झारखण्ड बनने से पहले हम
‘बिहारी’ ही थे और खासकर मैं पिछले चार साल से बिहार में ही हूँ।
“विशेष राज्य” की माँग क्या है? “हम ‘पिछड़े’ हुए हैं. हमें ‘आर्थिक मदद’ चाहिए”- यही न?
इस माँग को मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए
तो यही लगता है कि यह माँग जायज है।
मगर पता नहीं क्यों, मेरी अन्तरात्मा इस
माँग से सहमत नहीं है। मुझे ऐसा लग रहा है कि एक ऐसा भिखारी भीख माँग रहा है,
जिसके हाथ-पाँव के साथ-साथ उसके सारे अंग सही-सलामत हैं, जो उम्र से युवा है, जिसे
कोई बीमारी नहीं है... बस उसका स्वाभिमान, उसकी खुद्दारी मर गयी है! वह
मेहनत-मजदूरी नहीं करना चाहता, काम मिलने पर भी वह उसे नहीं करना चाहता, उसे तो बस
“भीख” या “मुफ्त” में पैसे चाहिए।
बात सिर्फ बिहार की नहीं है, देश भर के
लोगों को “मुफ्तखोर” बनाने की साजिश चल रही है- आम लोगों के “स्वाभिमान” की बाकायदे
हत्या की जा रही है। नीति है- लोगों को रोजगार मत दो, काम के अवसर पैदा मत करो-
इससे तो वे खुद्दार हो जायेंगे, उन्हें सब्सिडी दो, उन्हें आरक्षण दो; उन्हें लाल
कार्ड, पीला कार्ड, नीला कार्ड दो; उन्हें मुफ्त बिजली, मुफ्त साड़ी दो; उन्हें
मुफ्त साइकिल, मुफ्त लैपटॉप दो; उन्हें लड़की होने पर मुफ्त में पैसे दो....
जाहिर है, एक “मुफ्तखोर” व्यक्ति और
समाज कभी भ्रष्ट सत्ता, शोषक पूँजीवाद और आततायी गुण्डाराज के खिलाफ सीना तानकर खड़ा
नहीं हो सकता!
मुझे केवल भाषण देने का शौक नहीं है... अगर
मैं बिहार-झारखण्ड का नीति-निर्देशक बना, तो जो भी, जितने भी साधन-संसाधन यहाँ
उपलब्ध है; जैसी भी, जितनी भी मानव शक्ति यहाँ उपलब्ध है, उन्हीं के बल पर इन
दोनों राज्यों को समृद्ध बनाकर दिखा सकता हूँ!
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