कल के
अखबार में खबर थी कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री नाराजगी जता रहे हैं कि बैंक वाले ठीक
से काम नहीं करते, जिस कारण राज्य की गरीब जनता आज भी महाजनों के चंगुल में फँसी
है।
इस "महाजनी" लूट के खिलाफ ही कभी सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव
ने आन्दोलन चलाया था। उनके अनुसार बैंक वाले खाता खोलने के पचासों चक्कर लगवाते
हैं, ऋण देने में कोताही बरतते हैं, वगैरह-वगैरह।
आज के अखबार में एक
विज्ञापन देखा- देश के वित्तमंत्री महोदय भारतीय स्टेट बैंक की 15,000वीं शाखा का
उद्घाटन करने जा रहे हैं।
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मुझे दोनों
महानुभावों से कुछ कहना है।
हेमन्त सोरेन साहब, जब
सेना "मुनाफा" नहीं कमाती, पुलिस मुनाफा नहीं कमाती, न्यायपालिका मुनाफा
नहीं कमाती, डी.सी., बी.डी.ओ. से लेकर कर्मचारी, चपरासी तक का विशाल अमला मुनाफा
नहीं कमाता, विधायक-सांसदों की फौज मुनाफा नहीं कमाती, तो एक ऐसे सरकारी बैंक की
स्थापना करने से आपलोगों को किसने रोका है, जो "मुनाफा" न कमाये, बल्कि
देश/राज्य के सामाजार्थिक उत्थान के लिए काम करे? इसकी शाखायें दूर-दराज तक फैली
हों, इसके स्टाफ को सरकारी वेतन मिले, यहाँ सबका खाता खुले, सबको ऋण मिले, वगैरह-वगैरह।
क्यों आपलोग यह चाहते हैं कि "मुनाफा" कमाने वाली एक संस्था ही यह सब
काम करे?
(अगर ऐसे
"सरकारी" बैंक का "खाका" चाहिए, तो वह मैंने तैयार भी कर रखा
है- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/2009/12/2.html )
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चिदम्बरम साहब, मेरे
एक दोस्त का कहना है कि स्टेट बैंक को चाहिए कि वह नयी-नयी शाखायें खोलने में कम
ध्यान दे और जो शाखायें खुली हुई हैं, वहाँ स्टाफ बढ़ाये। उस दोस्त ने स्टेट बैंक को
छोड़कर किसी और बैंक की सेवा लेनी शुरु कर दी है।
हो सकता है,
नगरों-महानगरों में स्टेट बैंक की शाखायें चकाचक होती हों, स्टाफ भरपूर होते हों
और मूलभूत सुविधायें भी उपलब्ध होती हों, मगर मैंने दूर-दराज के इलाकों में स्टेट
बैंक की कुछ शाखाओं को देखा है और तकरीबन सभी जगह स्थिति एक-जैसी ही मिली है- सैकड़ों
की रेलम-पेल को सम्भालने के लिए एकाध स्टाफ, खटारा कम्प्यूटर, लचर लिंक, कबाड़खाने
जैसा वातावरण; शौचालय-पार्किंग की बात छोड़िये, पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं!
मूलभूत सुविधाओं से रहित इन शाखाओं की यह स्थिति
देखकर मुझे बरबस "इटालियन सैलून" की याद आ गयी है! शायद आप चौंक गये हों।
मैं भी चौंका था, जब हाई स्कूल के दिनों में एक दोस्त ने बताया था कि वह तो
इटालियन सैलून में बाल कटवाता है। बाद में उसने राज खोला कि रेलवे स्टेशन परिसर
में बैठने वाले नाईयों से वह बाल कटवाता है, जहाँ सुविधा के नाम पर सिर्फ एक छतरी
जमीन से गड़े एक छड़ से बँधी होती है- धूप से बचने के लिए। चूँकि यहाँ बाल काटने
वाला और कटवाने वाला दोनों "ईंट" पर बैठते हैं, इसलिए ऐसे सैलूनों को
"ईटालियन" सैलून कहना चाहिए- उसका कहना था।
(प्रसंगवश, ऐसे सैलून बहुत दिनों से मेरी नजर
से नहीं गुजरे हैं- शायद बहुत ही अन्दरुनी हिस्सों में अब भी ये पाये जाते हों।)
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