भूमिका
कल
16 दिसम्बर को पाकिस्तान के पेशावर शहर में आर्मी स्कूल में घुसकर आतंकवादियों ने
सौ से ज्यादा बच्चों को मार डाला।
उसी की प्रतिक्रिया स्वरुप यह आलेख मैं लिख रहा हूँ, वर्ना जिन विषयों का धर्म से,
खासकर- इस्लाम से कोई सम्बन्ध हो, उनपर लिखने से मैं बचता ही हूँ।
स्पष्ट कर दूँ कि हमेशा की तरह मेरा यह आलेख भी मेरी "अन्तरात्मा
की आवाज" पर आधारित है, न कि किसी अध्ययन, शोध या आँकड़ों पर।
मेरे बहुत-से मित्र मुसलमान हैं, बहुतों के साथ अपनापन है,
उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी इसपर मैं नहीं जानता, मगर इतना है कि कहीं से कोई
आपत्ति आने पर इस आलेख को मैं ब्लॉग से हटा लूँगा।
शिया समुदाय
सबसे पहले मैं शिया समुदाय के मुसलमानों को आतंकवाद,
दहशतगर्दी से अलग करना चाहूँगा। मुझे विश्वास है कि 1. शिया आतंकवादी नहीं होते;
2. वे दुनिया के किसी भी हिस्से के बासिन्दे हों, हिन्दुस्तान के प्रति मुहब्बत और
इज्जत का भाव रखते हैं। मैं ऐसा क्यों मानता हूँ, मैं नहीं जानता- मैंने कहा न, कि
मैं अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर यह लिख रहा हूँ।
तब है कि कुछ सबूत मिल जाते हैं। जैसे, शिया मस्जिद पर
हमले, शिया बहुल इलाके में विस्फोट, बस से उतारकर शियाओं की हत्या की खबरें तो
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आती है, मगर इसकी उल्टी खबर कभी नहीं आती। यानि, अगर
शिया हथियार उठाते भी हैं, तो "आत्मरक्षा" के लिए, न कि
"आक्रमण" के लिए- ऐसा मेरा मानना है।
दूसरी बात, दुनिया में मुस्लिम देश तो बहुत सारे हैं, मगर
एक ईरान ही है, जो "हर हाल में" भारत के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखना
चाहता है। अमेरिकी दवाब में भारत भले ईरान के खिलाफ हो गया हो, मगर ईरान कभी भारत
की शिकायत नहीं करता। पिछले दिनों ISIS
के खिलाफ मुस्लिम विद्वानों की जो सभा हुई, वह भी ईरान में ही आयोजित हुई। कहने की जरुरत नहीं कि ईरान एक शिया-बहुल देश है।
"सॉफ्ट-कॉर्नर"
रह गये सुन्नी मुसलमान। माना जा सकता है कि इनमें से 10
प्रतिशत के हाथों में हथियार है, यानि 10 प्रतिशत आतंकवादी होंगे। 20 प्रतिशत ऐसे
होंगे, जो बिना हथियार हाथ में लिये इनका साथ देते होंगे, यानि 20 प्रतिशत
कट्टरपंथी होंगे। अब बच गये 70 प्रतिशत। इनमें से 50 प्रतिशत ऐसे होंगे, जो
आतंकवादियों / कट्टरपंथियों के प्रति "सॉफ्ट कॉर्नर" रखते होंगे। भले
मुँह से वे स्वीकार न करें, मगर आधुनिक तरीके से जाँच होने पर पता चलेगा कि अपने
"अवचेतन" मन या मस्तिष्क में ये ऐसा सॉफ्ट कॉर्नर रखते हैं। यही सबसे
बड़ा खतरा है- इस्लाम पर, जो आगे चलकर इस धर्म के अस्तित्व को ही खतरे में डाल
देगा!
अब जो 20 पतिशत बच गये, उन्हें सच्चा मुसलमान कहा जा सकता
है, ईमानदार, खुदा से डरने वाले, सही को सही, गलत को गलत कहने वाले, अपने मुल्क,
अपने वतन से मुहब्बत करने वाले, अपने वतन की तहजीब, संस्कृति, कल्चर पर गर्व करने
वाले और किसी भी धर्म को बराबर सम्मान देने वाले। ये 20 प्रतिशत वे हैं, जो
तथाकथित "मुस्लिम ब्रदरहुड" की अवधारणा को दरकिनार करते हुए "वतनपरस्ती" को
अपने मजहब से ऊँचा स्थान देते हैं!
अन्तिम परिणति
किसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए बेशक, हर रास्ते को
आजमाया जा सकता है, मगर फिर भी, कुछ रास्ते हैं, जिनपर कभी नहीं चलना चाहिए। वे
रास्ते क्या हैं, इन्हें उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। पंजाब में अकाली दल के
प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए इन्दिरा जी ने भिण्डरावाले से हाथ मिलाया था; अपने
सलाहकारों की बातों में आकर राजीव जी ने प्रभाकरण से हाथ मिलाया था; और अमेरिका ने
अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ ओसामा बिन लादेन से हाथ मिलाया था। प्रारम्भिक
सफलताओं के बाद "अन्तिम परिणति" क्या हुई- यह हम सब जानते हैं।
पाकिस्तानी सेना तालिबानियों को पालती-पोसती है, संसाधन, प्रशिक्षण,
सुरक्षा देती है। दशकों तक भारत को त्रस्त करने में वह सफल रही, मगर "अन्तिम
परिणति" का छोटा-सा नमूना कल पेशावर में दिख गया।
अब जो मुसलमान अपने चेतन/अवचेतन मन/मस्तिष्क में आतंकवादियों/कट्टरपंथियों
के प्रति "सॉफ्ट कॉर्नर" रखते हैं, वे भी चाहें, तो "अन्तिम
परिणति" का अनुमान लगा सकते हैं...
शक्तिशाली देश
दुनिया के जो
तीन शक्तिशाली देश हैं- अमेरिका, रूस और चीन- ये "डबल गेम" खेलते हैं।
एक तरफ आतंकवादियों को हथियार, विस्फोटक, गोला-बारूद बेचते हैं, तो दूसरी तरफ आतंकवाद
से लड़ते भी हैं। दोनों ही कामों में "मुनाफा" है- हथियारों की बिक्री
बढ़ती है, विकास दर ऊँचा उठता है, वगैरह-वगैरह। इनके भी कुछ नागरिक यदा-कदा आतंकवाद
की भेंट चढ़ जाते हैं, मगर उस "मुनाफे" की "लालच" के सामने यह
कहीं नहीं ठहरता। या फिर, वे हथियार बाजार से बाहर नहीं होना चाहते। या फिर, वे
अपनी हथियार लॉबियों के सामने घुटने टेक देते हैं।
जो भी हो, मगर इस "डबल गेम" की जो "अन्तिम
परिणति" होगी, वह भी बड़ी भयानक होगी। मैं देख रहा हूँ कि आतंकवादियों के
हाथों बड़े (परमाण्विक या रासायनिक) हथियार लग गये हैं और इनका इस्तेमाल वे इन तीन
देशों पर ही कर रहे हैं!
786
यह इस्लाम का पवित्र नम्बर है- बिस्मिल्लाह। ज्यादा मैं
नहीं जानता, मगर इतना है कि मैं उन नोटों को सहेजकर रखता हूँ, जिनके नम्बर 786 से
समाप्त होते हैं। ऐसे नोटों को मैं नेक या शुभ काम में, या फिर आकस्मिक
परिस्थितियों में ही खर्च करता हूँ, अन्यथा नहीं।
मेरे एक दोस्त ने इस नम्बर के सम्बन्ध में विचित्र बात मुझे
बतायी थी। मैंने पूछा था, कहाँ से मिली यह जानकारी, तो उसका कहना था कि एक मुसलमान
शिक्षक ने ही यह जानकारी दी है। इस विचित्र गणना के अनुसार 786 का जो 7 है, वह
सातवीं सदी का द्योतक है; 7 में अगला अंक 8 जोड़ने पर 15 बनता है, जो 15वीं सदी का
द्योतक है; और फिर 15 में अन्तिम संख्या 6 जोड़ने पर 21 बनता है, जो 21वीं सदी का
द्योतक है। 7वीं सदी इस्लाम के जन्म की सदी हुई, 15वीं सदी उसके उत्थान के चरम की थी
और 21वीं सदी उसके पतन की सदी होगी!
इस गणना को तुक्का कहकर उड़ाया जा सकता है, मगर मुझे ऐसा
लगता है कि अगर दुनिया के मुसलमान अपने शरीर के एक सड़े हुए अंग को काटकर अलग करने
के लिए राजी न हुए, उस सड़ चुके अंग के प्रति अपनी मोह-माया, "सॉफ्ट
कॉर्नर" का त्याग न कर सके, तो वाकई हो सकता है कि अगली सदी आते-आते (अभी 86
साल बचे हुए हैं...) इस धरती के एक प्रमुख धर्म के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगे,
क्योंकि उस सड़े हुए अंग का जो जहर है, वह धीरे-ध्रीरे सारे शरीर में फैल रहा है...
*****