सोमवार, 24 सितंबर 2012

राजनीतिक परिवर्तन के तीन नियम




भूमिका
महासागरों की सतह के नीचे ठण्डे या गर्म जल की विशाल जलधारायें बहती हैं, जिनका पता ऊपर से नहीं चलता है। ठीक उसी प्रकार, पिछले डेढ़ साल से भारतीय जनमानस में भी राजनीतिक परिवर्तन लाने की आकांक्षा की एक विचारधारा बह रही है, जो बाहर से नजर नहीं आ रही है। जनता को दीख रहा है कि देश आज आर्थिक दीवालियेपन, बहुराष्ट्रीय निगमों की ग़ुलामी तथा असफल राष्ट्र साबित होने की कगार पर खड़ा है। इसके लिए कुछ अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियाँ तो थोड़ी जिम्मेदार हैं ही, मगर ज्यादा जिम्मेदार है- हमारी ख़ुद की राजनीतिक स्थिति। यह स्थिति इतनी लचर, इतनी अनैतिक, इतनी भ्रष्ट हो गयी है कि अब किसी भी दल, किसी भी गठबन्धन की सरकार बन जाय, उसे विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन तथा अमीर देशों के सामने सिर झुकाना ही है। अतः अब देशवासी राजनीति में परिवर्तन लाना चाहते हैं। परिवर्तन के दो रास्ते हैं, जिसमें से पहला रास्ता, यानि अनशन, सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा का रास्ता पिछले डेढ़ साल में जनता द्वारा 7 बार आज़माया गया है- अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के नेतृत्व में- कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उल्टे स्थिति बद से बदतर हो गयी। अब जो दूसरा रास्ता बचा है, वह आमूल-चूल (Upside down) परिवर्तन का रास्ता है, जिसे चलती भाषा में क्रान्ति कहेंगे। इस रास्ते से परिवर्तन लाने के बारे में सोच-विचार करते हुए मैंने राजनीतिक परिवर्तन के 3 नियम ही खोज निकाले हैं। उन्हीं नियमों तथा उनकी व्याख्या को यहाँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

पहला नियम
किसी भी राष्ट्र के 1 प्रतिशत नागरिकों की कोशिश तथा उस कोशिश को 3 प्रतिशत नागरिकों का नैतिक समर्थन उस राष्ट्र की नियति (Destiny) को निर्धारित कर सकता है।
इस नियम को हालाँकि अभी दुनियाभर में हुए आन्दोलनों की कसौटी पर कसा नहीं गया है, फिर भी, उम्मीद है कि कसने पर यह नियम खरा ही उतरेगा। अब जैसे, भारत के ही स्वतंत्रता आन्दोलन को लें- क्या आज़ादी के लिए प्रयास करने वालों की संख्या 40 लाख से ज़्यादा रही होगी? और आज़ादी के इन मतवालों को नैतिक समर्थन देने वालों की संख्या 1 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा रही होगी? लगता तो नहीं है। उन दिनों भारत की जनसंख्या 40 करोड़ थी, जिनमें से ज़्यादातर को लगता था कि आधी दुनिया पर क़ायम जिस महान ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता है, वह सदा- कम-से-कम अभी कई सदियों तक- कायम रहेगा। मगर 1 प्रतिशत लोगों की कोशिश तथा 3 प्रतिशत लोगों की आकांक्षा ने इस देश की नियति को तय किया।
इस नियम के लिहाज़ से देखा जाय, तो आज के भारत में राजनीतिक बदलाव लाने के उद्देश्य के प्रति प्रायः 1 करोड़ 20 लाख लोगों को लामबन्द (Mobilise) होना होगा तथा 3 करोड़ 60 लाख लोगों को इस लामबन्दी को नैतिक समर्थन देना होगा।
अगर आप कहें कि इससे कहीं ज्यादा लोग इस कोशिश में लगे हैं तथा ऐसी आकांक्षा पाल रहे हैं, तो मैं कहूँगा कि उनकी कोशिश तथा आकांक्षा बँटी हुई, बिखरी हुई, छितरायी हुई है, उन्हें एक उद्देश्य के प्रति घनीभूत होना है और थोड़े-से धैर्य का प्रदर्शन करना है। जैसे कि धूप कागज के टुकड़े को नहीं जलाती, मगर जब आतशी शीशे की मदद से मात्र 1 वर्ग ईंच की धूप को संघनित किया जाता है, एक विन्दु पर केन्द्रित किया जाता है और थोड़े-से धैर्य का प्रदर्शन किया जाता है, तो वह कागज को जला सकती है।

दूसरा नियम
कोई भी जनविरोधी शासक तब तक राजगद्दी पर आसीन रह सकता है तथा चैन की नीन्द सो सकता है, जब तक कि उसके मन में वर्दीधारी जवानों की स्वामीभक्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न न हो।
ध्यान दीजिये, अँग्रेजों को मार भगाने के लिए भारत के नागरिकों ने दर्जनों आन्दोलन चलाये- अहिंसक से हिंसक तक- मगर एकबार भी अँग्रेजों ने भारत को छोड़कर जाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श नहीं किया- क्यों? क्योंकि सेना के भारतीय जवानों की राजभक्ति पर उन्हें पूरा भरोसा था- यह राजभक्ति अटूट थी और विश्वप्रसिद्ध थी! इस राजभक्ति के बल पर अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे थे। यह राजभक्ति महान ब्रिटिश साम्राज्य की रीढ़ थी! अँग्रेजों की इस कमजोर नस को दबाने वाला एक ही शख्स इस दुनिया में हुआ- और वे थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस! उनकी सैन्य कार्रवाईयों तथा बाद में लाल किले में आजाद हिन्द सैनिकों पर चले कोर्ट मार्शल के प्रभाव से भारतीय शाही नौसेना में बग़ावत (12 फरवरी 1946) हुई, जिसमें कराची, बम्बई, विशाखापत्तनम, कलकत्ता के बन्दरगाहों पर खड़े जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया गया। बग़ावत की ये लपटें जल्दी ही थलसेना तक पहुँच गयीं और भारतीय जवानों ने अँग्रेज अफसरों के आदेश मानने से इन्कार कर दिया- कई छावनियों में तो खुली बगावत हुई। तब जाकर अँग्रेजों ने भारत को छोड़कर जाने के मुद्दे पर विचार किया- बल्कि जल्दीबाजी में यहाँ से भाग निकलने का निर्णय लिया!
दो और घटनाओं पर ध्यान दिया जाय- थ्येन-आन-मेन चौक का विशाल जनान्दोलन (1989) विफल हो गया था- क्यों? क्योंकि चीन की जनता की सेना (?) के जवानों ने जनविरोधी साम्यवादी शासकों के आदेश को मानते हुए आन्दोलनकारियों पर टैंक चढ़ा दिये थे। इसके मुकाबले पिछले साल तहरीर चौक का जनान्दोलन सफल रहा था- क्यों? क्योंकि मिश्र की सेना के जवानों ने अपने ही नागरिकों पर बल-प्रयोग करने से मना कर दिया था, जिसके फलस्वरुप 30 वर्षों से सत्ता पर काबिज जनविरोधी राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा था!

तीसरा नियम
किसी आन्दोलन से पहले ही आन्दोलन के बाद के कार्यक्रमों की सुस्पष्ट रुपरेखा बना ली जानी चाहिए, अन्यथा, हो सकता है कि सफल होकर भी वह आन्दोलन जनता को वांछित परिणाम न दे सके।
ज़ारशाही के खिलाफ क्रान्ति (1917) करने से पहले लेनिन के दिमाग में पूरा ख़ाका मौजूद रहा होगा कि क्रान्ति की सफलता के बाद कौन-सी शासन-प्रणाली क़ायम करनी है, जिससे कि आम रूसियों का भला हो सके। शहीदे-आज़म भगत सिंह और नेताजी सुभाष ने भी अपने दिमाग में अँग्रेजों के जाने के बाद क़ायम होने वाली शासन-व्यवस्था की सुस्पष्ट रुपरेखा बना रखी थी, जिससे आम हिन्दुस्तानियों क भला होना था। मगर बाद के दिनों में जयप्रकाश नारायण ऐसी कोई रुपरेखा नहीं बना पाये थे, जिस कारण उनकी सम्पूर्ण क्रान्ति (1977) सफल होकर भी जनता को वांछित परिणाम नहीं दे पायी थी। मिश्र में तहरीर चौक की सफल क्रान्ति भी अपने आम नागरिकों को वांछित परिणाम दे पायी है- ऐसा नहीं लगता। इसके पीछे भी यही कारण है- आन्दोलन से पहले ही आन्दोलन के बाद के कार्यक्रमों की रुपरेखा का न होना। हालाँकि यह क्रान्ति स्वतःस्फूर्त थी- न कि योजनाबद्ध; फिर भी, वर्षों से पल रहे जनाक्रोश को देखते हुए किसी को तो नये मिश्र के निर्माण की रुपरेखा बनाकर चाहिए थी।
अभी एक अपुष्ट खबर के अनुसार अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के बीच एक गोपनीय बैठक हुई है। बैठक को गोपनीय रखने को अनुचित मानते हुए भी मैं इस मिलन को एक शुभ संकेत मानता हूँ- बशर्ते कि खबर सही हो। अन्ना समर्थक और रामदेव समर्थक एक-दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते हैं: ऐसे में, दोनों अगर संयुक्त मोर्चा बना लें, तो जनता की बँटी हुई कोशिश तथा आकांक्षा घनीभूत ही होगी। दो से भले तीन की तर्ज पर अगर पूर्व सेनाध्यक्ष जेनरल वी.के. सिंह भी इस मोर्चे में शामिल हो जायें (उस अपुष्ट खबर में इसकी भी चर्चा थी), तो यह सोने पे सुहागा वाली बात होगी- क्योंकि उनकी उपस्थिति से परिवर्तन के दूसरे नियम का पालन आसानी से हो पायेगा।

उपसंहार
अब बिना समय गँवाये अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव और जेनरल वी.के. सिंह को कुछ विद्वानों के साथ मिल-बैठ कर नये भारत के निर्माण की एक सुस्पष्ट रुपरेखा बनाकर उसे जनता के सामने प्रकाशित करना चाहिए। जनता की सहमति मिलने के बाद तीनों को एक अन्तिम तथा सम्पूर्ण आन्दोलन (Full & Final Movement) की अपील जारी करनी चाहिए- सभी देशवासियों के नाम। मैं अपनी ओर से इतना जोड़ना चाहूँगा कि आन्दोलन की सफलता के बाद क़ायम होने वाली नयी शासन-प्रणाली के अन्तर्गत जो सरकार बने, उसमें चाहे प्रत्येक राज्य से एक प्रतिनिधि हो, या प्रत्येक जिले/महानगर से, या फिर, प्रत्येक प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर से, हर हाल में उसमें आज का एक भी राजनेता शामिल नहीं होना चाहिए; दूसरी बात, इस सरकार में अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव और जेनरल वी.के. सिंह को परामर्शदाता के रुप में जरूर शामिल होना चाहिए- भले इस पद के बदले वे सरकारी वेतन एवं लाभ न लें; तीसरी बात, इस सरकार को किसी दूसरे भवन से कार्य करना चाहिए, जो वास्तु के अनुसार सही हो- अँग्रेजों द्वारा निर्मित शून्य-आकार वाले संसद-भवन से सरकार का चलना अटपटा लगता है।
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पुनश्च: 
अपनी तरफ से मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि अगर विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों को मानने से इन्कार करने- जरुरत पड़ने पर लिये गये अन्तर्राष्ट्रीय ऋण को चुकाने से भी इन्कार करने; अमीर देशों के सामने तनकर खड़े होने और देश के "आम" लोगों को ध्यान  में रखकर नीतियाँ बनाने- चाहे इससे "खास" लोग नाराज ही क्यों न हो जायें- का साहस इन जन- नायकों में है, तभी वे आगे बढ़ें... वर्ना देश को "नियति" के भरोसे छोड़ दें!  
                                                          

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