इस देश में जो बात
मुझे अच्छी लगती है, वह है- "अभिव्यक्ति की आजादी"! वर्ना जिस तरह की
बातें मैं इण्टरनेट पर (ब्लॉग या सोशल मीडिया पर) लिखता हूँ, अगर मैं चीन का
नागरिक होता, तो अब तक जेल में सड़ रहा होता, या फिर लटका दिया गया होता!
आशा है, यह आजादी सदा
बनी रहेगी।
इसके अलावे और कोई
अच्छी बात, तारीफ करने लायक बात मुझे देश में नजर नहीं आती। क्या राजनीति, क्या
अर्थनीति, क्या पुलिस-प्रशासन-न्याय, क्या शिक्षा, क्या स्वास्थ्य, क्या रोजगार...
हर तरफ निराशा और हताशा ही नजर आ रही है... कहीं उम्मीद की छोटी-सी चिन्गारी भी
नहीं दीखती!
हाँ, एक मिसाइल बनाने वाला विभाग है, और दूसरा
कृत्रिम उपग्रह एवं इनका प्रक्षेपक बनाने वाला विभाग है, जो सही काम करते नजर आते
हैं- बाकी सबके-सब अपने-आपको तथा देश की जनता को बस उल्लू ही बना रहे हैं!
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देश की अर्थनीति
बहुराष्ट्रीय निगम तथा अमीर देश तय कर रहे हैं। अमीर देश अगर खुले-आम नहीं करते,
तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक (WB) और विश्व
व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से ऐसा करते हैं। देश की घरेलू नीतियाँ
पूँजीपती एवं माफिया-सरगना तय करते हैं। हमारे राजनेताओं की हैसियत इन सबके
"दलाल" से ज्यादा नहीं रह गयी है। वैसे, यह सिर्फ भारत का मामला नहीं
है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आजाद हुए बहुत-से देशों में ऐसी स्थिति है, जहाँ
का राजनेता वर्ग अमीर देशों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा माफिया का दलाल बन गया है।
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कई मायनों में भारत
दुनिया के बाकी सभी देशों से अलग है। यह आध्यात्म-ज्योतिष, ज्ञान-विज्ञान से लेकर
संगीत और स्थापत्य तक हर क्षेत्र में विश्वगुरू था और आज जबकि दुनिया के ज्यादातर
देश उपभोग के घोड़े पर सवार होकर विकास के अन्धे रास्ते पर दौड़ लगा रहे हैं, आने
वाले समय में भारत को ही फिर एकबार विश्वगुरू की भूमिका निभानी होगी। (हालाँकि
भूटान ने "जीने की सही राह" अपना ली है- वहाँ जी.डी.पी. के बजाय
जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को नापा जाता है।)
वह समय कब आयेगा?
मेरा हिसाब कहता है कि चूँकि भारत के पतन की शुरुआत 11वीं सदी से हुई थी इसलिए
इसका पुनरुत्थान 21वीं सदी में ही होना चाहिए। 2011 में अन्ना हजारे के लिए और फिर
2012 में दामिनी के लिए जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे थे, उससे लगा था कि परिवर्तनों
का दौर शुरु हो गया है, मगर जल्दी ही सब सामान्य हो गया।
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व्यक्तिगत रुप से मैं
"अनशन" का समर्थक नहीं हूँ। अगर मुझे देश में सुव्यवस्था लानी है, तो
मैं पहले कुव्यवस्था के नाभिक को काटकर अलग करूँगा और उसके बाद खुद ही सुव्यवस्था
कायम करूँगा। मैं इसके लिए याचना का रास्ता तो कभी नहीं चुनूँगा!
अन्ना हजारे, स्वामी
रामदेव और अरविन्द केजरीवाल ने अनशन करते हुए याचना का रास्ता चुना- यह भी ठीक है-
बिना एक सेना बनाये या सेना का नैतिक समर्थन लिये बिना आप बगावत कर भी तो नहीं
सकते! मगर मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि तीनों ही मृत्यु से डर गये थे!
...और मृत्यु से डरने वाले भारत-जैसे महान देश के "दिग्दर्शक"-
स्टेट्समैन तो नहीं ही हो सकते!
यह सच है कि मैं
नेताजी का भक्त हूँ, मगर मैं यह स्वीकार करता हूँ कि गाँधीजी के अन्दर गजब का
नैतिक बल था- वे मृत्यु से नहीं डरते थे! ...प्रसंगवश, मैं यह भी बता दूँ कि
गाँधीजी ने कुछ गाँवों का एक समूह बनाकर उन्हें "आत्मनिर्भर" बनाने की
जो कल्पना की थी- उसका मैं कायल हूँ!
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इस देश के बारे में
जितना मैं सोच सकता था, जितना लिख सकता था, उतना मैं अपने दो ब्लॉग ("खुशहाल
भारत" और "देश दुनिया") में लिख चुका हूँ। अब जो भी लिखूँगा, वह या
तो व्याख्या होगी, या दुहराव। इसलिए अब देश के बारे में लिखना या सोचना मैं कम कर
रहा हूँ। अब तो प्रतिक्रिया तक देने का मन नहीं करता- चाहे 4 किशोरियों के साथ
सामूहिक बलात्कार हो जाये; या स्कूली भोजन खाकर 23 बच्चे काल के गाल में समा
जायें!
अब अगर कुछ बचा है,
तो वह है अपनी सोच, अपने विचारों को जमीन पर उतारना। देश की आम जनता, यहाँ तक कि
प्रबुद्ध नागरिकों और बुद्धीजीवियों से भी, मैं कोई खास उम्मीद नहीं रखता- सबकी
सोच लकीर के फकीर वाली है- अपने महान संविधान और महान लोकतंत्र के दायरे से बाहर
जाकर कुछ सोचना उनके लिए पाप है। दूसरी बात, जैसे "सी" ग्रेड की फिल्में
होती हैं, वैसे ही सी-ग्रेड की राजनीति भी होती है- ज्यादातर लोगों को यही पसन्द
है।
ऐसे में, उम्मीद सिर्फ यही बची है कि अगर
भारतीय थलसेना का साथ मिल जाय, तो मैं दस वर्षों के अन्दर ही इस देश की किस्मत
सँवार दूँ! अगर नियति ने ऐसा तय नहीं कर रखा है, तो मैं चुपचाप देश को रसातल में
जाते हुए देखता रहूँ! बस यही दो विकल्प है मेरे पास। न तो आक्रोश व्यक्त करने से
कुछ होगा, न याचना करने से, और न ही रोने से। या तो मैं डिक्टेटर बनकर- (बेशक, एक
"चाणक्य सभा" की मदद से)- खुद ही सब ठीक कर डालूँ, या फिर मामूली आदमी बनकर
अपने चमन की बर्बादी को देखता रहूँ, जिसे शहीदों ने अपने खून से सींचा है- बीच का रास्ता
मेरे पास नहीं है।
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अन्त में- आज की
तारीख में जो लोग यह सोचते हैं कि "1935 के अधिनियम" पर आधारित अपने
महान संविधान के तहत कायम महान "लोकतांत्रिक" व्यवस्था, जिसमें हर
जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के 80 से 90 प्रतिशत नागरिकों का प्रतिनिधित्व
"नहीं" करता है, में इसे हटाकर उसे और फिर, उसे हटाकर इसे सत्ता सौंप
देने से सब ठीक हो जायेगा- वे मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं।
...सच्चाई यह है कि
आज का हर राजनेता दलाल है बहुराष्ट्रीय निगमों का; अमीर देशों का; आईएमएफ, वर्ल्ड
बैंक, डब्ल्यूटीओ का; देशी अरबपतियों का और माफिया-सरगनाओं का, चाहे वह किसी भी दल
का हो! इस वक्त हमें चाहिए एक देशभक्त, ईमानदार और साहसी डिक्टेटर, जो
"आम" लोगों के लिए तथा "सम्पत्ति" में "फूलों से भी अधिक
कोमल" हो, जबकि "खास" लोगों के लिए तथा "विपत्ति" में
"वज्र से भी ज्यादा कठोर"!
जब तक हम "लीक
से हटकर" सोचना शुरु नहीं करेंगे- हम अपने मुल्क के पतन को नहीं रोक सकते!
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