ठीक है, मैं सेना की, सैनिकों
की इज्जत करता हूँ, बल्कि मैं खुद वायुसैनिक रह चुका हूँ; मगर
मैं मणिपुर में 12 वर्षों से अनशनरत इरोम शर्मिला का समर्थन करता
हूँ।
मैं तेजपुर में रहा हूँ। एकबार जब मैं काजीरंगा से लौट रहा था, जगह-जगह
पर सेना के जवान हमारी बस को रोक कर चेकिंग कर रहे थे। पुरूषों को वे बाहर आने को कहते थे और
बड़े अदब से कहते थे- महिलायें अन्दर बैठी रहें। मगर दो-चार चेकिंग के बाद जब महिलायें
भड़कने लगीं,
तब माजरा समझ में आया।
मैं नागरिक क्षेत्रों में, नागरिकों
के खिलाफ सैनिकों के इस्तेमाल का विरोध करता हूँ। सैनिकों को बैरकों में ही रहना चाहिए और
देश के दुश्मनों से लड़ना चाहिए- अपने नागरिकों से नहीं।
अखबार कहता है कि मणिपुर सरकार सेना के
दवाब में उस काले कानून को नहीं हटा रही है, जिसमें सेना को असीमित अधिकार
मिला हुआ है।
मगर मुझे लगता है, दिल्ली की सरकार सही फैसले लेने में अक्षम है।
अखबार के इस आलेख से एक उद्धरण-
"शर्मिला ने पिछले 12 वर्षों
से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा। वह कहती हैं कि मैंने माँ से वादा लिया
है कि जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा न कर लूँ, तुम
मुझसे मिलने मत आना, लेकिन
जब शर्मिला की 78 साल की माँ से, बेटी
से न मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है, तो
उनकी आँखें छलक उठती हैं।
रुँधे गले से सखी देवी कहती हैं कि मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था, जब
वह भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी, मैंने उसे आशीर्वाद
दिया था।
मैं नहीं चाहती, मुझसे मिलने के बाद वह कमजोर
पड़ जाए और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा न हो पाए। यही वजह है कि मैं उससे
मिलने कभी नहीं जाती।
हम उसे जीतता देखना चाहते हैं।"
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