मैं अक्सर सोचता था
कि आखिर मैं अपनी "खुशहाली" वाली अवधारणा को कैसे प्रकट करूँ कि यह
"विकास" से अलग लगे। इस पर विचार करने के लिए मुझे थोड़ा लम्बा समय चाहिए
था और मैं अब तक टाल रहा था।
भला हो अर्थशास्त्री डॉ.
भरत झुनझुनवाला महोदय का, जिन्होंने एक लेख "सुख चाहिए या भोग" लिखकर
मुझे ज्यादा विचार करने से बचा लिया।
लेख थोड़ा जटिल लग
सकता है, मगर पढ़ा जा सकता है।
विकास
"खपत" या "उपभोग" पर आधारित है, जबकि खुशहाली में व्यक्ति के
भौतिक विकास के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखा जायेगा।
भूटान ने बिल्कुल इसी
रास्ते को चुना है- वहाँ जी.डी.पी. से नहीं, बल्कि जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल
हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को मापा जाता है।
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खैर, ई-पेपर में डॉ. झुनझुनवाला का लेख पढ़ने के
लिए यहाँ क्लिक किया जा सकता है:
और जी.एन.एच. की जानकारियों के लिए यहाँ:
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