मैं न केवल
अपने भारत देश को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाना चाहता हूँ, बल्कि भारत के
नेतृत्व में दुनिया में आदर्श विश्व-व्यवस्था कायम करना चाहता हूँ। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसा “असम्भव” लक्ष्य लेकर मैं
क्यों चल रहा हूँ?
इसके पाँच कारण हैं-
पहला- पहला कारण ‘व्यवहारिक’ है। हो
सकता है कि कुछ समय के बाद- यानि सौ-पचास वर्षों के बाद- लोगों को मेरे “घोषणापत्र” का महत्व समझ
में आये और तब लोग इसके अनुसार देश को चलाने की कोशिश करें!
दूसरा- दूसरा कारण ‘दार्शनिक’ है।
हालाँकि विचारों के ‘तरंग’ होते हैं और इन तरंगों में ‘ऊर्जा’ होती है- यह अब तक
वैज्ञानिक रुप से साबित नहीं हुआ है; न ही ‘नियति’ या ‘समय’ की रेखा का अस्तित्व
साबित हुआ है, जिसमें भूत-वर्तमान-भविष्य की हर घटना दर्ज (नियत) हो। फिर भी, मेरा
मानना है कि 1. नियति की रेखा में हर घटना दर्ज होती है; 2. भविष्य की घटनाओं को ‘विचार-तरंगों’
के माध्यम से प्रभावित किया जा सकता है। अर्थात्, अगर बहुत-से लोग ऐसा सोचेंगे, तो
ऐसा जरूर घटित होगा!
तीसरा- तीसरा कारण ‘आत्मबल’ से जुड़ा
है। अगर मैंने अपने जीवन में एक “सम्भव” लक्ष्य बनाया, तो फिर मैंने क्या लक्ष्य बनाया? सम्भव
कार्य तो कोई भी कर सकता है! मैं क्यों न ऐसा कार्य हाथ में लूँ, जिसके बारे में
लोग मानें कि यह तो असम्भव है और मैं उसे पूरा करके दिखाऊँ!
चौथा- ‘नैतिक शिक्षा’ क्या कहती है- 1.
जीवन में एक लक्ष्य, एक सपना होना ही चाहिए; 2. यह लक्ष्य या सपना ‘महान’ होना
चाहिए; 3. हम अपने जीवन में अपना लक्ष्य पा सकें या नहीं, हमारा सपना पूरा हो या
नहीं- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता- हमें बस अपनी क्षमता के अनुसार कोशिश करते रहना है;
और 4. लक्ष्य को पाने या सपना पूरा होने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि हमने
कितने बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए, कितने बड़े सपने को साकार करने के लिए इस मानव-जीवन को जीया!
पाँचवाँ- पाँचवाँ कारण ‘आध्यात्मिक’ है-
1. मुझे ऊपरवाले पर भरोसा है; 2. मैं जानता हूँ कि वह मेरे साथ है; 3. मैं यह भी
जानता हूँ कि उसकी इच्छा ही मेरी इच्छा है और मेरी इच्छा ही उसकी इच्छा है!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें