गुरुवार, 7 मार्च 2013

114. अलविदा शावेज!


आधुनिक भारत के तीन नायकों से मैं खुद को प्रभावित महसूस करता हूँ: 1. स्वामी विवेकानन्द, 2. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और 3. लाल बहादूर शास्त्री

       अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिनसे मैं खुद को प्रभावित महसूस करता हूँ, वे हैं: 1. कमाल पाशा, 2. नेल्सन मण्डेला और 3. फिदेल कास्त्रो। इसी कड़ी में पिछले दिनों एक और नाम जुड़ गया था- ह्यूगो शावेज! यह संयोग ही है कि ये चारों राष्ट्राध्यक्ष रहे हैं।

       मैं अपने लेखों में ऐसा जिक्र करता हूँ कि अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, अरविन्द केजरीवाल को अगर कोई एक मंच पर ला सकता है, तो वे जेनरल वीके सिंह हैं- मुझे इस देश में बदलाव लाने का बस यही एक रास्ता दीख रहा है। (मेरे ज्यादातर साथियों को नरेन्द्र मोदी के रुप में बदलाव का रास्ता दीख रहा है- मगर मेरी अन्तरात्मा ने मुझे अब तक इस रास्ते का समर्थन करने के लिए आवाज नहीं दिया है। मुझे ऐसा लगता है कि वे पूँजीपतियों/उद्योगपतियों/बहुराष्ट्रीय निगमों/अमीर देशों के प्रधानमंत्री ही साबित होंगे! ...वैसे, अगले तीन-चार वर्षों में ही साफ हो जायेगा कि मैं गलत हूँ या सही। खैर।)

       बात शावेज की हो रही है। उनके बारे में ज्यादा कुछ न कहकर मैं दैनिक प्रभात खबर के एक पन्ने का लिंक साझा कर रहा हूँ, जिसमें शावेज के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गयी है:

 http://www.prabhatkhabar.com/node/271977?page=show

       और इसी लेख से मैं ह्यूगो शावेज के कथन को उद्धृत कर रहा हूँ, जो मुझे काफी पसन्द आया और जो मेरे विचारों से मेल खाता है। कथन है:

       "जब नागरिक-सरकार समाज में गरीबों के हितों की रक्षा करने में विफल हो जाये, तब मिलिट्री का यह कर्तव्य होता है, कि वह सत्ता में हस्तक्षेप करे।"

       भारत के सन्दर्भ में "मिलिटरी का हस्तक्षेप" कुछ इस प्रकार का होना चाहिए-

1.     वह अगले नागरिक आन्दोलन को समर्थन दे,

2.     नागरिक आन्दोलनकारियों पर बलप्रयोग करने से पुलिस/अर्द्धसैन्य बलों को मना कर दे,

3.     फिर भी, अगर पुलिस/अर्द्धसैन्य बलों के जवान राजनेताओं के प्रति अपनी स्वामीभक्ति दिखाते हुए आन्दोलन को कुचलने की कोशिश करे, तो सेना अपनी कुछ बटालियनों को नागरिकों की रक्षा के लिए बैरकों से बाहर सड़कों पर निकाल दे,

4.     नागरिक अगर 'लुटियन बंगलों' को खाली कराकर वरिष्ठ नागरिकों की एक 'कार्यकारी परिषद' को सत्ता सौंपना चाहे, तो ऐसा होने दे,

5.     उस 'कार्यकारी परिषद' में वारिष्ठ नागरिकों (जो अलग-अलग विषयों के जानकार होंगे) के साथ-साथ न्यायपालिका तथा सेना को भी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए,

6.     अब इस कार्यकारी परिषद को (क) देश की व्यवस्था में जरूरी बदलाव लाना चाहिए (जिन्हें पहले "सत्ता-हस्तांतरण" की शर्तों के कारण और अब विश्व बैंक वगैरह के दवाब कारण नहीं लाया जा रहा है), (ख) चुनाव-प्रणाली में बदलाव लाकर एक "आदर्श" चुनाव आयोजित कराना चाहिए और फिर (ग) देश की राजसत्ता नयी लोकतांत्रिक सरकार को सौंप देनी चाहिए।

मुझे नहीं लगता कि इसके अलावे कोई और रास्ता बचा है इस देश में बदलाव लाने का।

*** 

ऊपर शावेज को समर्पित 'प्रभात खबर' के एक पन्ने का एक लिंक दिया गया है. इसके अलावे सम्पादकीय में भी शावेज पर कुछ लिखा है. संक्षिप्त होने के कारण उसे साभार यहाँ उद्धृत करता हूँ: 

शावेज जिंदा हैं, संघर्ष जारी है!
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वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज नहीं रहे. इतिहास के अंत की घोषणाओं और दुनियाभर में नव-उदारवाद के प्रसार के दिनों में लैटिन अमेरिकी समाजवाद के इस अभूतपूर्व योद्घा ने दुनिया के अर्थतंत्र पर अमेरिका की बादशाहत को पूरे चौदह सालों तक अपने ठेंगे पर रखा और अपने देश वेनेजुएला सहित पेरू, चिली, अर्जेंटीना और इक्वाडोर में समाजवाद का अलख जगाया. इस पूरे इलाके के लोगों को भरोसा दिलाया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राज से छुटकारा संभव है और बेहतर दुनिया के लिए ‘साझी मानवता का साझा स्वप्न’ धरती पर साकार किया जा सकता है. अमेरिका और यूरोपीय देश कहते रहे कि वेनेजुएला में न तो मानवाधिकारों का सम्मान है, न लोकतांत्रिक आजादी, पर शावेज लोगों के चहेते बन कर लगातार चुनाव जीतते रहे. उनके राष्ट्रपति रहते वेनेजुएला में लोक कल्याणकारी कामों पर सरकारी खर्च पहले की तुलना में 61 फीसदी बढ़ा. शावेज के शासन काल में देश की गरीबी 51 फीसदी से घट कर 21 फीसदी रह गयी. वेनेजुएला कभी अपने खाद्यात्र की जरूरत का 90 फीसदी आयात करता था. शावेज के शासन के वर्षों में यही आयात महज 30 फीसदी रह गया. अस्पताल और डॉक्टर बढे., चिकित्सा नि:शुल्क हुई. पेंशन पानेवाले बुजुगरें की तादाद सात गुना बढ.ी, बच्चों में कुपोषण घटा. आज वेनेजुएला में तकरीबन सारी आबादी को साफ पेयजल और विश्‍वविद्यालय स्तर की शिक्षा मुफ्त हासिल है. यह सब हुआ वेनेजुएला के उस तेल के पैसे से जिनके व्यापार पर कभी अमेरिकी कंपनियों का राज था और जिसकी कमाई का बहुत सारा हिस्सा वेनेजुएला के चंद चयनित हड.प ले जाते थे. तेल कंपनियों के राष्ट्रीयकरण के बूते शावेज ने पूरे लैटिन अमेरिका में एक नया अर्थतंत्र खड.ा करने की कोशिश की. वे पूरे लैटिन अमेरिका को एक इकाई मानते थे और उसी हिसाब से तेल या फिर इसके व्यापार से हासिल रकम इन देशों की सरकारों को लोक-कल्याण के लिए देते थे. ठीक इसी कारण, आज जब शावेज नहीं हैं, तो पूरे लैटिन अमेरिका में शोक की लहर है. इस शोक की लहर के बीच अज्रेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना फर्नांडीज ने सारी राजकीय गतिविधियां बंद कर दी हैं. ब्राजील की राष्ट्रपति डिल्मा रॉसेफ ने अपनी अर्जेंटीना यात्रा रद्द कर दी है और उनकी मौत को कभी न भरी जा सकनेवाली क्षति बताया है. बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोराल्स कास्त्रो बंधुओं से मिलने क्यूबा के लिए रवाना हो रहे हैं और वेनेजुएला में लोग गा रहे हैं- ‘शावेज जिंदा हैं, और संघर्ष जारी है.’
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पुनश्च: 
11 मार्च को साहित्यकार रविभूषण जी ने भी प्रभात खबर में शावेज पर एक लेख लिखा, जिसका लिंक है- 
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=10&queryed=9&eddate=3%2F11%2F2013 

13 मार्च को तारिक अली के लेख को प्रभात खबर ने गार्जियन से साभार उद्धृत किया, उसका लिंक-
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=8&queryed=9&eddate=3/13/2013%2012:00:00%20AM 

1 टिप्पणी:

  1. "जब नागरिक सरकार समाज में गरीबों के हितों की रक्षा करने में विफल हो जाये,तब मिलिट्री का यह कर्तव्य होता है, कि वह सत्ता में हस्तक्षेप करे।
    बिलकुल सही ....
    सार्थक लेखन .......

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