शनिवार, 18 अगस्त 2012

18 अगस्त पर कुछ चुभते सवाल



(आज 18 अगस्त है। मैं मूर्ख सुबह इस तारीख को भूल गया था। दोपहर घर आने पर पता चला, बिजली सुबह से ही नदारद है और मेरे साहबजादे ने इन्वर्टर का काफी देर सदुपयोग करते हुए कम्प्यूटर चला लिया है। फिर भी, कुछ मिनटों के लिए कम्यूटर चला और जैसी कि मुझे उम्मीद थी- शिवम मिश्रा ने नेताजी के अन्तर्धान रहस्य से जुड़ी सामग्री नेट पर डाल दी थी। वास्तव में, शिवम जी किसी भी ऐसी तारीख को नहीं भूलते, जिसका सम्बन्ध देशभक्ति से हो। मैं उनके इस जज्बे का प्रशंसक रहा हूँ- जब से उन्हें जान रहा हूँ। अभी रात प्रायः दस बजे बिजली आने पर मैंने टायपिंग शुरु की है।)
*** 
      इस बार 18 अगस्त को मैं कुछ सवाल उठाकर अपने मन का बोझ हलका करना चाहता हूँ। ये सवाल बहुत दिनों से मुझे मथ रहे हैं, मगर बहुतों को ये सवाल (खासकर, पहला सवाल) चुभेगा- यह सोचकर मैं इन्हें नहीं उठाता था।
      ***
      तो पहला सवाल कुछ यूँ है कि प्रधानमंत्री रहते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने और गृहमंत्री रहते हुए श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने मुखर्जी आयोग को उसके द्वारा माँगे गये सरकारी दस्तावेज क्यों नहीं मुहैया करवाये थे?
      अब आप पद एवं गोपनीयता की शपथ की दलील देकर उनका बचाव न करें, तो बेहतर। यह कोई निजी आयोग नहीं था। कोलकाता उच्च न्यायालय के आदेश पर इसका गठन हुआ था और न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) मनोज कुमार मुखर्जी की आयोग के अध्यक्ष के रुप में नियुक्ति स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। ऐसे में, सरकार अगर मुखर्जी आयोग द्वारा माँगे गये सभी दस्तावेज उसे उपलब्ध करा देती, तो सरकार के फैसले को न्यायपालिका में असंवैधानिक ठहराये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता! दूसरी बात, मामला नेताजी से जुड़ा था- कौन माई का लाल सरकार के इस निर्णय पर उंगली उठाता, जरा उसका नाम तो बताकर देखिये!
इतना ही नहीं, इसी बहाने कुख्यात सत्ता-हस्तांतरण के दस्तावेज भी सार्वजनिक किये जा सकते थे कि इसमें भारत ने नेताजी को बीस वर्षों तक ब्रिटिश राजमुकुट का शत्रु माना गया ह या नहीं! (वैसे, सुना है कि ब्रिटेन में यह दस्तावेज सार्वजनिक हो चुका है और यह पुस्तक के रुप में उपलब्ध है- ब्रिटेन में गोपनीय दस्तावेजों को 30 वर्षों के बाद सार्वजनिक किये जा सकने का बाकायदे कानून है। पता नहीं, भारत को ऐसे कानून से क्या एलर्जी है। और न्यायपालिका को भी तह मामला क्यों नहीं दीखता!)
अगर अटल-आडवाणी चाहते, तो नेताजी के साथ-साथ लालबहादूर शास्त्री और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की रहस्यमयी मृत्यु से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों को भी सार्वजनिक किया जा सकता था!
***  
      दूसरा सवाल। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति की, ताकि पिछले दो आयोगों (शाहनवाज तथा खोसला आयोग) जैसा हश्र इस आयोग का न हो; (पिछले दोनों आयोगों के अध्यक्ष की नियुक्ति सरकारों ने की थी।) मगर इसकी मॉनिटरिंग सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों नहीं की? जब सरकार द्वारा आयोग के साथ असहयोग की खबरें अखबारों में आ रही थी, तब इनका संज्ञान क्यों नहीं लिया गया? क्यों नहीं सरकार को आयोग के साथ सहयोग करने का निर्देश दिया गया?
      ***
      आज सूचना आयोग ने सरकार को नेताजी से जुड़े दस्तावेजों को सार्जनिक करने का आदेश दे रखा है, मगर सरकार का कहना है कि ऐसा करने से सोवियत संघ के साथ उसके सम्बन्धों पर बुरा असर पड़ेगा। अब सरकार को कौन बताये कि सोवियत संघ के टूटे जमाना हो गया है। अब मास्को, ओम्स्क और याकुत्स्क तीनों शहर रूस में हैं (जहाँ नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज रखे हैं) और रूस को कोई आपत्ति नहीं है इन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में।  मुखर्जी आयोग के समय में ही तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत सरकार के आधिकारिक अनुरोध पर वे इन आलमारियों को खोलने के लिए तैयार हैं! (जिस भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने ही आलमारियों को नहीं खोलने दिया हो, वह भला रूस से ऐसा अनुरोध कैसे करेगा?)
      ***
      क्या यह मान लिया जाय, कि सभी राजनेता- चाहे वे काँग्रेस के हों, भाजपा के, या किसी भी दल के- एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं और अगर हमें नेताजी के अन्तर्धान-रहस्य पर से पर्दा उठाना है, तो सारे राजनेताओं को हटाकर एक नयी शासन-प्रणाली (थोड़े समय के लिए) कायम करनी होगी?
      क्या यह मान लिया जाय कि हमारी न्यायपालिका भी इस रहस्य पर से पर्दा हटाना नहीं चाहती और इसलिए (थोड़े समय के लिए) एक नयी शासन-प्रणाली कायम करने के रास्ते में अगर न्यायपालिका आड़े आती है, तो उसके भी खिलाफ हमें जाना पड़ेगा?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें