स्वतंत्र भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें
से एक लाल बहादूर शास्त्री ही हैं, जिनके प्रति मेरे हृदय में श्रद्धा है।
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बचपन में मैंने उनके बचपन पर लिखी एक पुस्तक
पढ़ी थी- “लाल भी बहादूर भी”।
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उनके प्रधानमंत्री रहते हुए एकबार उनके एक
करीबी परिचित उनसे मिलने आये। परिचित के बेटे का चयन दारोगा में नहीं हो पाया था,
क्योंकि कद एकाध ईंच कम पड़ रहा था। परिचित शास्त्रीजी के पास आये थे- सिफारिशी
पत्र लिखवाने।
जब परिचित नहीं माने, तो शास्त्रीजी ने एक
सिफारिशी पत्र अपने प्रधानमंत्री के लेटरहेड पर लिखा और फिर एक दूसरा पत्र भी
लिखने लगे।
उत्सुकतावश परिचित ने पूछा- ‘यह दूसरा पत्र
किसके लिए है?’
शास्त्रीजी बोले- ‘यह मेरा इस्तीफा है-
राष्ट्रपति के नाम। सिफारिशी पत्र लिखने के बाद नैतिकता के आधार पर मुझे
प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ेगा।’
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शास्त्रीजी के प्रधानमंत्री रहते हुए ही
उनके पुत्र को किसी कॉलेज के फॉर्म की जरुरत पड़ी। पुत्र ने जब शास्त्रीजी से इसका
जिक्र किया, तो शास्त्रीजी का जवाब था- ‘आप खुद कॉलेज जाईये, पंक्ति में लगिये और
फॉर्म लेकर आईये।’
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शास्त्रीजी
का प्रधानमंत्री के रुप में शुरुआती समय तो खैर, युद्ध की भेंट चढ़ गया, मगर युद्ध
के बाद वे देश सही दिशा-निर्देश दे सकते थे।
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मेरा अनुमान है कि ताशकन्द में दो बातें हुई
होंगी- 1. वे पाकिस्तान के साथ अपमानजनक समझौते के लिए राजी नहीं हुए होंगे; और 2.
ताशकन्द से भारत जाने के बाद “साम्यवादी” किस्म की नीतियों को लागू करने से उन्होंने विनम्रतापूर्वक
मना कर दिया होगा। इसके बाद जो षडयंत्र रचा गया होगा- उसका हम सहज ही अनुमान लगा
सकते हैं।
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शास्त्रीजी की हत्या हुई थी- इस मामले में
मुझे जरा भी सन्देह नहीं है। जिस थर्मस से वे पानी पीते थे, उसमें जहर मिला दिया
गया था। बाद में, न तो शास्त्रीजी के शव का अन्त्यपरीक्षण हुआ और न ही वह थर्मस
दुबारा कभी दीखा! ललिताजी उस थर्मस के लिए पूछती रह गयीं, मगर अगली भारत सरकार ने
तो मानो कसम ही खा लिया कि इस मामले की जाँच करनी ही नहीं है!
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दुर्भाग्य की बात यह रही कि गैर-काँग्रेसी
सरकारों ने- खासकर, भाजपा सरकार ने- भी इस मामले की जाँच को जरूरी नहीं समझा!
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हमें शास्त्रीजी-जैसे एक सादगीपसन्द, सरल,
विनम्र प्रधानमंत्री की फिर से जरुरत है- ताम-झाम वाले राजनेता देश का भला नहीं कर
सकते।
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