पिछले साल 29 जुलाई
को मैंने इस ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था- इसी नाम से- अखबार में कुछ लेखों को पढ़ने
के बाद। (मैं सही
रास्ते पर हूँ...)
पिछले दिनों प्रो.
अरूण कुमार (जे.एन.यू.) का साक्षात्कार पढ़ने के बाद फिर इसी शीर्षक के इस्तेमाल के
लिए मैं बाध्य हुआ।
बात ऐसी है कि मैं
अक्सर कुछ बातों को दुहराता हूँ, जैसे-
1. भारत द्वारा
विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों को
मानने से इन्कार करना (बशर्ते कि इन्हें संयुक्त राष्ट्र के अधीन न ले आया जाय और
इनकी नीतियों को गरीबपरस्त न बनाया जाय।)
2. अमेरिका,
यूरोप, ऑस्टेलिया के बजाय अफ्रिकी, एशियायी और दक्षिणी अमेरिकी देशों से मित्रता
बढ़ाना।
3. शोषण, दोहन,
उपभोग की बजाय समानता, पर्यावरण-मित्रता एवं उपयोग पर आधारित आदर्श विश्व व्यवस्था
का निर्माण करना।
4. इस व्यवस्था
में भारत का नेतृत्व होना।
5. विश्व-व्यापार
में 1:1 का अनुपात अपनाना।
6. मैं तो एक
सम्पूर्ण "भारतीय कम्प्यूटर प्रणाली" तक की बात करता हूँ।
7. नयी व्यवस्था
कायम करने के लिए मैं दस वर्षों के लिए पूरी शासन-प्रणाली ही बदलना चाहता हूँ।
***
बहुत-से लोगों को लगता होगा कि इन सबसे भारत
दुनिया में अलग-थलग पड़ जायेगा।
मुझे भी लगता था कि शायद मेरे-जैसा विचार कोई
नहीं रखता होगा। मगर देखा कि जे.एन.यू. के अर्थशास्त्री प्रो अरूण कुमार लगभग यही
बातें कह रहे हैं। उनके साक्षात्कार से उद्धृत कुछ अंश:
मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर
आधारित है. लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल
असर पड.ता हो.
ऐसे हालात को बदलने के लिए ही
एक वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो. भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है.
भारत, चीन, ब्राजील जैसे बडे. देशों में सिर्फ भारत
के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है. भारत में इतने संसाधन हैं कि
यहां सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है. इससे वैश्वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग नहीं पडे.गा.
आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं. देश में
पब्लिक ट्रांसपोर्स सिस्टम पर्याप्त नहीं है. लोग निजी कार की बजाय पब्लिक
ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने लगें तो पेट्रो पदार्थकी खपत दस गुनी कम हो जायेगी.
***
पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और
सांसदों की विलासित बढ.ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढे. हैं. अरबपति
सांसदों की संख्या बढ. रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड. रुपये के चंदे मिल रहे
हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?...
भारत में राजनेता अपने आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता
खुद को पब्लिक सर्वेंट मानते हैं....
पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी. देश में
संभ्रांत वर्ग केंद्रित नीति अपनायी गयी. इससे संसद में करोड.पति सांसद आने लगे.
राजनीतिक पार्टियां अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं....
असल में विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है.
यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र है. इसी धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है.
सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो
गये हैं....
मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की
जरूरत है.
***
कहने की आवश्यकता नहीं, मैं सही रास्ते पर ही हूँ...
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(उनका पूरा साक्षात्कार पढ़ने के लिए:
मुख्य अंश पढ़ने के लिए:
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