रुपया
रसातल को जा रहा है; कोलगेट के दस्तावेज गायब किये जा रहे हैं; इधर चीनी घुसपैठ बढ़ रहा है, तो उधर पाकी हमले; पब्लिक ट्रेन से
कटकर मर रही है; ललनायें दुष्कर्म का शिकार हो रही हैं; नौनिहाल स्कूली भोजन खाकर
काल के गाल में समा रहे हैं... और मैं कभी बारिश के पानी में कागज की कश्ती चला
रहा हूँ, कभी कृष्णसुन्दरी की छायाकारी कर रहा हूँ, तो कभी मोतीझरना यात्रा का
चित्रकथा लिख रहा हूँ (आज ही प्रस्तुत करने वाला हूँ)... क्या हो गया है मुझे?
क्या मैं निस्पृह हो गया हूँ- देश-दुनिया-समाज से?
***
दरअसल मैं
सारी-की-सारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का इन्तजार कर रहा हूँ। इस सड़े-गले नासूर पर
पट्टियाँ या मलहम बदल-बदल कर आजमाने का पक्षधर मैं नहीं हूँ। मुझे आज की सम्पूर्ण
राजनीतिक बिरादरी पर भरोसा नहीं है- सबके-सब जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा
कर रहे हैं।
***
मैं अपने लगभग सारे
विचार व्यक्त कर चुका हूँ। अब कहने को
मेरे पास कुछ नहीं है। हर दुर्गति पर अफसोस जताकर, आक्रोश व्यक्त कर, आँसू बहाकर
कुछ नहीं होने वाला है। मैं पहले भी कह चुका हूँ- या तो मैं सैनिकों व नागरिकों के
सहयोग से डिक्टेटर बनकर खुद ही सारी व्यवस्था को ठीक कर दूँ, या फिर इस देश को अराजकता
की ओर फिसलते हुए, रसातल में समाते हुए, असफल राष्ट्र बनते हुए देखता रहूँ... कोई
तीसरा रास्ता मेरे पास नहीं है।
***
इसे मेरी सफाई समझी
जाय कि मैं अब देश-दुनिया-समाज की बातें छोड़कर ललित किस्म की बातें क्यों ज्यादा
लिखने लगा हूँ। यह फैसला मुझे जनवरी में ही लेना था- 2012 के बाद देश के बारे में
नहीं सोचना है- यह तय कर रखा था। मगर दामिनी काण्ड ने मुझे विचलित कर दिया था- अब
तक उसके दरिन्दों को भी लटकाया नहीं गया है।
इस देश के 'अन्तरिक्ष
विभाग' तथा 'परमाणु विभाग' के अलावे मैं किसी विभाग, किसी व्यवस्था से कोई उम्मीद
नहीं रखता और सबके ध्वस्त होने की कामना करता हूँ... ध्वंस के बीज से ही नया
निर्माण शुरु होगा।
*****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें