आज के दैनिक ‘प्रभात खबर’ में कई लेखों ने मेरा ध्यान
खींचा- पहले पन्ने के निचले हिस्से में (जहाँ आमतौर पर मानवीय संवेदना को छूनेवाले
फीचर होते हैं) आलेख छपा है- “आने ही वाला है धरती का ‘टिपिंग प्वाइण्ट’”। लेखक हैं-
डॉ. एन.के. सिंह। इसमें बताया गया है कि धरती के 43 प्रतिशत जंगल समाप्त हो चुके
हैं, 2025 तक 50 प्रतिशत जंगल समाप्त हो जायेंगे, उसके बाद हम चाहकर भी अपने
पर्यावरण को पहले जैसा नहीं बना पायेंगे। इसे वैज्ञानिकों ने ‘Point to No Return’ कहा है।
बाकी आलेख सम्पादकीय पन्नों पर हैं।
सम्पादक हरिवंश का आलेख है- “खोखला
आधुनिक आर्थशास्त्र”, जो 1991 से (जब ये मनमोहन ही वित्तमंत्री थे) अब तक चल
रहे “उदारीकरण” की निरर्थकता को बयान करता है, अपनी असफलता का ठीकरा ग्रीस
पर फोड़ने की कोशिश पर हँसता है और बताता है कि इस उदारीकरण से अगर किसी को फायदा
हो रहा है, तो वे हैं पूँजीपति एवं उद्योगपति और इसलिए वे उदारीकरण के अगले चरणों
को लागू करने की माँग कर रहे हैं।
राजेन्द्र तिवारी का आलेख है- “सोचिये,
सोचने में पैसा नहीं लगता”, जिसमें बताया गया है कैसे
बाजारीकरण मोटे अनाजों से भी फायदा लूट रहा है और जिस कारण अब गरीबों के लिए मोटे
अनाजों से पेट भरना भी मुश्किल हो गया है। एक आँकड़ा है कि दुनिया में 92.5 करोड़ लोग भूखे हैं, जिनमें एक
तिहाई भारत में है! (bhookh.com देखा
जा सकता है।)
एम.जे. अकबर अपने आलेख “स्टाइल से
अनमोल है संस्कृति”, में एक जगह लिखते हैं- “आप भाग्य या
सृजनात्मक उपायों से अमेरिकी सेना से बचे रह सकते हैं, लेकिन आप अमेरिकन
मैकडोनाल्ड से नहीं बच सकते। पूँजीवाद का कानून अचल है- कोई सेना बाजार की शक्ति
को नहीं हरा सकती।”
यह सब पढ़कर लगता है कि जब
मैं-
1. शोषण (मनुष्य द्वारा
मनुष्य का), दोहन (प्राकृतिक संसाधनों का- अन्धाधुन्ध) और उपभोग (अमेरिका द्वारा
पोषित) पर आधारित वर्तमान व्यवस्था के ध्वस्त होने की बात करता हूँ;
2. इसके स्थान पर एक “आदर्श विश्व व्यवस्था” कायम करना चाहता हूँ;
3. इसकी शुरुआत भारत से
करना चाहता हूँ;
4. इसके लिए दस वर्षों के लिए
इस देश का डिक्टेटर बनना चाहता हूँ;
5. इसके लिए समय कम होने
तथा उल्टी गिनती शुरु हो चुकने की बात करता हूँ;
तो मैं कहीं से भी गलत नहीं
हूँ। हालाँकि मैं यह भी जानता
हूँ कि यह असम्भव है (तभी तो मैं इसे पूरा करना चाहता हूँ!) और इस देश के वासी
मुझसे सहमत नहीं होंगे, फिर भी, मैं अपने विचार पर दृढ़ हूँ। हो सकता है कि जब जनता
की सारी उम्मीदें (जो उसने अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, नरेन्द्र मोदी और राहुल
गाँधी से पाल रखी हैं) एक-एक कर चकना-चूर हो जायें, तब वह मुझे आवाज दे; यह भी हो
सकता है कि मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति को देखते हुए नियति ही अपना रास्ता बदल दे; या
फिर, अचानक किसी दिन कोई चमत्कार ही हो जाये!
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