रविवार, 14 सितंबर 2014

182. काम के घण्टे

(करीब महीने भर से लिखना बन्द था। इस दौरान कई विचार दिमाग में आये और निकल गये, जो बच गये, उन्हें एक ही बैठकी में लिखे डाल रहा हूँ।)

       अरे काहे को 12-14 और 15-16 घण्टे काम!
मेरा बस चले, तो 6 घण्टे से ज्यादा काम करने वालों पर मैं जुर्माना लगा दूँ!
दिन में सिर्फ छह घण्टे काम करो और बाकी समय अपने परिजनों, नाते-रिश्तेदारों, दोस्त-यारों के साथ बिताओ; मैदान में खेलने जाओ, पार्क-जंगल में टहलने जाओ, पुस्तकालय जाओ, नहीं है कोई नाटक-कवि सम्मेलन-चित्रकला प्रदर्शनी, तो सिनेमा हॉल ही जाओ; नहीं जाना कहीं, तो घर में किताब पढ़ो, गाने सुनो, कम्प्यूटर-टीवी पर समय बिताओ... कहने का कात्पर्य कुछ भी करो, मगर खबरदार जो दफ्तर-फैक्ट्री में छह घण्टे से ज्यादा समय बिताया तो! एक बार वहाँ से निकलने के बाद वहाँ का जिक्र भी बन्द!
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क्यों जिक्र होता है इन 12-14 और 15-16 घण्टे काम का? ताकि लोग बीमार पड़े। रक्तचाप, मधुमेह, तनाव का शिकार बने। फिर शुरु हो दवाईयों पर जीने का दौर। दवाईयाँ भी ऐसी, जो बीमारियों का ईलाज न करे- बस लोगों को जिन्दा रखे- काम करते रहने के लायक रखे! दवाईयाँ कौन बना रहा है? बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ। इनका उद्देश्य क्या है? समाजसेवा? लोगों का स्वास्थ्य?? पागल ही कोई ऐसा सोचेगा। इनका उद्देश्य है- ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा! इन कम्पनियों की अर्थव्यवस्था इतनी विशाल होती है, इनकी लॉबी इतनी ताकतवर होती है कि लचर व्यवस्था तथा गँवार जनता वाले देशों के शासकों-प्रशासकों-न्यायाधीशों-मीडियाधीशों को ये चुटकियों में खरीद लेती हैं!
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जिस देश में जनसंख्या ज्यादा हो, वहाँ की कार्य-संस्कृति अलग होनी चाहिए कम जनसंख्या वाले देशों की कार्य-संस्कृति से। यहाँ वेतन कम होना चाहिए, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को रोजगार मिलना चाहिए, दो-तीन या चार शिफ्टों में काम होना चाहिए और जरुरत पड़ने पर रिटायरमेण्ट की उम्र घटानी चाहिए।
मगर यहाँ तो सब उल्टा हो रहा है- वेतन हद से ज्यादा दो, एक ही आदमी से दो-तीन आदमी का काम लो, सुबह से रात तक एक ही आदमी काम करे (शिफ्ट नहीं), और रिटायरमेण्ट की उम्र 60 से ज्यादा बढ़ा दो!
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