नारी को निर्वस्त्र देखने की लालसा या कामना
पुरुषों के मन में दबी हुई रहती है, जिसे मौका पाकर वह गँवाना नहीं चाहता। जरा सोचिये कि धृतराष्ट्र की राजसभा में जब द्रौपदी का चीरहरण हो
रहा था, तब भीष्म-जैसे शूरवीर और विदुर-जैसे महात्मा चुपचाप क्यों बैठे थे? दूसरी
बात- प्रायः हर नारी दूसरी नारी से ईर्ष्या करती है- यह भी एक ध्रुव सत्य है।
वर्ना क्या कारण था कि गान्धारी भी उस सभा में चुप रही थी? पाण्डव तो खैर, मेरी
नजर में लानत के पात्र हैं, जो उस सभा में दुम दबाकर बैठे थे, वर्ना उन्हें तो
प्राणों की परवाह किये बिना वहाँ हथियार उठा लेना चाहिए था। खैर, हो सकता है, यह
सब नियति का खेल रहा हो।
पुरूषों की यह लालसा सदा बनी रहेगी, क्योंकि यह उनके गुणसूत्र में
दर्ज होती है शायद। घर-परिवार, बड़े-बुजुर्गों, अच्छी पुस्तकों इत्यादि से मिले अच्छे
संस्कारों के बल पर यह लालसा पर्दे के
पीछे रहती है और सही जगह पर इसे प्रकट किया जाता है- यानि शयनकक्ष में अपनी
धर्मपत्नी के मामले में। इस लालसा का अन्यथा प्रकटीकरण एक बुराई है- किसी भी
परिवार, समाज, समुदाय, धर्म और राष्ट्र के लिए। दूसरी तरफ, यह भी सच है कि स्त्रियों
का एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी देह का ज्यादा-से-ज्यादा प्रदर्शन कर या देहयष्टि को
उत्तेजक बनाकर पुरूषों का ध्यान आकर्षित करने या उन्हें अपने वश में करने के प्रयास
करता है और इसे जायज भी ठहराता है! व्यापारियों का तीसरा वर्ग भी है, जो नारी को
उपभोग की वस्तु बनाकर अपना उल्लू सीधा करता है- यानि अपने उत्पाद बेचता है- इस
मामले में न तो सरकार रोक लगा रही है, न ही नारी समाज खुद को जगरुक कर रहा है।
नारी खुद ही अपना इस्तेमाल होने देती है- चारे के रुप में!
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दूर-दराज
के पिछड़े इलाकों तथा आदिवासी बहुल क्षेत्रों में, जहाँ कि अशिक्षा तथा अन्धविश्वास
का बोलबाला रहता है इस लालसा की पूर्ती के लिए “डायन” का खेल खेला जाता है- किसी को डायन घोषित करवाओ और फिर सरेआम उसके
कपड़े उतारो। कभी-कभी “विधवाओं” के साथ भी यह खेल खेला जाता है- मृतक की सम्पत्ति को हथियाने के
लिए- तब अन्त में उसकी हत्या ही कर दी जाती है।
ग्रामीण
इलाकों में दबंग लोग कमजोर तबकों की महिलाओं के साथ यह खेल खेलते हैं- एक तीर से
दो शिकार करने के लिए- कमजोर तबकों के आत्म-सम्मान को कुचलने तथा अपनी दबी लालसा
की पूर्ती के लिए।
पर्यटन-स्थलों
पर विदेशी पर्यटक महिलायें इस लालसा का शिकार बनती हैं, क्योंकि उनके प्रति आम
भारतीयों की धारणा कुछ और ही है।
महानगरों
में आधुनिकता के प्रभाव में आकर पुरूष ऐसा करते हैं और कई बार आधुनिकता के प्रभाव
में स्त्रियाँ जाने-अनजाने में खुद ही इस लालसा का शिकार बन जाती हैं।
जहाँ तक
छोटे शहरों, कस्बों, बड़े गाँवों की बात है- वहाँ से ऐसी खबरें नहीं आती। इन जगहों
का सामाजिक ताना-बाना देहातों, महानगरों और पर्यटन-स्थलों से अलग होता है- एक
आदर्श “भारतीय परिवेश”-जैसा। गौहाटी की सड़क पर जो हुआ, वैसा किसी छोटे शहर, कस्बे या बड़े
गाँव में नहीं होगा और अगर कुछ मनचलों ने ऐसी कोशिश कर भी दी, तो मनचलों की
सामाजिक धुलाई को तो आप तय मान लीजिये!
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ऐसे
मामलों में हम पुलिस तथा न्यायपालिका से कोई उम्मीद नहीं रख सकते- यह एक चुभती हुई
सच्चाई है- यकीन न हो तो आँकड़े पलट कर देख लिये जायें- देर-सबेर इन अपराधों के
अपराधियों को बचाने का ही काम हमारी पुलिस तथा न्यायपालिका करती है!
कई बार तो
जिम्मेदार लोग इस मामले में ऊट-पटांग बयान देते नजर आते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय
महिला आयोग की अध्यक्षा ने कहा था कि “सेक्सी” टोण्ट पर लड़कियों को बुरा नहीं मानना चाहिए- क्योंकि यह उनकी
सुन्दरता एवं कमनीयता की प्रशंसा है! तो अब गौहाटी वाली घटना पर वे क्या कहेंगी-
???
हद तो तब हो जाती है, जब एक महिला राष्ट्रपति बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले अपराधी को “क्षमादान” देती हुई नजर आती हैं! मेरे हिसाब से यह एक “जघन्य क्षमादान” है!
हद तो तब हो जाती है, जब एक महिला राष्ट्रपति बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले अपराधी को “क्षमादान” देती हुई नजर आती हैं! मेरे हिसाब से यह एक “जघन्य क्षमादान” है!
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इस घटना
से व्यक्तिगत रुप से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि एक तरफ देहाती एवं ग्रामीण
इलाकों को कुछ कदम “आगे बढ़ाने” की जरुरत तो है ही; नगरीय एवं महानगरीय सभ्यता-संस्कृति को कुछ
कदम “पीछे लौटाने” की भी जरुरत है।
हो सकता
है, “पीछे लौटने” की बात से लोग सहमत न हों, मगर मेरी यह दृढ़ धारणा है कि महानगरीय
सभ्यता-संस्कृति जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है, वहाँ यही सब कुछ होगा।
रही बात
कानून-व्यवस्था की, तो आप शायद जानते हों कि अँग्रेजों के इस कानून-व्यवस्था से
मैं ऐसे ही नफरत करता हूँ और इसे पूरी तरह से हटाकर एक नयी व्यवस्था कायम करने का
मैं दृढ़ समर्थक हूँ!
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