याद आ गयी, या कुछ और हुआ-?
मदारी
जमूरे
तमाशबीन

शब्दों की बाजीगरी
जमूरों की तुकबन्दी
तमाशबीनों की मंत्रमुग्धता

रस्सी के साँप बनने की उम्मीद
तालियों पर तालियाँ
(इसी बीच) गण्डे-ताबीजों की बिक्री
...
अब (ए) और क्या?
खेल खतम

पैसा हजम!

रविवार, 14 सितंबर 2014

185. तारा बनाम रकीबुल तथा व्यवस्था


       कुछ समय पहले कहीं ऐसा ही कुछ पढ़ा था कि "व्यक्ति विशेष" पर प्रतिक्रिया देना छोटी बात है; "घटना विशेष" पर प्रतिक्रिया देना मध्यम दर्जे की बात है, तथा "विचार विशेष" प्रतिक्रिया देना ऊँचे दर्जे की बात है
       जब इसे नहीं पढ़ा था, तब भी मैं व्यक्ति विशेष से जुड़ी बातों पर कुछ लिखने से बचता था; घटना विशेष पर कभी-कभार प्रतिक्रिया देता था, मगर उसी के बहाने एक विचार प्रस्तुत करने की कोशिश करता था और सिर्फ विचार विशेष पर लिखना मैं पसन्द करता था।
       खैर, तारा शाहदेव बनाम रंजीत उर्फ रकीबुल प्रकरण पर मुझे सिर्फ इतना कहना है कि यह हमारी आज की व्यवस्था का एक आदर्श उदाहरण है। कमोबेश सारे देश में ऐसी ही सड़ी-गली व्यवस्था कायम है, जिसमें रंजीत उर्फ रकीबुल जैसे माफिया के हमाम में सत्ताधारी तथा पुलिस-प्रशासन-न्यायपालिका के उच्चाधिकारी नंगे होकर नाचते हैं!
       दुःख तो यह देखकर होता है कि फिर भी हमारे देश का जागरुक वर्ग इस महान व्यवस्था पर कुर्बान हुए जा रहा है... किसी को इसकी सड़ान्ध नहीं आती!
       मुझे डर है कि इस मामले में कहीं ऐसा न हो जाये कि रंजीत उर्फ रकीबुल या तो बाइज्जत बरी हो जाये या मामूली सजा काटकर वापस आ जाये और दूसरी तरफ तारा शाहदेव को किसी झूठे मुकदमें में फँसाकर उसका जीना मुहाल कर दिया जाय...  

184. कोली बनाम पंढेर तथा सीबीआई


       हो सकता है, निठारी काण्ड में नौकर कोली ही दोषी हो और मालिक पंढेर निर्दोष। मगर मेरी अन्तरात्मा कहती है कि असली शिकारी मालिक पंढेर है और नौकर कोली बचे-खुचे शिकार पर गुजारा करने वाला प्राणी है!
       जैसे कि इस देश में जजों तथा सीबीआई अफसरों को छोड़कर बाकी हर कोई जानता है कि आरुषी की हत्या किसने और क्यों की, वैसे ही यहाँ भी न्यायपालिका तथा सीबीआई मिलकर मुख्य अभियुक्त को बचा रहे हैं- ऐसा मेरा सन्देह है। मेरा सन्देह तभी मिटेगा, जब नौकर कोली को एक प्रेस-कॉन्फ्रेन्स में खुलकर बोलने का मौका दिया जाय और वहाँ वह मालिक पंढेर को निर्दोष बताये!
       गौहाटी उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अगर सीबीआई को अवैध ठहराया था, तो उन्होंने ऐसे ही यह फैसला नहीं दिया होगा। जरुर इस संस्था का जन्म किसी गलत नक्षत्र में हुआ है।
       मुझे हमेशा यही लगता है कि यह जाँच एजेन्सी मुख्य अभियुक्त को बचाना चाहती है, छोटे दोषी को फँसाती है, मामले को इतना उलझाती है कि बाद में इसका सिरा ही न मिले, मामले को तब तक लम्बा खींचती है जब तक कि लोग उसे भूलने न लगे। मुझे याद नहीं आ रहा है कि किसी बड़े मामले में इसने कभी मास्टरमाइण्ड या किंगपिन को सलाखों के पीछे तक पहुँचाया हो! शायद कुछ अपवाद भी हों, जैसे कि चारा घोटाला। मगर यह मामला भी शायद अभी खत्म नहीं है।

       वैसे दोष सिर्फ सीबीआई का नहीं है। इस सड़ी व्यवस्था में बने रहने के लिए और चारा ही क्या है? 

183. हथियार लॉबी


       फण्डा साफ है- पहले सउदी अरेबिया को हथियार बेचो; सउदी अरेबिया उन हथियारों के बड़े हिस्से को इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों को बेचेगा; ये आतंकवादी इन हथियारों से कोहराम मचायेंगे; और जब पानी नाक तक पहुँचता हुआ मालूम पड़ेगा, तब हम हथियार लेकर मैदाने-जंग में कूद पड़ेंगे- इन्सानीयत को बचाने के नाम पर! हथियारों की बिक्री से कमाई हुई अलग और इन्सानीयत के रक्षक की पहचान मिली अलग!
       यह खेल कोई पहला नहीं है। ओसामा बिन लादेन और उसके लोगों को फ्रीडम फाइटर बताते हुए पहले उसे बड़े पैमाने पर हथियार तथा पैसे दिये गये थे; बाद में (जब बेरोजगारी के दौर में जब वह भस्मासुर बन गया) उसे मारने के लिए फिर बड़े पैमाने पर पैसे तथा हथियार खर्च किये गये।
       अमेरिका सोचता था कि वह तो समुद्रों से घिरा देश है- उसे भला आतंकवाद से क्या खतरा? इसलिए यह खेल वह लम्बे समय से खेल रहा था। जब बिन लादेन ने उसकी खड़ी नाक पर डंक मारी, तब जाकर उसे पता चला कि आतंकवाद क्या होता है!
       जैसे जापान को परमाणु बम की विभीषिका क्या होती है, यह पता है और वह परमाणु बम नहीं बनाता है। वैसे ही अमेरिका को भी WTC हमले के बाद आतंकवादियों को पोसने का काम नहीं करना चाहिए था। मगर अमेरिका एक बेशर्म राष्ट्र है- पैसे और ताकत का भुक्खड़! वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर इतने भीषण आतंकवादी हमले के बावजूद (इसके मास्टरमाइण्ड को मारने के कुछ समय बाद ही) वह फिर वही खेल खेलने लगा।
       कभी हमने सोचा कि आतंकवादियों के पास जो हथियार, गोला-बारूद, विस्फोटक होते हैं, वे कहाँ से आते हैं? क्या उनकी अपनी फैक्ट्रियाँ होती हैं? जी नहीं, उन्हें हथियार बेचते हैं अमेरिका, रूस, चीन-जैसे देश! हालाँकि आतंकवाद के हल्के-फुल्के दो-चार दंश इन्हें भी झेलने पड़ते हैं, मगर हथियार सेक्टर से मुनाफा इतना है कि इन दंशों को झेला जा सकता है। आखिर मरती तो आम जनता ही है! कौन-सा राजनेता मर रहा है!  
       कुल मिलाकर, इन तथाकथित सभ्य एवं विकसित देशों की हथियार लॉबी बहुत ही ताकतवर होती है, कोई भी सरकार उनके खिलाफ नहीं जा सकती; और हथियारों, गोला-बारूद तथा विस्फोटकों का मार्केट बनाये रखने के ये देश ही पहले आतंकवादियों को जन्म देते हैं, पालते-पोसते हैं, उन्हें रक्तपिपासु बनाते हैं और फिर अन्त में मैदान में उतरकर उनमें से कुछ को मारते भी हैं।

       अब सोचते रहिये कि असली आतंकवादी कौन है...