शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

खिलाड़ी और उसका पुरस्कार



समाचार के अनुसार, ओलिम्पिक में पच्चीस मीटर रैपिड पिस्टल फायर स्पर्द्धा के रजत पदक विजेता सूबेदार विजय कुमार को अगली प्रोन्नति देते हुए उन्हें सूबेदार मेजर बनाया गया है
      ध्यान रहे कि पदक जीतने के बाद विजय कुमार ने यह बताया था कि पदोन्नति में हो रही लेट-लतीफी के कारण वे सेना छोड़ने का मन बना रहे हैं। पदक जीतने के बाद ‘पुरस्कार स्वरुप’ जो पदोन्नति उन्हें अभी दी गयी, इसके लिए वे पिछले साल से ही हकदार थे। अतः इस पदोन्नति को ‘पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। हालाँकि थल सेनाध्यक्ष ने यह अश्वासन दिया है कि विजय कुमार अधिकारी बनने के योग्य हैं और उन्हें सेना में अधिकारी बनाने के लिए राष्ट्रपति को आवेदन दिया जायेगा। देखा जाय, हमारी कुख्यात लालफीताशाही इस प्रक्रिया को पूरा करने में कितना समय लेती है और हमारी सेना ‘वास्तव में’ एक जे.सी.ओ. को अधिकारी बनाना चाहती है या नहीं!
      जो साथी थल सेना के ‘रैंक एवं फाईल’ के बारे में नहीं जानते, उन्हें बता दूँ कि सेना में जवान, नायक तथा हवलदार ‘नन-कमीशंड’ अधिकारी (एन.सी.ओ.) होते हैं; नायब-सूबेदार, सूबेदार तथा सूबेदार-मेजर ‘जूनियर कमीशंड’ अधिकारी (जे.सी.ओ.) होते हैं; और लेफ्टिनेण्ट, कैप्टन, मेजर, कर्नल, ब्रिगेडियर, जेनरल ‘कमीशंड’ अधिकारी होते हैं, जिन्हें सांकेतिक रुप से देश के राष्ट्रपति ओहदा प्रदान करते हैं
      यहाँ जो मैं कहना चाहता हूँ, वह यह है कि देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों को सम्मानित करने के लिए एक अलग ही व्यवस्था होनी चाहिए- लालफीताशाही से अछूती! खिलाड़ी स्वदेश लौटा और दूसरे या तीसरे दिन उसे उसका सम्मान प्रदान कर दिया गया- कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। अभी आप देखते जाईये- विजय कुमार को सेना में कमीशन देने की अनुशंसा वाली फाईल कितने महीनों तक इधर-उधर भटकती है! साल-दो साल भी लग जाय, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
दूसरी बात, सेना में ‘कमीशंड’ अधिकारियों की जो ‘मानसिकता’ होती है, वह एन.सी.ओ. या जे.सी.ओ. के प्रति कुछ वैसी ही होती है, जैसी कि ‘ब्रिटिश’ अधिकारियों की ‘इण्डियन’ जवानों के प्रति हुआ करती थी। जो एन.सी.ओ. या जे.सी.ओ. सेना में अपनी योग्यता के बल पर अधिकारी बनते हैं, उन्हें अधिकारियों के मेस में या आवास में दूसरे दर्जे के अधिकारी के रुप में व्यवहार प्राप्त होता है। बेशक, विजय कुमार यह जानते होंगे और निकट भविष्य में एक छोटी-सी खबर आये कि उन्होंने सेना छोड़ दी है, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। (काश, आजादी के बाद ‘आजाद हिन्द फौज’ के सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल करते हुए इसका भारतीयकरण कर दिया गया होता!)
इस सम्बन्ध में मुझे याद आ रहा है कि 1988 में जब मैंने पहली बार भारतीय वायु सेना के ‘एक्वेटिक्स चैम्पियनशिप’ (तैराकी, वाटर-पोलो, डाइविंग प्रतियोगितायें, जो वायु सेना अकादमी, हैदराबाद में होती है) में भाग लिया था, तब एक लम्बे-तगड़े, साँवले तैराक की ओर ईशारा करके मुझे बताया गया था- ये वायु सेना के बेहतरीन तैराक हैं- कॉर्पोरल साहू। वायु सेना का ‘कॉर्पोरल’ रैंक थल सेना के ‘नायक’ के समतुल्य है। उन दिनों वे भी अगली पदोन्नति यानि सार्जेण्ट (थलसेना का हवलदार) नहीं बन पा रहे थे। दूसरे या तीसरे साल इसी चैम्पियनशिप में मुझे बताया गया- अब ये ‘पायलट अफसर’ साहू हैं! उन्हें ‘सार्क’ खेलों में दो सौ मीटर बटरफ्लाई स्ट्रोक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद ‘कमीशन’ दे दिया गया था। जहाँ तक मुझे याद है- इसमें लेट-लतीफी नहीं हुई थी।
कहने का तात्पर्य, पुरस्कार के लिए बाकायदे अलग नियम होने चाहिए और यह तुरन्त मिलना चाहिए- जैसे कि ओलिम्पिक में प्रतियोगिता समाप्त होने के घण्टे भर के अन्दर पदक दे दिये जाते हैं। कहा भी गया है- मजदूर को उसका पसीना सूखने से पहले मजदूरी दे देनी चाहिए!
व्यक्तिगत रुप से मैं ओलिम्पिक के लिए क्वालिफाय करने वाले सभी खिलाड़ियों को आई.ए.एस. अधिकारियों का वेतनमान दिये जाने का हिमायती हूँ और अपने ‘घोषणापत्र’ में मैंने इसका जिक्र किया भी है।
एक युवक आई.ए.एस. बनने के लिए जितना मानसिक श्रम करता है, क्या ओलिम्पियन बनने के लिए इससे कम शारीरिक श्रम की जरुरत होती है?       

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