शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

148. शासक-प्रशासक, जनता, सेना तथा राष्ट्र



       सितम्बर'2012 में मैंने राजनीतिक परिवर्तन के 3 नियमों की खोज करते हुए एक लेख लिखा था- "राजनीतिक परिवर्तन के तीन नियम", जिसका 2रा नियम कहता है:
कोई भी जनविरोधी शासक तब तक राजगद्दी पर आसीन रह सकता है तथा चैन की नीन्द सो सकता है, जब तक कि उसके मन में वर्दीधारी जवानों की स्वामीभक्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न न हो।
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मिश्र के ताजा घटनाक्रम के बाद आज विचार करने पर मैं कुछ और नियमों तक पहुँचा-
नियम-1: किसी भी राष्ट्र की सत्ता की बागडोर "नागरिक" नेताओं के हाथों में होनी चाहिए- सेना को सत्ता से दूर ही रहना चाहिए।
नियम-2: जब नागरिक नेता माफिया एवं पूँजीपति के साथ गठजोड़ करके देश को लूटने लगे और इस लूट की बहती गंगा में प्रशासक भी अपने हाथ धोने लगें, तब नागरिकों का फर्ज बनता है कि वह-
(क)     पहले तो शासकों को चुनाव के माध्यम से बदलकर देखे;
(ख)     अगर चुनाव का अवसर नहीं मिलता है, या चुनाव में नेताओं को बदलकर देखने पर भी देश का भला नहीं होता है, तो "बगावत" करते हुए वह सड़कों पर उतर जाय।
नियम-3: जब भ्रष्टाचार, कुशासन, अराजकता और अनैतिकता के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरे, तब सेना का कर्तव्य बनता है कि वह "देश की भलाई" को ज्यादा महत्व दे, न कि "नमकहलाली" को; जनता का साथ देते हुए भ्रष्ट शासक, प्रशासक, पूँजीपति और माफिया को सत्ता से हटाये; और ईमानदार एवं देशभक्त लोगों की एक कार्यकारी परिषद को अन्तरिम शासन चलाने दे।
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ये नियम कहीं लिखे हुए तो नहीं हैं- मगर ऐसा होना ही चाहिए- अतः ये "शाश्वत" हैं।
मगर सेना से अक्सर कुछ गलतियाँ हो जाती हैं-
       गलती-1: कोई महत्वाकांक्षी सैन्य जेनरल खुद सत्ता की बागडोर थाम लेता है।
       गलती-2: किसी मुख्य न्यायाधीश या विरोधी पक्ष के किसी नेता को सत्ता की बागडोर थमा दिया जाता है।
       अतः फिर दुहरा दिया जाय कि भ्रष्टों को हटाने के बाद देश की सत्ता की बागडोर हमेशा एक "कार्यकारी परिषद" के हाथों में थमायी जानी चाहिए- जिसमें सभी क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हों, जिनका चरित्र अच्छा हो और जिनके खिलाफ जनता को शिकायत न हो।
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       स्पष्टीकरण: जिन देशों के नागरिक शासक अपने ही देश को लूटने-खसोटने का काम नहीं करते; माफिया, और पूँजीपति के साथ गठजोड़ नहीं बनाते; और प्रशासक अपने शासकों के लिए खैनी नहीं मलते, उस देश की सेना की बात यहाँ नहीं हो रही है। यहाँ बात वैसे देशों की हो रही है, जहाँ के "नागरिक शासन के सुधरने की गुंजाइश खत्म हो चुकी हो।"
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       सेना भी कई प्रकार की हो सकती है-
       प्रकार-1: समझदार सेना। मिश्र में 30 वर्षों से बुरी तानाशाही कायम थी, मगर सेना ने अपनी मर्जी से बगावत या तख्ता-पलट नहीं की। जब जनता ने बगावत किया, तब सेना ने तानाशाह शासक का आदेश मानने के बजाय जनता का साथ दिया।
       प्रकार-2: गुलाम सेना। चीन में (1989) थ्येन-आन-मेन चौक की बगावत एक महान नागरिक बगावत थी, मगर वहाँ की सेना ने (दुर्भाग्य से, उस सेना का नाम "जनता की सेना" है!) अपने साम्यवादी शासकों का आदेश माना, जबकि उन्हें भी दीखता है कि ये नेता अब "साम्यवादी" नहीं रहे- ये विशाल महलों में पूरी शानो-शौकत के साथ रहते हैं और दुनिया की नाक में दम करने का काम करते हैं।
       प्रकार-3: चापलूस सेना। इस प्रकार की सेना के सैनिक जवान और छोटे अफसर आमतौर पर अच्छे होते हैं, मगर ऊँचे दरजे के अफसर अक्सर चापलूस होते हैं- शासकों के। रिटायरमेण्ट के बाद गवर्नर वगैरह बनने का ख्वाब देखते हैं, अक्सर घूँस भी खाते हैं और कुछ दूसरे अनैतिक कामों में भी लिप्त होते हैं। देश किस ओर जा रहा है, इसे किधर ले जाना है- यह सब आकलन करने की क्षमता इनमें नहीं होती। ऐसी सेनायें अक्सर "उपनिवेशवादी साम्राज्य" की उपज होती हैं। अगर कभी योग्य व्यक्ति इन सेनाओं का सेनापति बन भी जाता है, तो उसे शासक तुरन्त हटा देते हैं।
       अपवाद: हाँ, बड़े अफसरों के आदेश का इन्तजार किये बिना छोटे अफसर और सैनिक जवान अगर जनता का साथ देने का फैसला ले ले, तो ऐसे देशों में भी बदलाव आ सकता है।  
       टिप्पणी: यहाँ मैं उस देश के नाम का जिक्र नहीं कर रहा हूँ कि इस 3सरे प्रकार की सेना कहाँ पायी जाती है- इसका अनुमान आप चाहें, तो स्वयं लगा सकते हैं।
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पुनश्च: 
बाद में पता चला कि मिश्र की सेना पर अमेरिका का वरदहस्त रहा है, फिर भी, पहली नजर में वह समझदार ही लगती है. 

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