गुरुवार, 28 मार्च 2013

119. खाली दिमाग का चिन्तन: होली का खुमार उतरने के बाद



       कहते हैं कि- खाली दिमाग शैतान का अड्डा!
       शाम खाली बैठे-बैठे एक ख्याल आया
       सोशल मीडिया- खासकर, फेसबुक पर- "राष्ट्रवादी" शब्द पर नरेन्द्र मोदी-समर्थकों ने और "आम आदमी" शब्द पर अरविन्द केजरीवाल-समर्थकों ने एक तरह से अपना-अपना "कॉपीराइट" ठोंक दिया है। "हिन्दू" शब्द पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो खैर, पहले से ही अपना कॉपीराइट जता रखा है। इधर कुछ दिनों से लग रहा है कि "देशभक्त" शब्द पर जल्दी ही स्वामी रामदेव-समर्थकों को कॉपीराइट मिलने वाला है। बच गये दो शब्द- "भारतीय" और "हिन्दुस्तानी"। इनमें से "भारतीय" शब्द पर भाजपा वाले और "हिन्दुस्तानी" शब्द पर अन्ना हजारे-समर्थक अपना-अपना दावा ठोंक सकते हैं।
       अगर ऐसा हो गया, तो मेरे-जैसा सीधा-सादा आदमी जब खुद को "राष्ट्रवादी", "आम आदमी", "हिन्दू", "देशभक्त", "भारतीय", या "हिन्दुस्तानी" नहीं बोल पायेगा, तब हो सकता है कि ये सभी समूह मिलकर मुझे "काँग्रेसी" घोषित कर दें!
       यह तो बड़ी विकट स्थिति होगी।
       ***
       एक और ख्याल आया।
       देश में गरीबी-अमीरी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।
1. इसे पाटना है या नहीं?
2. पाटना है, तो किस हद तक? यानि गरीबी-अमीरी के बीच का, या कम-से-कम न्यूनतम व अधिकतम वेतन-भत्तों-सुविधाओं के बीच का- अनुपात कितना होगा? 1:5, या 1:7, या 1:15, या फिर, 1:100, या 1:1000?
3. जो भी अनुपात हो, उसे हासिल करने के लिए कुछ कठोर कदम उठाये जायेंगे या नहीं?
इन सवालों पर उपर्युक्त समूहों में से किसी भी समूह के लोगों को अब तक कुछ लिखते मैंने नहीं देखा है।
       अगर किसी समूह वाले के पास इस सवाल का जवाब है, तो बेशक वे यहाँ प्रस्तुत कर सकते हैं।
       बस, एक अनुरोध है कि मुझे "साम्यवादी" न घोषित करें।
       ***
       वे चाहें, तो 'बुरा न मानो होली है' समझकर इसे नजरअन्दाज भी कर सकते हैं...
       देश का होना तो वही है, जो "नियति" ने तय कर रखा है और होने का समय भी उसी ने तय कर रखा है...
       ...हम और आप किस खेत की मूली हैं, "नियति" के सामने?
       ***
       बहुतों को ऐसा लग सकता है कि गरीबी-अमीरी के बीच बढ़ती खाई इतना महत्व नहीं रखती कि नरेन्द्र मोदी, अरविन्द केजरीवाल, स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और दूसरे अन्यान्य नेता- जो खुद को रसातल में समाते इस देश के तारणहार के रुप में प्रस्तुत करते हैं- इस पर कोई विचार प्रकट करें।
       हो सकता है, मैं ही गलत हूँ, जो इस मुद्दे को महत्व दे रहा हूँ। फिर भी, यहाँ मैं दो कथन उद्धृत करता हूँ:
       1. "कोई भी आदमी इतना अधिक धनी नहीँ होना चाहिए कि वह दूसरे को खरीद सके, और न ही कोई आदमी इतना अधिक गरीब होना चाहिए कि वह अपने आपको बेचने के लिये मजबूर हो जाये। भारी असमानताएं निरंकुशता के लिए रास्ता तैयार करती हैँ।" (शहीद ए आजम भगतसिँह जी की जेल की ङायरी के पेज नं 176 (111) से) 
       2. "इतिहासकार अर्नोल्ड टायनर्बा के अनुसार मिस्र, रोम और यूनान की महान सभ्यताओं के पतन का मुख्य कारण था कि अमीर नेतृत्व और सामान्य जनता के बीच खाई बढ. गयी थी। अत: समाज के स्थिर रहने के लिए जरूरी है कि बढ़ती असमानता पर नियंत्रण किया जाये।" (दैनिक ‘प्रभात खबर’ में 26/3/13 को प्रकाशित डॉ. भरत झुनझुनवाला के एक लेख ‘अमीर-गरीब का फासला’ से)
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